Sunday, November 21, 2021

किसानों की जीत, पर समस्या जहाँ की तहाँ है


मोदी सरकार ने कृषि-कानूनों की वापसी के लिए जो खास दिन और समय चुना है, उसके पीछे चुनावी-रणनीति नजर आती है। इसके अलावा यह मजबूरी भी है। पंजाब और उत्तर प्रदेश दोनों के चुनावों पर किसान-आंदोलन का असर है। इन हालात में बीजेपी का चुनाव के मैदान में उतरना जोखिम से भरा था। हमारी लोकतांत्रिक-व्यवस्था के लिए यह अच्छी खबर है। इसे किसी की जीत या हार मानने के बजाय यह मानना चाहिए कि सरकार को जनता के बड़े वर्ग की भावना को सुनना होता है। लोकतांत्रिक-राजनीति केवल चुनाव में बहुमत हासिल करने का काम ही नहीं है। बहरहाल कानूनों की वापसी से पार्टी पर राजनीतिक दबाव कम होगा। इससे यह भी साबित होता है कि बड़े बदलावों के उतने ही बड़े राजनीतिक जोखिम हैं। दूसरे यह भी कि तेज औद्योगीकरण के माहौल में भी हमारे देश में खेती बड़ी संख्या में लोगों की भावनाओं के साथ जुड़ी हुई है। 

तीसरी पराजय

पिछले सात साल में पार्टी की इस किस्म की यह तीसरी पराजय है। इसके पहले भूमि सुधार कानून में संशोधन और जजों की नियुक्ति से जुड़े न्यायिक नियुक्ति आयोग के मामले में सरकार को पीछे हटना पड़ा था। इतना ही नहीं सरकार ने नागरिकता कानून में संशोधन तो संसद से पास करा लिया, पर उससे जुड़े नियम अभी तक नहीं बना पाई है। उसे लेकर वैश्विक और आंतरिक राजनीतिक दबाव है। बहरहाल संयुक्त किसान मोर्चा ने कानूनों की वापसी को किसानों की ऐतिहासिक जीत बताया है। यह भी कहा है कि आंदोलन फ़सलों के लाभकारी दाम की वैधानिक गारंटी के लिए भी था, जिस पर अब भी कुछ फ़ैसला नहीं हुआ है। अब हम संसदीय प्रक्रियाओं के माध्यम से घोषणा के प्रभावी होने तक इंतज़ार करेंगे। इन कानूनों को वापस लेने की प्रक्रिया भी वही है, जो कानून बनाने की है। संसद को विधेयक पास करना होगा।

राजनीतिक निहितार्थ

राहुल गांधी, शरद पवार, संजय राउत, अखिलेश यादव, चरणजीत सिंह चन्नी से लेकर जयंत चौधरी तक सबने सरकार के इस फैसले का स्वागत किया है। वे इस बात को रेखांकित जरूर करेंगे कि भारतीय जनता पार्टी हार रही है और इसीलिए उसने कानून वापस लेने का फैसला किया है। उन्होंने इसे किसानों की जीत और सरकार की हार भी बताया है। सच यह है कि उनके हाथ से भी एक महत्वपूर्ण मसला निकल गया है, आंदोलन जारी रहना उनके हित में था। बहरहाल बीजेपी के कार्यकर्ताओं के सिर पर से एक बोझ उतर गया है।

तीनों कानून 17 सितंबर 2020 को संसद से पास हुए थे। उसके पहले अध्यादेश लाए गए थे। इससे लगता था कि सरकार जल्दबाजी में इन्हें लागू करना चाहती है। इसके बाद से लगातार किसान संगठनों की तरफ से विरोध कर इन कानूनों को वापस लेने की मांग की जा रही थी। किसान संगठनों का तर्क है कि इनके जरिए सरकार न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) को खत्म कर देगी और उन्हें उद्योगपतियों के रहमोकरम पर छोड़ देगी। सरकार का तर्क था कि इन कानूनों के जरिए कृषि क्षेत्र में नए निवेश के अवसर पैदा होंगे और किसानों की आमदनी बढ़ेगी।

बातचीत का रास्ता

ये कानून 5 जून 2020 से 12 जनवरी 2021 तक कुल 221 दिन प्रभावी रहे। 12 जनवरी को सुप्रीम कोर्ट ने इनके कार्यान्वयन पर रोक लगा दी थी और प्रयास किया कि सरकार और किसान संगठनों के बीच बातचीत से रास्ता निकले। अदालत ने एक समिति भी गठित की थी, जिसे संबद्ध पक्षों से बातचीत की जिम्मेदारी दी गई थी। किसान संगठनों ने इस समिति का बहिष्कार किया था। लगता नहीं कि इस मामले पर उच्चतम न्यायालय में आगे विचार होगा। अलबत्ता न्यायालय द्वारा नियुक्त कृषि समिति के सदस्य अनिल घनवट ने कृषि-कानूनों को निरस्त करने के फैसले को प्रतिगामी बताया है। घनवट किसानों के संगठन शेतकरी संगठना से भी जुड़े हैं। उन्होंने कहा कि प्रधानमंत्री द्वारा उठाया गया यह प्रतिगामी कदम है। उन्होंने किसानों की बेहतरी के बजाय राजनीति को चुना। हमारी समिति ने तीन कृषि-कानूनों पर कई सुधार और समाधान सौंपे थे, लेकिन गतिरोध को सुलझाने के लिए इसका इस्तेमाल करने के बजाय मोदी और भाजपा ने कदम पीछे खींच लिए। वे सिर्फ चुनाव जीतना चाहते हैं और कुछ नहीं।

कृषि-सुधार

इन कानूनों पर नई बहस के लिए अब पर्याप्त समय है। इस आंदोलन के कारण कृषि-सुधार का काम कुछ साल पीछे जरूर चला गया है, पर वह खत्म नहीं हुआ है। अब यही तीन या इनसे मिलते-जुलते कानून 2024 के चुनाव के बाद ही लाए जा सकेंगे, बशर्ते बीजेपी की सरकार जीतकर आए, पर देश में आर्थिक-सुधार का काम रोका नहीं जा सकेगा। अलबत्ता 2024 के चुनाव में इसे मुद्दा बनाने की मजबूरी हरेक दल पर होगी। खासतौर से कांग्रेस तथा अन्य विरोधी-दलों को बताना होगा कि औद्योगीकरण और खेती के बीच संतुलन वे किस प्रकार बैठाएंगे।

अंतर्मंथन और रणनीति

यह फैसला अचानक नहीं हुआ है। सरकार ने काफी समय पहले प्लान ‘बी’ तैयार कर लिया था। उसे समझ में आ गया था कि किसानों के साथ भावनात्मक दृष्टि से और उसके राजनीतिक-प्रभाव के नजरिए से भी कानून को वापस लेना चाहिए, पर उसके पहले इस आंदोलन के पीछे के अड़ियल रुख और उससे जुड़ी राजनीति का पर्दाफाश भी करना चाहिए। भारतीय जनता पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी ने इस साल फरवरी की अपनी बैठक में इन तीनों कानूनों को किसानों के हित में बताते हुए प्रस्ताव पास किया था। उस बैठक में प्रधानमंत्री भी उपस्थित थे। यानी कि उस समय तक पार्टी इसे राजनीतिक लड़ाई बनाने के पक्ष में थी।

अमरिंदर फैक्टर

गत 7 नवंबर को हुई कार्यकारिणी की बैठक में इस कानून को लेकर राजनीतिक प्रस्ताव में कोई बात ही नहीं की गई। उससे समझ में आ गया था कि पार्टी में इस विषय पर पुनर्विचार हुआ है। पत्रकार-वार्ता में जब वित्तमंत्री निर्मला सीतारमन से सवाल किया गया, तो उन्होंने कानूनों को लेकर कुछ नहीं कहा। केवल इतना कहा कि कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर किसानों से बातचीत के लिए हमेशा तैयार हैं। इसके अलावा पंजाब में कैप्टेन अमरिंदर सिंह कई बार कह चुके थे कि हमारा बीजेपी के साथ चुनाव-गठबंधन होगा। इसके साथ वे यह भी कह रहे थे कि उसके पहले मैं चाहता हूँ कि तीन कानूनों से जुड़ी किसान-समस्या का समाधान हो जाए। इस समाधान को लेकर उनका आत्मविश्वास बता रहा था कि उन्हें कोई जानकारी है। संभव यह भी है कि उनका सुझाव और दबाव भी हो।

क्षमा क्यों माँगी?

करीब एक साल तक शाब्दिक-युद्ध के बाद प्रधानमंत्री ने क्षमा माँगते हुए किसानों से अपनी बात कही। पिछले एक साल में किसानों, उनके पीछे की ताकतों और नीतियों को निशाना बनाया गया। राष्ट्रीय-सुरक्षा से जुड़े सवालों, खासतौर से खालिस्तानी ताकतों को निशाना बनाया गया। प्रधानमंत्री ने स्वयं उनके नेताओं को आंदोलनजीवीबताया। उसे भुलाते हुए उन्होंने यह पहल की, जो स्वागत-योग्य है। इसलिए नहीं कि ये कानून गलत थे, बल्कि इसलिए कि इस विषय पर व्यापक चर्चा होनी चाहिए। भविष्य में जब भी इस विषय पर विचार हो, तो अच्छी तरह इसके सभी पहलुओं को छुआ जाए। इससे यह भी साबित होता है कि बीजेपी मजबूत राजनीतिक दल है। उसे पीछे हटना भी आता है। पर ध्यान देने वाली बात है कि सरकार ने कानूनों को दोषपूर्ण नहीं माना है। चुनावों में जीत हासिल करना पार्टी की पहली प्राथमिकता है। प्रधानमंत्री ने देशवासियों से क्षमा माँगते हुए कहा कि हमारी तपस्या में कोई कमी रह गई होगी। हम कुछ किसान भाइयों को समझा नहीं पाए। आज गुरुनानक देव का पवित्र पर्व है। यह समय किसी को दोष देने का समय नहीं है।

हरिभूमि में प्रकाशित

 

 

 

 

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