Sunday, February 23, 2025

दिल्ली में एक सपने का टूटना, और नई सरकार के सामने खड़ी चुनौतियाँ

आम आदमी पार्टी की हार और भाजपा की जीत का असर दिल्ली से बाहर देश के दूसरे इलाकों पर भी होगा। हालाँकि दिल्ली बहुत छोटा बल्कि आधा, राज्य है, फिर भी राष्ट्रीय-राजधानी होने के नाते सबकी निगाहों में चढ़ता है। वहाँ एक ऐसी पार्टी का शासन था, जिसके जन्म और सफलता के साथ पूरे देश के आम आदमी के सपने जुड़े हुए थे। उन सपनों को टूटे कई साल हो गए हैं, पर जिस वाहन पर वे सवार थे, वह अब जाकर ध्वस्त हुआ। बेशक, केंद्र की शक्तिशाली सत्तारूढ़ पार्टी ने उन्हें पराजित कर दिया, लेकिन अरविंद केजरीवाल और उनकी पार्टी के राजनीतिक पतन के पीछे तमाम कारण ऐसे हैं, जिन्हें उन्होंने खुद जन्म दिया। 

नतीजे भाजपा की विजय के बारे में कम और ‘आप’ के पतन के बारे में ज्यादा हैं। यह बदलाव राजनीतिक परिदृश्य में अचानक नहीं हुआ है, बल्कि इसके पीछे 2014 से चल रही कशमकश है। केंद्र सरकार ने उपराज्यपाल, नगर निगमों, केंद्रीय शहरी विकास मंत्रालय और दिल्ली पुलिस के माध्यम से शासन पर नकेल डाल रखी थी। आम आदमी पार्टी की सरकार ने भी अपने पूरे समय में केंद्र के साथ तकरार जारी रखी। इसके नेता केजरीवाल की राष्ट्रीय-महत्वाकांक्षाएँ कभी छिपी नहीं रहीं। उनकी महत्वाकांक्षाएँ जितनी निजी थीं, उतनी सार्वजनिक नहीं। 

मोदी की सफलता

बीजेपी ने इससे पहले दिल्ली विधानसभा का चुनाव 1993 में जीता था। पिछले दो चुनावों में केंद्र में अपनी सरकार होने के बावजूद वह जीत नहीं पाई। इसका एक बड़ा कारण राज्य स्तर पर कुशल संगठन की कमी थी। इसबार पार्टी ने न केवल पूरी ताकत से यह चुनाव लड़ा, साथ ही संगठन का पूरा इस्तेमाल किया। ऐसा करते हुए उसने किसी नेता को संभावित मुख्यमंत्री का चेहरा बनाने की कोशिश भी नहीं की, बल्कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को आगे रखा। प्रधानमंत्री ने भी दिल्ली के प्रचार को पर्याप्त समय दिया और आम आदमी पार्टी को ‘आपदा’ बताकर एक नया रूप भी दिया। उन्होंने जिस तरह से प्रचार किया, उससे समझ में आ गया था कि वे दिल्ली में सत्ता-परिवर्तन को कितना महत्व दे रहे हैं। 

पार्टी ने केजरीवाल और मनीष सिसौदिया पर लगे भ्रष्टाचार के आरोपों को अपनी रणनीति में केंद्रीय-स्थान दिया। ‘आप’ की सांसद स्वाति मालीवाल के आरोपों ने भी मतदाता को प्रभावित किया। बीजेपी ने अपने प्रचार के दौरान कहा कि केजरीवाल के वायदे झूठे होते हैं। पंजाब में आम आदमी पार्टी ने महिलाओं को हर महीने एक हज़ार रुपए देने का वादा किया था, लेकिन तीन साल में अभी तक एक किस्त भी जारी नहीं की है। भाजपा ने इसे दिल्ली के चुनाव में अपने चुनावी प्रचार का मुख्य हिस्सा बनाया। महिलाओं के बीच यह प्रचारित किया कि वे जब पंजाब में नहीं दे पाए तो यहाँ कैसे देंगे?

बीजेपी ने जोर देकर कहा कि दिल्ली में डबल इंजन की सरकार राज्य को उन विसंगतियों से मुक्ति दिलाएगी, जो केजरीवाल सरकार के केंद्र से बात-बात पर झगड़ा मोल लेने के कारण पैदा हुई हैं। उपराज्यपाल और केजरीवाल की तकरार को वोटर ने पसंद नहीं किया। दिल्ली में एक तरफ झुग्गी-झोपड़ियों में रहने वाला मतदाता है, जिसके भीतर केजरीवाल ने पैठ बना रखी है, वहीं बड़ी तादाद में मध्य वर्ग का मतदाता है, जिसने केजरीवाल सरकार को बाहर का रास्ता दिखाने का फैसला कर लिया था। 

केंद्र सरकार के बजट में आयकर में मिली छूट से भी वोटर का मनोबल बढ़ा। दिल्ली में बड़ी संख्या में केंद्र से लेकर राज्य सरकार के कर्मचारी रहते हैं। जनवरी के मध्य में केंद्र सरकार ने आठवें वेतन आयोग के गठन की घोषणा की थी, जिसका असर अच्छा हुआ। दिल्ली के संसाधनों के सहारे आम आदमी पार्टी की सरकार ने मुफ़्त में बहुत कुछ दिया, जो ग़रीबों ने पसंद किया, लेकिन मध्यम वर्ग को लगा कि शहर के बुनियादी ढाँचे में जो सुधार होना चाहिए वह नहीं हुआ। बुनियादी ढाँचा मूल रूप से अब भी वही है जो शीला दीक्षित छोड़कर गई थीं। 

अब बीजेपी की चुनौतियाँ 

बीजेपी की सरकार के सामने अब चुनौती उन वायदों को पूरा करने की होगी, जो उसने वोटर से किए हैं। इन चुनावी वायदों को पूरा करना बड़ी बात होगी। क्या नई सरकार मुफ्त बिजली-पानी जारी रखेगी? अपनी चुनाव-सभाओं में प्रधानमंत्री ने कहा था कि जनता की भलाई के लिए चल रही योजनाएँ जारी रहेंगी। सवाल है कि उनके लिए संसाधन कहाँ से आएँगे? 

दिल्ली का बजट इस समय करीब 76 हजार करोड़ रुपये का है। महिलाओं को 2500 रुपए प्रतिमाह देने के वायदे को पूरा करने के लिए करीब 11 हजार करोड़ रुपए चाहिए। 60 साल से ऊपर के बुजुर्गों को ढाई से तीन हजार रुपए मासिक पेंशन का वायदा है। इस मद पर भी 4,100 करोड़ रुपए खर्च होंगे। बिजली-पानी की योजना को जारी रखने के लिए करीब 11 हजार करोड़ रुपए की आवश्यकता होगी। 500 रुपए में गैस सिलेंडर और होली और दीवाली पर इसे फ्री देने की पेशकश भी सरकार का बजट बढ़ाएँगी। वायदे कुछ और भी हैं। सरकार को राजस्व बढ़ाने के लिए नए रास्ते तलाशने होंगे। 

चूंकि केंद्र और राज्य दोनों एक ही पार्टी के अधीन हैं, इसलिए बहुत सी बातें आसान भी हैं। चूँकि ज्यादातर संसाधन इन बातों पर लग जाएँगे, तब इंफ्रास्ट्रक्चर के लिए संसाधनों का सवाल पैदा होगा। दिल्ली में प्रदूषण को दूर करने और यमुना के पानी को साफ करने की चुनौती ऊपर से है। वित्तीय बोझ है लेकिन केंद्रशासित प्रदेश होने कारण केंद्र सरकार की ज़िम्मेदारी बढ़ जाती है। 

‘आप-मॉडल’ का पराभव

‘आप’ का उदय दिल्ली के मध्यम वर्ग के लिए इसकी अपील में निहित है, जिसने भ्रष्टाचार-विरोधी आंदोलन से प्रेरणा लेकर राजनीतिक शक्ल ली। इसने पारंपरिक सत्ता-प्रतिष्ठान के खिलाफ अपनी बयानबाजी से लोगों का ध्यान खींचा। सत्ता पाने के बाद अराजक-कल्याणवाद को मजबूती दी। इससे उसे राजनीतिक-सफलता तो मिली, पर प्रशासनिक-सफलता नहीं मिली। सबसे बड़ा झटका तब लगा जब उसके खिलाफ भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप सामने आए। इनमें एक जानकारी यह थी कि केजरीवाल ने अपने आधिकारिक आवास के नवीनीकरण के लिए करोड़ों रुपयों की फिजूलखर्ची कर दी। इससे पार्टी के संस्थापक आदर्श तार-तार हो गए। चोट इतनी गहरी है कि उससे उबरना मुश्किल होगा। ‘आप’ ने अपनी सफलता को दिल्ली मॉडल का नाम दिया था, पर वस्तुतः वह पाखंड का दिल्ली मॉडल बन गई। 

नवंबर 2013 में जब आम आदमी पार्टी का जन्म हुआ था, तब लगता था कि देश की राजनीति में बुनियादी बदलाव आने वाला है, पर पिछले 11 वर्षों की सत्ता का निष्कर्ष यह है कि राजनीति में बदलाव का इरादा लेकर आई पार्टी के इरादों को राजनीति ने बदल कर रख दिया। इस पार्टी के जन्मदाताओं में अरविंद केजरीवाल, मनीष सिसौदिया, गोपाल राय और एकाध और लोगों के नामों को छोड़ दें, तो काफी लोग इसे छोड़कर जा चुके हैं। 

अलग छवि का टूटना

‘आप’ को लेकर तीन सवाल पिछले कुछ वर्षों में खड़े हुए हैं। बड़ी तेजी से बढ़ने के बाद इस पार्टी की छवि उतनी ही तेजी के साथ क्यों गिरती चली गई? क्या इस गिरावट के कारण वैकल्पिक-राजनीति के प्रयासों के धक्का नहीं लगेगा? तीसरे, क्या वजह है, जो ऐसी नौबत आई? पार्टी के हमदर्द कह सकते हैं कि गिरावट नहीं आई, हम साजिशों के शिकार हुए हैं। हमारी पार्टी का विकास जिस तरीके से हुआ, वह सामान्य राजनीतिक प्रक्रिया है। सभी पार्टियों में ऐसा होता है। पर इसका विकास, दूसरे दलों की तरह ही होना चाहिए था? 

सबसे बड़ी बात यह है कि यह केजरीवाल-केंद्रित पार्टी बन गई, जबकि जिस राजनीति का ये लोग हवाला दे रहे हैं, उसकी बुनियादी शर्त खुलापन और लोकतंत्र है। इससे शामिल बड़ी संख्या में लोग हटते चले गए। कुछ खुद हटे और कुछ हटाए गए। योगेन्द्र यादव, प्रशांत भूषण और आनंद कुमार का हटना बड़ी परिघटना थी, जिससे पार्टी टूटी तो नहीं, पर उससे इतना जाहिर जरूर हुआ कि इसकी राजनीति में ‘नया’ कुछ नहीं है। पार्टी छोड़ने वालों में कई ऐसे नाम हैं, जो उसके वैचारिक सूत्रधारों में शामिल थे। इनमें कैप्टेन गोपीनाथ, एडमिरल रामदास, मयंक गांधी, अंजली दमनिया, विशाल डडलानी और मेधा पाटकर शामिल हैं। इस दौरान पार्टी की एक केंद्रीय हाईकमान का उदय हुआ, जो अरविंद केजरीवाल स्वयं थे।

नगर-केंद्रित राजनीति 

देश में ज्यादातर राजनीति ग्राम-केंद्रित है, पर दिल्ली जैसे छोटे प्रदेश से एक आदर्श नगर-केंद्रित राजनीति का मौक़ा आम आदमी पार्टी को मिला। यह अपेक्षाकृत नया विचार था। नगर-केंद्रित राजनीति क्या हो सकती है, उसपर अलग से विचार करने की जरूरत है। इसने धीरे-धीरे काम किया होता तो इस मॉडल को सारे देश में लागू करने की बातें होतीं, पर पार्टी ने एकसाथ सारे देश को जीतने के इरादे घोषित कर दिए। यह भी ठीक था, पर उसके लिए पर्याप्त होमवर्क और परिपक्व-विचार नहीं था। राजनीतिक-विस्तार के लिए जिन संसाधनों की जरूरत होती है, उसे बटोरने के चक्कर में यह उसी वात्याचक्र में घिर गई, जिसे शुरू में इसके नेता राजनीतिक-भ्रष्टाचार कहते थे। उसके नेताओं ने महत्वाकांक्षाओं का कैनवस इतना बड़ा बना लिया कि उसपर कोई तस्वीर बन ही नहीं सकती। 

राजनीति के लिए पैसा चाहिए और आम आदमी पार्टी सत्ता के उन स्रोतों तक पहुँचने में नाकाम रही जो प्राणवायु प्रदान करते हैं। यह पार्टी इस प्राणवायु के स्रोत बंद करने के नाम पर आई थी और ख़ुद इस 'ऑक्सीजन' की शिकार हो गई। सब कुछ केवल पार्टी के विरोधियों की साज़िश के कारण नहीं हुआ। ‘आप’ का दोष केवल इतना नहीं है कि उसने एक सुंदर सपना देखा और उसे सच करने में वह नाकामयाब हुई। ऐसा होता तब भी गलत नहीं था। अब ऐसा सपना देखने वालों पर जनता आसानी से भरोसा नहीं करेगी। वस्तुतः ‘आप’ यह साबित करने में फेल हुई कि वह आपकी पार्टी है। 

अहंकार टूटा

दिसंबर 2013 में पहली बार चुनाव जीतने के बाद अरविंद केजरीवाल ने जंतर-मंतर में हुई सभा में पर कहा, ‘यहाँ जितने विधायक बैठे हैं। मैं उन सभी से हाथ जोड़कर कहूंगा कि घमंड में कभी मत आना। अहंकार मत करना। आज हम लोगों ने भाजपा और कांग्रेस वालों का अहंकार तोड़ा है। कल कहीं ऐसा न हो कि किसी आम आदमी को खड़ा होकर हमारा अहंकार तोड़ना पड़े। ऐसा न हो कि जिस चीज़ को बदलने हम चले थे कहीं हम उसी का हिस्सा हो जाएँ।’

आज कह सकते हैं कि जिस राजनीति को वे बदलने चले थे, उसने उन्हें बदल दिया है। उनका दावा था, ‘हम राजनीति करने नहीं इसे बदलने आए हैं!’ यह पार्टी वैकल्पिक राजनीति का एक सपना थी। वह सपना बहुत जल्दी टूट गया। 

ऐसा नहीं है कि ‘आप’ ने कुछ अलग करने की कोशिश नहीं की, पर यह कोशिश प्रचारात्मक ज्यादा थी। 2020-21 में कोविड के दौरान और उसके पहले और बाद में भी लगातार बढ़ते प्रदूषण और खासतौर से यमुना के पानी के प्रदूषण ने लोगों को परेशान कर दिया। एक तरफ मुफ्त पानी दिया जा रहा था, वहीं कुछ ऐसे इलाके थे, जहाँ पीने के पानी की इतनी किल्लत थी कि लोगों को टैंकर खरीदने पड़ते थे। इससे टैंकर-माफिया की अवधारणा विकसित हुई। बेशक सरकारी स्कूल के जीर्णोद्धार और, कम सफलता के साथ, सब्सिडी वाले पानी और बिजली के प्रावधान के साथ मोहल्ला क्लीनिक स्थापित करने में उसने सफलता भी हासिल की, पर उससे जुड़े भ्रष्टाचार के आरोप भी हैं, जो अब सामने आएँगे। तेजी से बढ़ते महानगर की समस्याएं और मुद्दे दूसरे भी थे, जिन पर ‘आप’ सरकार लापरवाह, लापरवाह या असहाय नजर आई। पेयजल की किल्लत, सड़कों की खराब होती हालत, कूड़े के ढेर, खुली नालियां, जाम सीवर लाइनें और बिगड़ते एक्यूआई ने ‘आप’ को हास्यास्पद बना दिया। 

कांग्रेस की भूमिका

दिल्ली में इस दौरान एक सवाल बार-बार पूछा जा रहा है कि कांग्रेस और ‘आप’ का गठबंधन होता, क्या तब भी भाजपा को इतनी बड़ी सफलता मिलती? ‘आप’ के ओखला विधायक अमानतुल्ला खान ने अपनी पार्टी की हार के लिए कांग्रेस को दोषी ठहराया। उन्होंने कहा कांग्रेस पर अपनी चुनावी सफलता से ज्यादा ‘आप’ की हार को प्राथमिकता देने का आरोप लगाया। उन्होंने कहा, 'कांग्रेस ने जीतने के लिए नहीं बल्कि हमारी हार सुनिश्चित करने के लिए चुनाव लड़ा। उन्होंने हमें हराने की ठान ली थी।' कांग्रेस ने बीजेपी की बी टीम जैसा काम किया। 

इस चुनाव में बीजेपी और उसके दो सहयोगी दलों को कुल मिलाकर 47.15 प्रतिशत वोट और 48 सीटें मिलीं। ‘आप’ को 43.57 प्रतिशत वोट और 22 सीटें मिलीं। कांग्रेस को 6.34 प्रतिशत वोट मिले, पर कोई सीट नहीं मिली। ‘आप’ और कांग्रेस का गठबंधन होता, तब शायद बात कुछ और हो सकती थी, पर राजनीति में गणित की तुलना में केमिस्ट्री भी काम करती है। यह मान लेना भी ठीक नहीं है कि ‘आप’ और कांग्रेस को जितने वोट अब मिले हैं, तब वे सब एकसाथ आ जाते। 

वस्तुतः कांग्रेस ने कुछ देर सी सही, पर अब 'धर्मनिरपेक्ष राजनीति' की जड़ें मजबूत करने के लिए अपना बलिदान देने से इनकार करने का फैसला कर लिया है। गौर से देखें, तो 1991 में कांग्रेस ने उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह का समर्थन करने के बाद से समाजवादी पार्टी की अधीनता ऐसी स्वीकार की है कि वह उसकी जकड़बंदी से बाहर निकल नहीं पाई है। ऐसा ही दिल्ली में होता। उत्तर प्रदेश में सपा के पास और दिल्ली में ‘आप’ के पास जो वोट है, वह कांग्रेस से ही छीना गया है। कांग्रेस को अपना अस्तित्व बनाए रखना है, तो उसे किसी दूरगामी राजनीति के बारे में सोचना होगा।  

पंजाब और गुजरात के परिणाम आने के पहले तक कांग्रेस पार्टी की कोशिश ‘आप’ के साथ संबंध सुधारने की थी, पर 2022 में उसे समझ में आने लगा कि इसका विकास कांग्रेस के वोटों की कीमत पर हो रहा है। 2017 में गुजरात में कांग्रेस का वोट शेयर 41.44 फ़ीसदी था, जो 14.14 फ़ीसदी गिरकर 27.30 हो गया, जो करीब पूरा का पूरा आम आदमी पार्टी के पास चला गया है। 2017 में आप केवल 0.6 फ़ीसदी वोट हासिल कर सकी थी, और 2022 में उसे 12.0 फ़ीसदी वोट मिले। दिल्ली में एमसीडी के चुनाव में भी कांग्रेस का वोट प्रतिशत 31 से घटकर 9 पर आ गया। कांग्रेस के क्षय में आम आदमी पार्टी की भूमिका साफ है।

इंडिया गठबंधन  

पिछले साल हरियाणा में सफलता की उम्मीदें ढेर होने के बाद कांग्रेस ने आम आदमी पार्टी के साथ गठबंधन को लेकर पुनर्विचार शुरू किया। उसके पहले लोकसभा चुनाव में उसने दिल्ली में लोकसभा की सात सीटों पर मिलकर चुनाव लड़ा था, पर एक भी सीट पर सफलता नहीं मिली। लोकसभा चुनाव में हालांकि कांग्रेस को 99 सीटें मिलीं, पर इंडिया गठबंधन के सहयोगी दलों ने कांग्रेस के नेतृत्व को लेकर सवाल उठाने शुरू कर दिए। फिर महाराष्ट्र में भी इंडिया गठबंधन विफल रहा। 

हाल के कुछ महीनों में उत्तर प्रदेश के अखिलेश यादव और बंगाल में ममता बनर्जी ने कांग्रेस को लेकर तल्ख टिप्पणियाँ की हैं। दिल्ली के चुनाव में अखिलेश यादव ने ‘आप’ के पक्ष में प्रचार किया। बहरहाल दिल्ली के परिणामों का असर इंडिया गठबंधन के भविष्य पर पड़ेगा। इस साल के अंत में बिहार विधानसभा के चुनाव होंगे। उसमें इंडिया गठबंधन की ताकत का पता लगेगा। लगता तो यही है कि वहाँ राजद और कांग्रेस का गठबंधन होगा, पर उसके पहले किस प्रकार के समीकरण बनेंगे और बिगड़ेंगे, इसे देखना और समझना होगा। 

‘आप’ के हौसले

2020 में दिल्ली विधानसभा का चुनाव जीतने के बाद आम आदमी पार्टी के हौसले आसमान पर पहुँच गए। पार्टी ने घोषणा की है कि आने वाले समय में वह छह राज्यों के विधानसभा चुनावों में भाग लेगी। ये राज्य हैं यूपी, उत्तराखंड, गोवा, पंजाब, हिमाचल प्रदेश और गुजरात। दूसरी तरफ पार्टी ने किसान आंदोलन के दौरान अपनी गतिविधियाँ बढ़ाईं । पार्टी को किसान आंदोलन भी अपने आप को लांच करने का उपयुक्त प्लेटफॉर्म लगा। उसने किसानों का सड़क से संसद तक समर्थन करने का ऐलान किया है। साथ ही कहा है कि ‘आप’ कार्यकर्ता बिना पार्टी के झंडे और टोपी के किसानों के साथ खड़े होंगे। केजरीवाल ने धरने में किसानों के लिए दिल्ली से पानी और शौचालय की व्यवस्था कराकर हर संभव मदद का आश्वासन दिया।

2022 में पंजाब विधानसभा के चुनाव में आम आदमी पार्टी को 117 सीटों में से 92 पर जीत हासिल हुई। दिल्ली के बाद दूसरा राज्य उसकी झोली में आ गया। उसी साल गुजरात विधानसभा और दिल्ली नगर महापालिका के चुनाव परिणामों ने पार्टी के हौसलों को आसमान पर पहुँचा दिया। गुजरात के चुनावों ने ‘आप’ को राष्ट्रीय मंच उपलब्ध करा दिया। वहाँ 12.9 प्रतिशत मत पाकर वह अब राष्ट्रीय पार्टी बनने की हकदार हो गई। राष्ट्रीय पार्टी बनने के लिए किसी दल को कुछ अन्य शर्तों के अलावा कम से कम चार राज्यों में अच्छी उपस्थिति दर्शानी होती है तथा वहाँ के विधानसभा चुनाव में कम से कम दो सीट और छह फीसदी मत हासिल करने होते हैं। 

उस समय पार्टी दिल्ली और पंजाब में सत्ता में थी और गोवा विधानसभा में उसे दो सीट पर जीत मिली थीं। पार्टी ने अपनी स्थापना के 10 साल से कम समय में यह मुकाम हासिल किया। ‘आप’ को लगा कि 2024 के लोकसभा चुनाव में वह प्रमुख विरोधी दल बनने की तरफ कदम बढ़ा सकती है। कांग्रेस के क्षय के कारण देश में वैकल्पिक राजनीति के लिए जगह खाली हो रही है। ‘आप’ के बुलंद हौसलों ने कांग्रेस को सोचने को मज़बूर किया है। 

पंजाब में हलचल

दिल्ली के चुनावी नतीजों के बाद पंजाब में कांग्रेस नेता प्रताप सिंह बाजवा ने एक बार फिर से यह दावा किया है कि आप के 30 विधायक कांग्रेस के संपर्क में हैं। यह सही है या गलत, पर इस बात ने राजनीति में हलचल मचा दी है। मंगलवार 11 फरवरी को पंजाब के इन विधायकों को दिल्ली बुलाया गया और अरविंद केजरीवाल और भगवंत मान पंजाब के साथ उनकी बैठक हुई। इस बैठक के बाद भगवंत मान ने कहा, प्रताप सिंह बाजवा तो पौने तीन साल से यही कह रहे हैं। उनको कहने दीजिए, उनके पास तो विधायक हैं नहीं। 

इस बीच खबरें हैं कि केजरीवाल अब पंजाब में रहने पर विचार कर रहे हैं। ऐसा इसलिए क्योंकि ‘आप’ के प्राण अब दिल्ली में नहीं बचे हैं। कयास हैं कि अरविंद केजरीवाल पंजाब में मुख्यमंत्री की कमान संभाल सकते हैं। समझदारी की बात है कि ऐसा सोचना भी नहीं चाहिए। पंजाब किसी बाहरी नेता को स्वीकार नहीं करेगा। खासतौर से ऐसे नेता को जो दिल्ली में चुनाव हार गया है। पंजाब के मुकाबले दिल्ली में ‘आप’ के टूटने का खतरा ज्यादा बड़ा है। ‘आप’ के भीतर भी असंतुष्ट नेता हैं, जो केजरीवाल से नाराज़ हैं। समय आने पर पता लगेगा कि पार्टी किस दिशा में जाएगी। 


मुख्यमंत्री रेखा गुप्ता

दिल्ली के चुनाव परिणाम आने के ग्यारह दिन बाद भाजपा ने शालीमार बाग से नवनिर्वाचित विधायक 50 वर्षीय रेखा गुप्ता को दिल्ली का मुख्यमंत्री घोषित कर दिया। व्यवसाय से वकील रेखा गुप्ता, दिल्ली की चौथी महिला मुख्यमंत्री हैं। वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की पुरानी कार्यकर्ता हैं, जिन्होंने अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के रास्ते राजनीति में प्रवेश किया। वे दिल्ली नगर निगम की पार्षद और दिल्ली विश्वविद्यालय छात्र संघ की अध्यक्ष भी रह चुकी हैं। उनका जन्म 1974 में हरियाणा के जींद ज़िले के जुलाना में हुआ था। पुष्कर सिंह धामी (उत्तराखंड) और पेमा खांडू (अरुणाचल प्रदेश) के बाद वे मुख्यमंत्री पद पर नियुक्त होने वाली बीजेपी की तीसरी सबसे कम उम्र नेता हैं। मुख्यमंत्री के रूप में नामित होने के बाद अपनी पहली टिप्पणी में उन्होंने कहा, ‘इस जिम्मेदारी के लिए मैं अपने केंद्रीय नेतृत्व, प्रधानमंत्री मोदी और सभी विधायकों को धन्यवाद देती हूँ। मैं दिल्ली को नई ऊँचाइयों पर ले जाने के लिए पूरी तरह प्रतिबद्ध हूँ।’

भारत वार्ता के फरवरी 2025 अंक में प्रकाशित

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