Sunday, September 29, 2013

सुरक्षा तंत्र के छिद्रों को तो बंद कीजिए

इधर जनरल वीके सिंह और सरकार के बीच नोकझोंक की खबरें गर्म थीं कि जम्मू में फौजी कैम्प पर आतंकी हमले की खबरें सुनाई पड़ीं। इसके दो रोज पहले पेशावर और केन्या के एक मॉल से खूंरेजी की खबरें सुनाई पड़ीं। इन सारी बातों का रिश्ता नहीं है, पर ध्यान से देखें तो है। इन सबके केन्द्र में पाकिस्तान का जेहादी ताना-बाना और हमारी सुरक्षा व्यवस्था के सवाल हैं। इसमें दो राय नहीं कि जनरल वीके सिंह और सरकार के बीच तनातनी किसी बड़े सैद्धांतिक कारण से नहीं थी। यह शुद्ध रूप से सेना के भीतर की गुटबाजी की देन थी। इस मामले को ज्यादा बढ़ावा मिलने के पहले ही खत्म कराने की जिम्मेदारी राजनीतिक नेतृत्व की थी। ऐसा हो नहीं पाया। धीरे-धीरे विवाद ऐसी शक्ल लेता जा रहा है जो देश के हित में नहीं है। जनरल सिंह के इस वक्तव्य को लेकर काफी चर्चा है कि सेना कश्मीर के राजनीतिक नेताओं को देश की मुख्यधारा से जोड़ने के लिए धन का इस्तेमाल करती थी। इस वक्तव्य पर गौर करें तो इसमें कोई ऐसी बात नहीं थी जो हमारे लिए असमंजस पैदा करे।

कश्मीर के लोगों को खेलकूद, सांस्कृतिक कार्यों, पर्यटन वगैरह के मार्फत जोड़े रखना राष्ट्रीय सुरक्षा के काम ही हैं। पर उन्होंने यह बात कही भी तो क्यों? क्योंकि एक अखबार ने खबर छापी कि जनरल सिंह के कार्यकाल में बनाई गई टेक्निकल सर्विस डिवीजन (टीएसडी) के गठन में अनियमितताएं हुईं और उसके खुफिया उपकरणों के मार्फत रक्षामंत्री पर नजर रखी गई। इससे ज्यादा महत्वपूर्ण बात यह थी कि उस दौरान सेना ने जम्मू-कश्मीर सरकार को अस्थिर करने की कोशिश की। वास्तव में ये आरोप गम्भीर हैं, पर इनके पीछे की असलियत क्या है? और असलियत कुछ है भी तो उसपर आगे जाँच कराने के बजाय खबर को लीक कराने की जरूरत क्या थी? बताते हैं कि विवाद के पीछे एक ऑफ एयर सर्विलांस उपकरण है, जिसे नवम्बर 2010 में सिंगापुर से खरीदा गया और जो मार्च 2012 में नष्ट कर दिया गया। यह उपकरण मोबाइल टेलीफोनों से होने वाली बातचीत को सुनने और उनका विश्लेषण करने का काम करता था। इसका इस्तेमाल खासतौर से जम्मू-कश्मीर में आतंकी कार्रवाइयों पर नजर रखने के लिए किया जाता था।

जनरल सिंह का कहना है कि यह डिवीजन खासतौर से मुम्बई में 26 नवम्बर 2008 को हुए हमले के बाद लेने का विचार बना था। हालांकि इसे बाद में नष्ट करता कर दिया गया, पर यदि यह काम करता रहता तो कश्मीर में हुई अनेक घटनाएं नहीं होतीं। पूरे विवाद में सबसे चिंताजनक पहलू यही है। अब जब साम्बा के फौजी कैम्प पर पाकिस्तानी आतंकियों ने हमला बोला है तो यह जानने की इच्छा होती है कि क्या कहीं हम राजनीतिक कारणों से सुरक्षा के सवालों की अनदेखी तो नहीं कर रहे हैं। टीएसडी मामले की जाँच एक फौजी अधिकारी ने ही की थी। थोड़ी देर के लिए मान लेते हैं कि इस जाँच के पीछे व्यक्तिगत प्रतिद्वंदिता नहीं थी। पर मार्च में दी गई रपट छह महीने बाद किसी अखबार में प्रकट कैसे हो गई? यह तो गोपनीय रपट होगी।

लगभग ऐसा ही इशरत जहाँ मामले में हुआ। अमेरिका में पकड़े गए डेविड हैडली से की गई एनआईए की पूछताछ की रपट में बदलाव हुआ या नहीं, पर लगता है कि इस मामले में अंदर कहीं न कहीं अफसरों की व्यक्तिगत रंजिशें भी हैं, जो राजनीतिक कारणों से किसी दूसरी शक्ल में सामने आ रहीं हैं। ऐसा क्यों हो रहा है? महत्व संस्थाओं का है, व्यक्तियों और राजनीति का नहीं। हमारी सेना पूरी तरह अ-राजनीतिक है और इसे विवादों से बाहर रखने की परम्परा है। फिर भी यह विवाद के घेरे में आ रही है तो जिम्मेदार कौन है? क्या हम सीबीआई या किसी दूसरी जाँच एजेंसी की मदद से ऐसे मामलों की जाँच करा सकते हैं? हाल में इशरत जहाँ मामले को लेकर खुफिया एजेंसियों और जाँच एजेंसियों की टकराहट सामने आई है, जिसके दुष्परिणाम सामने हैं। यह सब क्या व्यवस्था को साफ करने में मदद करेगा या हालात और बिगड़ेंगे?

सन 1993 की बात याद आती है जब मानवाधिकार आयोग में भारत विरोधी प्रस्ताव लाया गया था। उस प्रस्ताव पर चर्चा के लिए भारतीय प्रतिनिधिमंडल का नेतृत्व करने के लिए प्रधानमंत्री पीवी नरसिंह राव ने अटल बिहारी वाजपेयी को जिनेवा भेजा था। क्या आज हम राष्ट्रीय हित के सवाल पर सत्तापक्ष और विपक्ष के बीच एकता देख पा रहे हैं? उन दिनों जब पाकिस्तानी प्रधानमंत्री बेनज़ीर भुट्टो बार-बार कह रहीं थीं कि कश्मीर का मसला विभाजन के बाद बचा अधूरा काम है। इस पर भारत के प्रधानमंत्री पीवी नरसिंहराव ने कहा कि पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर की भारत में वापसी ही अधूरा रह गया काम  है। वह समय था जब कश्मीर में हिंसा चरमोत्कर्ष पर थी। बढ़ती हुई आतंकवादी हिंसा के मद्देनज़र भारतीय संसद के दोनों सदनों ने 22 फरवरी 1994 को सर्वसम्मति से प्रस्ताव पारित किया और इस बात पर जोर दिया कि सम्पूर्ण जम्मू-कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है। यह संकल्प राष्ट्रीय सवालों पर हमारी एकता का प्रतीक है। विदेश और रक्षा नीति को हमारे यहाँ राजनीतिक विवाद का विषय नहीं बनाया जाता था। इधर विपक्ष ने पाकिस्तान और चीन के साथ रिश्तों को लेकर सरकार की कई बार फजीहत की है। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ की न्यूयॉर्क में मुलाकात को लेकर भी इसी प्रकार के विवाद उठे हैं। बेहतर हो कि हम संस्थाओं का सम्मान करें। वह सरकार हो या जनरल।


भारत की सुरक्षा केवल चीन और पाकिस्तान की सीमा तक सीमित नहीं है। पाकिस्तान समर्थित आतंकवाद की जड़ें देश के अंदरूनी भागों तक फैली हैं। पूर्वोत्तर के राज्यों नगा, मिजो, असम और त्रिपुरा के उग्रवादियों के बीच पाकिस्तानी सक्रिय हैं। नक्सल प्रभावित इलाकों में भी उनका प्रभाव है। पंजाब के खालिस्तानी आंदोलन के पीछे पाकिस्तानी हाथ कभी छिपा नहीं और आज भी जाहिर है। हमें याद नहीं है कि मिजो नेशनल फ्रंट (एम.एन.एफ.) का प्रमुख लालडेंगा 1971 में पूर्वी पाकिस्तान में रह रहा था। 1971 की लड़ाई के दौरान उसे पाकिस्तानियों ने बर्मा भेजा और वहाँ से आई.एस.आई. के अधिकारी उसे इस्लामाबाद ले गए जहां वह 1975 तक रहा। 1975 में लालडेंगा का आई.एस.आई. के साथ मोहभंग हुआ। वह फिर अफगानिस्तान भाग गया। वहां से वह काबुल होता हुआ जिनेवा गया। स्विट्जरलैंड में उसने भारतीय दूतावास से सम्पर्क किया और भारत सरकार के साथ समझौते की इच्छा जताई। जिसके चलते अंत में मिजोरम में शांतिपूर्ण राजनैतिक स्थिरता कायम हो गई। बातों के तमाम पहलू गोपनीय होते हैं। सारी दुनिया की सरकारें इस किस्म के खुफिया काम करती हैं। हमारे यहाँ इन दिनों खुफिया बातों पर खुलकर राजनीति हो रही है। यह उचित नहीं। अब्दुल करीम टुंडा, यासीन भटकल से लेकर दाऊद इब्राहीम तक हमारी व्यवस्था के छिद्रों से निकले हैं। कृपया इन छिद्रों को रोकें। 
हरिभूमि में प्रकाशित

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