Sunday, October 7, 2018

विदेश नीति में बड़े फैसलों की घड़ी

कुछ दिन पहले तक लगता था कि भारत की विदेश नीति की नैया रूस और अमेरिका के बीच संतुलन बैठाने के फेर में डगमग हो रही है। अब रूस के साथ एस-400 मिसाइलों, एटमी बिजलीघरों समेत आठ समझौते होने से लगता है कि हम अमेरिका से दूर जा रहे हैं। ऐसे में अगली गणतंत्र दिवस परेड पर अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप मुख्य अतिथि बनकर आ जाएं तो क्या कहेंगे? भारत की दोनों, बल्कि इसमें चीन को भी शामिल कर लें, तो तीनों के साथ क्या दोस्ती सम्भव है?

क्यों नहीं सम्भव है? हमारी विदेश नीति किसी एक देश के हाथों गिरवी नहीं है। स्वायत्तता का तकाजा है कि हम अपने हितों के लिहाज से रास्ते खोजें। पर स्वायत्तता के लिए सामर्थ्य भी चाहिए। अमेरिका से दोस्ती कौन नहीं चाहता? इसकी वजह है उसकी ताकत। ऐसे ही मौकों पर देश की सामर्थ्य का पता लगता है और इसका प्रदर्शन किया जाना चाहिए।
कारोबार के लिए ही सही, रूस और अमेरिका हमारी तरफ देख रहे हैं। और चीन से भी रिश्ते बेहतरी की ओर हैं, तो इसकी वजह आर्थिक है। हथियारों के लिए हम अब रूस पर भी निर्भर नहीं हैं। रूसी मिसाइलों, फ्रांसीसी लड़ाकू विमानों, अमेरिकी ड्रोनों और इसरायली रेडारों के सहारे चलने वाली भारतीय रक्षा-नीति अपने आप में अनोखी है। भारत का जापान से भी समझौता हुआ, तो हमारे पास जापानी यूएस-2 विमान भी होंगे, जो जमीन और पानी दोनों पर उतर सकते हैं और उड़ान भर सकते हैं। भारत पहला ऐसा देश होगा, जो जापानी रक्षा उपकरण खरीदेगा।

फिलहाल सवाल है कि रूसी हथियारों की खरीद पर अमेरिकी प्रतिक्रिया क्या है? जाहिर है कि वह खुश नहीं होगा, पर उसे वास्तविकता को समझना होगा। इस समझौते के ठीक पहले भी अमेरिका ने पाबंदी की चेतावनी दी थी। इसके पहले इसी किस्म के समझौते के कारण वह चीन पर पाबंदिया थोप चुका है। पर यह भारत का मामला है। समझौते के बाद अमेरिकी दूतावास ने कहा है कि हम अपने सहयोगी देशों की रक्षा तैयारी को कमजोर करना भी नहीं चाहते।

पिछले महीने भारत और अमेरिका के बीच पहली बार जब ‘टू प्लस टू’ वार्ता हुई थी, तब यह सवाल सबसे ऊपर था। विदेशमंत्री सुषमा स्वराज और रक्षामंत्री निर्मला सीतारामन की मुलाकात अमेरिकी विदेशमंत्री माइक पोम्पियो और रक्षा मंत्री जेम्स मैटिस से हुई तो अमेरिका ने भारत से कहा कि हम इस बात को समझते हैं कि भारत किस हद तक रूसी शस्त्र प्रणालियों पर आश्रित है, पर जब एस-400 जैसी बड़ी शस्त्र प्रणाली आप खरीदेंगे तब अमेरिका प्रभावित होता है।

एयर-डिफेंस की इस प्रणाली को भारत पाँच अरब डॉलर (करीब 39.000 करोड़ रुपये) की लागत से खरीद रहा है। अमेरिका को रूसी हथियारों के अलावा ईरान से खनिज तेल खरीदने पर भी आपत्ति है। पिछले महीने अमेरिकी विदेशमंत्री पोम्पियो ने अमेरिकी मीडिया के साथ बातचीत में कहा था, ‘हमने भारतीयों से कहा है कि 4 नवम्बर को ईरानी कच्चे तेल के बाबत पाबंदियाँ लागू हो जाएंगी। हमसे जहाँ-जहाँ सम्भव होगा, छूट देने पर विचार करेंगे और...हम भारत के साथ भी इस सिलसिले में काम करेंगे।’ यानी कि धमकी और छूट की सम्भावनाएं दोनों अपनी जगह कायम हैं।

भारत ने कई बार अमेरिका को भरोसा दिलाया है कि रूसी मिसाइल प्रणाली की खरीद से अमेरिका के सामरिक हित किसी भी प्रकार से प्रभावित नहीं होंगे। पिछले साल अमेरिकी संसद ने ‘काउंटरिंग अमेरिकाज़ एडवर्सरीज़ थ्रू सैंक्शंस एक्ट (काट्सा)’ एक्ट पास किया। मूलतः यह कानून रूस, ईरान और उत्तर कोरिया के खिलाफ है। इसकी धारा 231 के तहत अमेरिकी राष्ट्रपति के पास की किसी भी देश पर 12 किस्म की पाबंदियाँ लगाने का अधिकार है।

भारत के पास ज्यादातर रक्षा तकनीक रूसी है। उसमें एकदम बदलाव सम्भव नहीं है। भारत का सबसे बड़ा शस्त्र आयात रूस से होता है। पिछले कुछ वर्षों में अमेरिका हमारे दूसरे सबसे बड़े शस्त्र सप्लायर के रूप में उभरा है। भारतीय मीडिया के लिए पिछले महीने जारी नोट में पोम्पियो ने कहा था, ‘हमारी कोशिश है कि भारत जैसे महान सामरिक मित्र पर पाबंदियाँ नहीं लगाई जाएं। पाबंदियों का उद्देश्य उस देश पर असर डालना है, जो इसके केन्द्र में है। यानी कि रूस। इसलिए हम आने वाले समय में पाबंदियों से छूट के तरीकों पर काम करेंगे।’

अमेरिका ने भारत की इस बात को स्वीकार किया है कि ऊर्जा आपूर्ति की व्यवस्था रातों-रात बदली नहीं जा सकती। भारतीय प्रतिनिधि काफी आश्वस्त नजर आए। उनकी बात से लगता है कि अफगानिस्तान के सामरिक महत्व को देखते हुए ईरान पर अमेरिकी पाबंदियों के बावजूद चाबहार बंदरगाह पर समझौता हो जाएगा। चूंकि काट्सा कानून में अपने मित्र देशों को छूट देने की व्यवस्था भी है, इसलिए हमें उम्मीद है कि अमेरिका इस मामले में छूट देगा।

अमेरिका की भारत में दिलचस्पी दो कारणों से है। एक, आर्थिक और दूसरे सामरिक। भारत नई उभरती अर्थ-व्यवस्था है। हमारे साथ उनके आर्थिक हित जुड़े हैं। इसके अलावा हिंद-प्रशांत भेत्र में चीन के बरक्स अमेरिका ने भारत को अपना महत्वपूर्ण सहयोगी बनाया है। यह दूरगामी नीति है। भारत-अमेरिका-जापान और ऑस्ट्रलिया का चतुष्कोणीय गठबंधन उभर कर आ रहा है। पिछले कुछ वर्षों में भारत और अमेरिका के बीच करीब 15 अरब डॉलर के समझौते हुए हैं, जबकि उसके पहले यह कारोबार शून्य था।

भारत ने हाल में सी-17 ग्लोबमास्टर और सी-130जे परिवहन विमान अमेरिका से खरीदे हैं। इनके अलावा पी-8(आई) समुद्री टोही विमान, एम-777 विट्जर तोपें, हारपून मिसाइल, अपाचे और चिनूक हेलिकॉप्टर खरीदे हैं। उम्मीद है कि अमेरिकी सी गार्डियन ड्रोन भी भारत खरीदेगा। अमेरिका की दो बड़ी कम्पनियाँ बोइंग और लॉकहीड मार्टिन भारत में विमान निर्माण में दिलचस्पी दिखा रहीं हैं। भारतीय नौसेना के अगले विमानवाहक पोत में अमेरिकी तकनीक का इस्तेमाल करने पर बात चल रही है।

पिछले महीने दोनों के बीच सैनिक समन्वय और सहयोग के लिहाज से बेहद महत्वपूर्ण ‘कम्युनिकेशंस, कंपैटिबिलिटी, सिक्योरिटी एग्रीमेंट (कोमकासा)’ हो जाने के बाद पहला असमंजस दूर हुआ था। यह समझौता 10 साल के लिए हुआ है। दोनों देशों की नौसेनाओं के बीच भी सम्पर्क का रास्ता खुला है। अमेरिकी नौसेना की सेंट्रल कमांड और भारतीय नौसेना के बीच सम्पर्क कायम हो जाएगा। भारत अपना एक अटैशे (प्रतिनिधि) बहरीन में नियुक्त करेगा, जो अमेरिकी सेना के साथ समन्वय बनाएगा। इतने बड़े स्तर पर हो रहे सहयोग में एक झटके से विराम भी नहीं लग सकता।
हरिभूमि में प्रकाशित

1 comment:

  1. आपको सूचित किया जा रहा है कि आपकी इस प्रविष्टि की चर्चा कल सोमवार (08-10-2018) को "कुछ तो बात जरूरी होगी" (चर्चा अंक-3118) पर भी होगी!
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    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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