अंततः
कोलकाता के पुलिस-कमिश्नर राजीव कुमार को सीबीआई के सामने पेश होना पड़ा। इसके
पहले इस परिघटना ने जो राजनीतिक शक्ल ली, वह परेशान करने वाली है। अभी तक हम
सीबीआई के राजनीतिक इस्तेमाल की बातें करते रहे हैं, पर इस मामले में राज्य पुलिस
के राजनीतिक इस्तेमाल का उदाहरण भी है। गत 3 फरवरी को सीबीआई ने राजीव कुमार के घर
जाने का फैसला अचानक नहीं किया। उन्हें पिछले डेढ़ साल में चार समन भेजे गए थे। चौथा
समन दिसम्बर 2018 में गया था। राज्य पुलिस और सीबीआई के बीच पत्राचार हुआ था।
सीबीआई
के फैसले पर भी सवाल हैं। जब सीबीआई के नए डायरेक्टर आने वाले थे, तब अंतरिम
डायरेक्टर के अधीन इतना बड़ा फैसला क्यों हुआ? पर सीबीआई पूछताछ
करने गई थी, गिरफ्तार करने नहीं। तब मीडिया में ऐसी खबरें किसने फैलाईं कि उन्हें
गिरफ्तार किया जाने वाला है? फिर राज्य
पुलिस के कुछ अफसरों का मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के साथ धरने पर बैठने को क्या
कहेंगे? यह बात अपने
आप में आश्चर्यजनक है कि किसी पुलिस-प्रमुख से पूछताछ के लिए सीबीआई के सामने समन
जारी करने की नौबत आ जाए।
विस्मय है कि आर्थिक अपराध को विरोधी दल राजनीतिक चश्मे
से देख रहे हैं। इस बात से आँखें मूँद रहे हैं कि पुलिस को राज्य सरकार के एजेंट
के रूप में तब्दील कर दिया गया है। यह सिर्फ बंगाल में नहीं हुआ है, हर राज्य में
ऐसा है। सुप्रीम कोर्ट ने सन 2006 में पुलिस सुधार के निर्देश जारी किए थे, उनपर
आजतक अमल नहीं हुआ है। सन 2013 में इशरत जहाँ के मामले में सीबीआई और आईबी के बीच
जबर्दस्त मतभेद पैदा हो गया था। केन्द्र की यूपीए सरकार ने गुजरात के बीजेपी-नेताओं
को घेरने के लिए सीबीआई का इस्तेमाल किया। आज हमें उसका दूसरा रूप देखने को मिल रहा है।
इस घटनाक्रम के साथ एक बड़ा सवाल बंगाल की मुख्यमंत्री
ममता बनर्जी की राजनीति के साथ जुड़ा है। उनके शब्दकोश में मर्यादा शब्द है ही
नहीं। गत 4 फरवरी को जब वे कोलकाता में धरने पर बैठी थीं, तब डीजीपी वीरेंद्र कुमार सहित पाँच
अधिकारी धरना स्थल पर सादे कपड़ों में मौजूद थे। केन्द्र सरकार ने इशारा किया है
कि गृह मंत्रालय इन पांच अधिकारियों से उनके पदक वापस ले सकता है जो उनकी उत्कृष्ट
सेवा के लिए दिए गए थे। उनकी पदोन्नति भी रुक सकती है।
ऐसा
होगा या नहीं, अभी यह बात अटकलों के रूप में थी कि ममता बनर्जी ने कहा कि उनके पदक
वापस लिए गए, तो हम उन्हें राज्य के सर्वोच्च सम्मान बंग विभूषण से नवाज़ेंगे। यह
शुद्ध राजनीति है, पर मामला भारतीय पुलिस सेवा के अफसरों का है, बंगाल के राजनीतिक
कार्यकर्ताओं का नहीं। उनके खिलाफ यदि गलत तरीके से कोई कार्रवाई होगी, तो निराकरण
के न्यायिक मंच हैं। राजनीतिक मंचों से इन बातों का फैसला होगा? ममता बनर्जी ने कहा है, 'राजीव कुमार ने कभी नहीं कहा कि वह
जांच के लिए उपलब्ध नहीं हैं।' राजीव कुमार की जगह सफाई वे क्यों दे रहीं हैं?
ममता बनर्जी काफी आक्रामक हैं। इसकी एक बड़ी वजह है कि
बीजेपी ने उनके गढ़ पर हमला बोल रखा है। बंगाल में उन्होंने सत्ता तब हासिल की थी,
जब राज्य में सीपीएम का बोलबाला था। पर अब लगता है कि वहाँ सीपीएम तीसरे स्थान पर
चली गई है। सीपीएम के हताश कार्यकर्ताओं को अब बीजेपी का सहारा मिल रहा है। वे
तेजी से बीजेपी में शामिल हो रहे हैं। यह बात ममता बनर्जी को परेशान कर रही है। जबतक केन्द्र में बीजेपी की सरकार नहीं
बनी थी ममता बनर्जी की राजनीति मुख्यतः वाममोर्चा विरोधी थी। सन 2014 में मोदी
सरकार के आने के बाद से ममता-राजनीति की दिशा साम्प्रदायिकता-विरोधी हो गई है।
नवम्बर
2016 में जब कांग्रेस पार्टी नोटबंदी के फौरन बाद सन्नाटे में आ गई थी ममता बनर्जी
ने विपक्ष का मोर्चा सँभाला था। उसके बाद से वे देश में बीजेपी-विरोधी राष्ट्रीय
गठबंधन बनाने के काम में जुट गईं हैं। उनकी राष्ट्रीय महत्वाकांक्षाएं भी सामने आ
रही हैं। हालांकि वे कांग्रेस से निकल कर आईं हैं, पर अब उसके साथ उनके रिश्ते
आग-पानी के हैं। कभी वे सैद्धांतिक रूप से कांग्रेस के साथ नजर आती हैं और फिर कभी
उसकी विरोधी।
ममता
बनर्जी की राजनीतिक-दृष्टि बहुत स्पष्ट नहीं है। वे एनडीए और यूपीए दोनों सरकारों
में रह चुकी हैं और दोनों से झगड़ा करके बाहर हुईं हैं। सन 1991 में वे पहली बार
मानव संसाधन विकास, युवा और खेल तथा महिला और बाल कल्याण
राज्य मंत्री बनाई गईं। खेल नीतियों को लेकर मंत्री रहते हुए भी उन्होंने कोलकाता
की एक रैली में सरकार पर तमाम लानतें भेजीं और इस्तीफे की घोषणा कर दी। इसके बाद
उन्होंने आरोप लगाना शुरू कर दिया कि कांग्रेस पार्टी सीपीएम की चेरी है। 1996 में
उन्होंने पेट्रोलियम की कीमतें बढ़ाने के खिलाफ धरना दे दिया। और 1997 में पार्टी
छोड़कर अखिल भारतीय तृणमूल कांग्रेस नाम से नई पार्टी बना ली।
बंगाल
में वाममोर्चे को हरा पाना कांग्रेस के बस में नहीं था। यह ममता बनर्जी का अदम्य
संघर्ष था जिसने वाममोर्चा का सूपड़ा साफ कर दिया। पर उनकी दृष्टि में राजनीति
माने क्या सिर्फ इतना ही है? सन
1999 में वे भाजपा-नीत एनडीए की सरकार में शामिल हो गईं। सन 2000 में पेट्रोलियम
कीमतों में वृद्धि के विरोध में उन्होंने और उनके पार्टी सहयोगी अजित कुमार पांजा
ने कैबिनेट से इस्तीफा दे दिया और बाद में इस्तीफा वापस ले लिया। सन 2001 में
तहलका मामला सामने आने पर फिर वे एनडीए छोड़कर बाहर चली गईं। सन 2001 में उन्होंने
बंगाल में कांग्रेस के साथ मिलकर चुनाव लड़ा कि शायद वाम मोर्चा परास्त हो जाए, पर ऐसा हुआ नहीं। 2004 के चुनाव के पहले वे फिर
एनडीए में वापस आ गईं। मंत्री बनीं पर उसके बाद लोकसभा चुनाव में एनडीए की पराजय
हो गई।
वे
विरोध की राजनीति करती हैं, पर अपने विरोध को सहन नहीं करतीं। टीवी शो हो या
सार्वजनिक सभा अपने विरोध पर वे भड़क जाती हैं। एक नहीं अनेक मामले ऐसे हैं, जिनसे
इस बात की ताकीद होती है। बेशक उन्होंने बंगाल में अपना करिश्मा कायम किया है, पर
अब वे अलोकप्रियता के घेरे में भी आ रहीं हैं। और यह बात उनके व्यवहार में झलक रही
है।
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (12-02-2019) को "फीका पड़ा बसन्त" (चर्चा अंक-3245) पर भी होगी।
ReplyDelete--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'