Wednesday, April 14, 2021

अफगानिस्तान से पूरी तरह हटेगी अमेरिकी सेना


अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन सम्भवतः आज अफगानिस्तान से अमेरिकी सेना की वापसी की नई तारीख की घोषणा करेंगे। यह तारीख होगी 11 सितम्बर, 2021। बाइडेन की यह घोषणा शुद्ध रूप से राजनीतिक फैसला है। अमेरिकी सेना की सलाह है कि अफगानिस्तान को छोड़कर जाने का मतलब है, वहाँ फिर से अराजकता को खेलने का मौका देना। बहरहाल बाइडेन ने 1 मई की तारीख को बढ़ाकर 1 सितम्बर करके डोनाल्ड ट्रंप की नीति में बदलाव किया है और दूरगामी सहमति भी व्यक्त की है। भारत के नजरिए से इस फैसले के निहितार्थ पर भी हमें विचार करना चाहिए। 

11 सितम्बर की तारीख क्यों? क्योंकि यह तारीख अमेरिका पर हुए 11 सितम्बर 2001 के सबसे बड़े आतंकी हमले के बीसवें वर्ष की याद दिलाएगी। अफगानिस्तान में अमेरिकी कार्रवाई उस हमले के कारण हुई थी। बहरहाल 11 सितम्बर का मतलब है कि उसके पहले ही अमेरिका की सेना की वापसी शुरू हो जाएगी। यों भी वहाँ अब उसके 3500 और नेटो के 65000 सैनिक बचे हैं।  उनकी उपस्थिति भावनात्मक स्तर पर अमेरिकी हस्तक्षेप का माहौल बनाती है।  

यों अमेरिकी दूतावास की रक्षा के लिए अमेरिकी सेना की उपस्थिति किसी न किसी रूप में बनी रहेगी। पर उन सैनिकों की संख्या ज्यादा से ज्यादा कुछ सौ होगी। पर अमेरिका इस इलाके पर नजर रखने और इंटेलिजेंस के लिए कोई न कोई व्यवस्था करेगा। कैसे संचालित होगी वह व्यवस्था? उधर नेटो देशों की सेना को वापसी के लिए भी अमेरिका की लॉजिस्टिक सहायता की जरूरत होगी।

अब सवाल है कि अमेरिका की यह वापसी उसकी पराजय की प्रतीक होगी या विजय की? इस सवाल का जवाब आने वाले वर्षों में मिलेगा। पिछले कुछ दशकों में अमेरिका ने अफगानिस्तान, इराक और सीरिया में कार्रवाइयों पर 2.8 ट्रिलियन डॉलर की रकम खर्च की है। यानी भारत की जितनी बड़ी अर्थव्यवस्था है, उतनी धनराशि अमेरिका अपने वर्चस्व को बनाए रखने पर खर्च कर चुका है। तो क्या अब यह देश अपने वर्चस्व को बनाए रखने के रास्ते से हट जाएगा?

अमेरिका ने अफगानिस्तान में अक्तूबर 2001 में कार्रवाई शुरू की थी। इसमें अल कायदा के फौजी नेटवर्क को तोड़ने में उसे सफलता जरूर मिली है, पर उसके बाद एक नए राष्ट्र के रूप में उसके निर्माण में सफलता नहीं मिली है। तालिबान ने धमकी दी है कि अमेरिकी सेना यदि 1 मई तक देश नहीं छोड़ेगी, तो हम उसपर हमले करेंगे। यों भी हिंसा कम नहीं हुई है, जबकि तालिबान के साथ हिंसा पर रोक लगाने पर सहमति थी। अमेरिका क्या अफगानिस्तान को तालिबान के सहारे छोड़ देगा? क्या उसे भरोसा है कि अशरफ ग़नी की अफगानिस्तान सरकार अपने दम पर तालिबान को काबू में कर पाएगी? इसके विपरीत सवाल यह भी है कि क्या तालिबान के पास काबुल पर कब्जा करने का दमखम है और यदि उसने ताकत के जोर पर ऐसा करने की कोशिश की, तो अमेरिका देखता रहेगा? क्या अफगान सरकार और तालिबान मिलकर सरकार बना सकते हैं? क्या अफगानिस्तान में राजनीतिक समझौता भी होने वाला है? या वहाँ तालिबान का कट्टरपंथी इस्लाम वापस आने वाला है?

देखना यह भी है कि पाकिस्तान की भूमिका इस खेल में क्या होगी। रूस और चीन क्या करने वाले हैं? भारत की भूमिका क्या है? प्रश्न यह भी है कि क्या अमेरिका ने तालिबान से किसी प्रकार की गारंटी ली है? दोनों का समझौता गोपनीय है, उसकी शर्तें सबको नहीं मालूम। अमेरिकी रक्षा-विशेषज्ञों का कहना है कि शर्तें लगाए बगैर वापसी उचित नहीं। एक शर्त स्पष्ट है कि तालिबान किसी आतंकी समूह को अमेरिका या उसके सहयोगी देशों के खिलाफ गतिविधियाँ चलाने नहीं देगा।

सन 2011 में तत्कालीन राष्ट्रपति बराक ओबामा ने इराक से अमेरिकी सेना हटाने की घोषणा की थी। ऐसे में कुछ सौ अमेरिकी सैनिक बग़दाद स्थित दूतावास की रक्षा करने के लिए और कुछ दूसरे मिशनों के लिए वहाँ रह गए थे।  

अमेरिका ने इस हफ्ते तुर्की में एक सम्मेलन बुलाया था। तालिबान ने इस सम्मेलन में शामिल होने से इनकार कर दिया है। अब यह सम्मेलन 24 अप्रेल को शुरू होगा। उधर विदेशमंत्री एंटनी ब्लिंकेन और रक्षामंत्री लॉयड ऑस्टिन इन दिनों ब्रसेल्स में हैं, जहाँ वे नेटो सहयोगियों के साथ अमेरिकी योजना पर विमर्श कर रहे हैं।

 

 

 

1 comment:

  1. आश्चर्यजनक। ।।। इतना सब कैसे लिखती हैं आप!!!

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