Friday, October 14, 2022

अंग्रेजी भाषायी साम्राज्यवाद से बचने की जरूरत


भारतीय भाषाओं में उच्च शिक्षा-2

आजादी के 75 साल बाद भी यदि मैं आपको सुझाव दूँ कि अंग्रेजी साम्राज्यवाद की दासता छोड़ें, तो आपको हैरत होगी। काफी लोग समझते हैं कि ब्रिटिश सरकार का शासन तो गया। वस्तुतः जब आप अंग्रेजी भाषा की शिक्षा को ज्ञान-विज्ञान की भाषा मानते हुए आगे बढ़ते हैं, तब यह सवाल पैदा होता है कि उच्च शिक्षा या ज्ञान-विज्ञान का माध्यम भारतीय भाषाएं क्यों न बनें? भारत में अंग्रेजी का स्तर दुनिया के बहुत से गैर-अंग्रेजी देशों से बेहतर है, इसमें दो राय नहीं, पर क्या केवल इसी वजह से हमें अपनी शिक्षा-व्यवस्था को अंग्रेजी के हवाले कर देना चाहिए? हमने भारतीय भाषाओं में उच्च शिक्षा के बारे में क्यों नहीं सोचा? इसके भी दो-तीन बड़े कारण हैं। एक तो भारतीय भाषाओं में विज्ञान और तकनीकी साहित्य की कमी और इनके माध्यम से शिक्षा प्रदान करने वाली व्यवस्थाओं की अनुपस्थिति।

माना यह भी जाता है कि हम अंग्रेजी में शिक्षा पाने के बाद वैश्विक समुदाय के बराबर आ जाते हैं और वैश्विक विद्वानों से हमारा संवाद आसानी से संभव है। हमारी तुलना में चीन जैसे देशों को दिक्कत होती है। पर क्या चीन का अकादमिक स्तर हम से कम है? हम से कम नहीं हमसे बेहतर ही है। हमें अपने सॉफ्टवेयर कार्यक्रम पर गर्व है, क्योंकि उसमें अंग्रेजी की सहायता हमें मिली। पर सॉफ्टवेयर के क्षेत्र में भी चीन हमसे पीछे नहीं है। फर्क केवल यह है कि हम पश्चिमी देशों के लिए सॉफ्टवेयर का काम करते हैं और चीन अपने आंतरिक कार्यों के लिए सॉफ्टवेयर बनाता है।

आप अपने मोबाइल फोनों को देखें, तो पाएंगे कि चीनी सॉफ्टवेयर गेमिंग और मनोरंजन से जुड़े सॉफ्टवेयरों में भी काफी आगे हैं। मेडिकल साइंस, नाभिकीय ऊर्जा और अंतरिक्ष विज्ञान से जुड़े तमाम शोध वे अपनी भाषा में ही करते हैं। यही बात जापान, कोरिया और इसरायल जैसे देशों पर लागू होती है। यूरोप के गैर-अंग्रेजी भाषी देशों की बात करना उचित नहीं होगा, क्योंकि उनकी भाषाएं पहले से काफी समृद्ध हैं।

भारत की समस्या राजनीतिक है, जिसके पीछे सामाजिक-सांस्कृतिक बहुलता को बड़ा कारक माना जाता है। माना जाता है कि अंग्रेजी हमें जोड़ती है। देश के सभी इलाके के लोगों को अंग्रेजी स्वीकार्य है। ऐसी कोई भारतीय भाषा नहीं है, जो पूरे देश को जोड़ती हो और जिसे पूरा देश स्वीकार करता हो। यह बात एक हद तक सही है, पर पूरी तरह सही नहीं है। देश के स्वतंत्रता संग्राम की भाषा काफी हद तक हिंदी या हिंदुस्तानी थी, अंग्रेजी नहीं। महात्मा गांधी ने भारत आने से पहले दक्षिण अफ्रीका से अपना अखबार शुरू किया तो उसमें अंग्रेजी के अलावा गुजराती हिन्दी और तमिल का इस्तेमाल भी किया और भारत आने बाद तो देशभर में जनता के बीच वे हिंदी या हिंदुस्तानी का इस्तेमाल ही करते थे।

अंगरेजी शिक्षा के गैर-भारतीय और मशीनी स्वरूप को लेकर गांधी के मन में गहरी पीड़ा थी। खासतौर से भाषा के संदर्भ में। ‘हिन्द स्वराज’ में उन्होंने यूरोप की मशीनी सभ्यता की आलोचना की, वहीं अंगरेजों की थोपी शिक्षा पद्धति का विरोध भी किया। उन्होंने कहा, ‘करोड़ों लोगों को अंगरेजी शिक्षण देना उन्हें गुलामी में डालने जैसा है। ऐसा नहीं कि वे अंगरेजी के शैक्षिक महत्व को जानते समझते नहीं थे, पर इस विषय पर रवींद्रनाथ ठाकुर के साथ उनकी असहमति सर्वज्ञात है।

‘इंडियन ओपीनियन’ के 19-8-1910 के अंक में उन्होंने लिखा, ‘हम लोगों में बच्चों को अंगरेज़ बनाने की प्रवृत्ति पाई जाती है। मानो उन्हें शिक्षित करने का और साम्राज्य की सच्ची सेवा के योग्य बनाने का वही सबसे उत्तम तरीका है।’ मातृभाषा के महत्व को लेकर गांधी जी ने उपरोक्त विचार दक्षिण अफ्रीका में रहते हुए व्यक्त किए थे और 1915 में भारत आने के बाद भी वे इस बात को दोहराते रहे।

अंग्रेजी मनोदशा पर अलग से विचार करने की जरूरत है. जिसपर मैं आगे की किसी कड़ी में लिखूँगा। अलबत्ता यहाँ रॉबर्ट फिलिपसन और उनके जैसे कुछ और लेखकों का उल्लेख करना चाहूँगा, जिन्होंने अंग्रेजी के भाषायी साम्राज्यवाद (लिंग्विस्टिक इंपीरियलिज़्म) की ओर इशारा किया है। अंग्रेजों के जाने के बाद भी अंग्रेजी साम्राज्यवाद गया नहीं है और हमारे विचारों, संस्कृति और शिक्षा को प्रभावित कर रहा है।

फरवरी 1916 में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के उद्घाटन समारोह में उन्होंने कहा, ‘‘इस महान विद्यापीठ के प्रांगण में अपने ही देशवासियों से अंगरेजी में बोलना पड़े, यह अत्यन्त अप्रतिष्ठा और लज्जा की बात है।…हमारी भाषा हमारा ही प्रतिविम्ब है। आप मुझ से यह कहें कि हमारी भाषाओं में उत्तम विचार अभिव्यक्त किए ही नहीं जा सकते तब तो हमारा संसार से उठ जाना ही अच्छा है।…यदि पिछले पचास वर्षों में हमें देशी भाषाओं द्वारा शिक्षा दी गई होती, तो …हमारे पास एक आजाद भारत होता।’

आजादी के बाद शुरुआती दशकों में चीन और भारत की यात्राएं समांतर चलीं, पर बुनियादी मानव-विकास में चीन हमें पीछे छोड़ता चला गया। बावजूद इसके कि आर्थिक विकास की हमारी गति बेहतर थी। आज भारत सॉफ्टवेयर, फार्मास्युटिकल्स या चिकित्सा के क्षेत्र में आगे है तो इसके पीछे हमारी नीतियाँ हैं, पर असली भारत पीछे हैं, तो उसके पीछे भी हमारी नीतियाँ हैं। सन 2011 में नेशनल यूनिवर्सिटी ऑफ एजुकेशनल प्लानिंग एंड एडमिनिस्ट्रेशन से डॉक्टरेट की मानद उपाधि ग्रहण करते हुए अमर्त्य सेन ने कहा था, भारत समय से प्राथमिक शिक्षा पर निवेश न कर पाने की कीमत आज अदा कर रहा है। हमने तकनीकी शिक्षा के महत्व को पहचाना जिसके कारण आईआईटी जैसे शिक्षा संस्थान खड़े हुए, पर प्राइमरी शिक्षा के प्रति हमारा दृष्टिकोण ‘निराशाजनक’ रहा।

गांधी ने शिक्षा में अक्षर ज्ञान से ज्यादा शारीरिक श्रम की प्रतिष्ठा को महत्व दिया। 1-9-1921 के ‘यंग इंडिया’ में उन्होंने लिखा, ‘अन्य देशों के बारे में कुछ भी सही हो, कम-से-कम भारत में तो-जहाँ अस्सी फीसदी आबादी खेती करने वाली है और दूसरी दस फीसदी उद्योगों में काम करने वाली है, शिक्षा को केवल साहित्यिक बना देने तथा लड़कों और लड़कियों को उत्तर-जीवन में हाथ के काम के लिए अयोग्य बना देना गुनाह है।...क्यों एक किसान का बेटा किसी स्कूल में जाने के बाद खेती के मजदूर के रूप में निकम्मा बन जाय।...हमारी पाठशालाओं के लड़के शारीरिक श्रम को तिरस्कार की दृष्टि से चाहे न देखते हों, पर नापसंदगी की नजर से तो जरूर देखते हैं।’ बुनियादी तालीम का उनका विचार इस मनोदशा को तोड़ने वाला था।

22–23 अक्टूबर, 1937 को वर्धा में 'अखिल भारतीय शैक्षिक सम्मेलन' हुआ, जिसकी अध्यक्षता गांधीजी ने की। सम्मेलन में 'नई तालीम' पर हुई चर्चा में विनोबा भावे, काका कालेलकर तथा जाकिर हुसैन, सहित अनेक विद्वानों ने भाग लिया। सम्मेलन के प्रस्तावों में कहा गया, बच्चों को सात साल तक राष्ट्रव्यापी, निःशुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा दी जाय, शिक्षा का माध्यम मातृभाषा हो। मतलब यह नहीं कि गांधी ने उच्च शिक्षा पर ध्यान नहीं दिया। वे इस बुनियाद पर ही उच्च शिक्षा का भवन खड़ा करना चाहते थे।

डॉ जयंत विष्णु नार्लीकर मातृभाषा के माध्यम से उच्च शिक्षा देने के समर्थक हैं। पंजाबी विश्वविद्यालय के भाषा विज्ञानी जोगा सिंह ने इस सिलसिले में कई शोधपत्र भी लिखे हैं। उनका कहना है, जीवन के महत्त्वपूर्ण क्षेत्रों में अंग्रेज़ी भाषा के दखल से भारत को बहुत भारी नुकसान हो रहा है। इस दखल का सबसे बड़ा कारण कुछ भ्रम हैं जो हमारे दिलो-दिमाग में बस गए हैं, या बसा दिए गए हैं। ये भ्रम हैं: 1. अंग्रेजी ही ज्ञान-विज्ञान, तकनीक और उच्चतर ज्ञान की भाषा है; 2. अंग्रेजी ही अंतरराष्ट्रीय आदान-प्रदान और कारोबार की भाषा है, और; 3. भारतीय भाषाओं में उच्चतर ज्ञान की भाषाएं बनने का सामर्थ्य नहीं है। पर तथ्य बताते हैं कि ये धारणाएं भ्रम हैं और इनका कोई अकादमिक या व्यवहारिक प्रमाण नहीं है। एशिया के प्रथम पचास सर्वोत्तम विश्वविद्यालयों में एकाध ही ऐसा है जहां शिक्षा अंग्रेजी माध्यम में दी जाती है और भारत का एक भी विश्वविद्यालय इन पचास में नहीं आता।

जोगा सिंह के अनुसार यह सही है कि विदेशी भाषाओं का ज्ञान आवश्यक है। पर यहाँ भी तजुरबा और खोज यही साबित करते हैं कि मातृ-भाषा के माध्यम से शिक्षा हासिल करने वाला और विदेशी भाषा को एक विषय के रूप मे पढ़ने वाला विद्यार्थी विदेशी भाषा भी उस विद्यार्थी से बेहतर सीखता है जिसे आरम्भ से ही विदेशी भाषा माध्यम में शिक्षा दी जाती है। इस संदर्भ में यूनेस्को की 2008 में छपी पुस्तक (इम्प्रूवमेंट इन द क्वालिटी ऑफ़ मदर टंग बेस्ड लिटरेसी एंड लर्निंग, पन्ना 12) से यह टूक बहुत महत्वपूर्ण है: “हमारे रास्ते में बड़ी रुकावट भाषा एवं शिक्षा के बारे में कुछ अंधविश्वास हैं और लोगों की आँखें खोलने के लिए इन अंधविश्वासों का भंडा फोड़ना चाहिए।

जोगा सिंह को विज्ञान के अध्यापक वरुण कुमार ने एक संदेश में लिखा: मैं लुधियाना के एक सरकारी स्कूल में बच्चों को भौतिक विज्ञान पढ़ाता हूँ और अपने कोचिंग सेंटर में एमएस-सी गणित के बच्चों को पढ़ाता हूँ| मेरे पास जो बच्चे पढ़ रहे हैं वे सरकारी स्कूलों से ही आए होते हैं और अंग्रेजी कम आने की वजह से अपने आप को नालायक समझने लग जाते थे| मैंने आपका लेक्चर कुछ साल पहले पखोवाल गाँव के स्कूल पहुँच कर लगाया था और उस दिन से मेरा पढ़ाने का तरीका बदल गया। मैं बच्चों को बताता हूँ कि अंग्रेजी कोई विद्वान होने का अकेला साधन नहीं, बल्कि इस के बिना भी दुनिया के हर विज्ञान को सीखा जा सकता है। मेरे बच्चे पंजाबी में भौतिक विज्ञान के किसी भी विषय पर बहुत कुछ बता सकते हैं और मुझे ख़ुशी है कि मैं बढ़िया विज्ञानी और बढ़िया डाक्टर बना रहा हूँ। अंग्रेजी की दौड़ में लगे हुए इंसान नहीं होंगे मेरे विद्यार्थी। मातृभाषा में विज्ञान पढ़ाने से मैं खुद को असल सा महसूस करने लगा हूँ।’

मैं टोपोलॉजी और फील्ड थ्योरी भी पंजाबी में पढ़ाता हूँ और आप को जानकर ख़ुशी होगी कि मेरे ही एमएस-सी के विद्यार्थी पंजाब यूनिवर्सिटी के टॉपर रहे हैं, 2012, 2013, और 2014 में लगातार, क्योंकि टोपोलॉजी को पंजाबी में पढ़ने वाले बच्चे ही इसे समझ पाते हैं। जोगा जी, मैंने कॉन्वेंट के बच्चों को भी भौतिक विज्ञान पढ़ाया है। सच, ऐसा बुरा हाल मैंने कभी नहीं देखा बच्चों का। उन्हें भौतिक विज्ञान तो क्या आना, अंग्रेजी माध्यम वालों को अंग्रेजी भी हम से अच्छी नहीं आती, जबकि मैं खुद दसवीं तक पंजाबी माध्यम में ही पढ़ा था।’

इस विषय को आगे बढ़ाते हुए अगली कड़ी में मैं इस विषय पर रोशनी डालने का प्रयास करूँगा कि भारतीय भाषाओं में शिक्षण की व्यवस्था करने में दिक्कतें क्या हैं।

इस श्रृंखला का पहला आलेख पढ़ें यहाँ

क्या भारतीय भाषाओं में पढ़ाई की पहल को हिंदी थोपना माना जाए?

रॉबर्ट फिलिपसन के विचार सुनें यहाँ 



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