रैनबैक्सी की दवाओं
पर अमेरिका में पाबंदी लगने से भारतीय शेयर बाजार में निवेशकों के 5,855 करोड़ रुपए
एक दिन में ही डूब गए। दुनिया में बिकने वाली तकरीबन चालीस फीसदी जेनरिक दवाएं भारत में बनती
हैं। क्या इस फैसले का असर इस पूरे कारोबार पर पड़ेगा? भारत में डॉ रेड्डीज लैबोरेटरीज़, ल्यूपिन लिमिटेड, सन फार्मा
और सिपला वगैरह के कारोबार पर कोई विपरीत प्रभाव नहीं पड़ा है। अमेरिकी एफडीए सभी कंपनियों
का निरीक्षण नहीं करता, पर रैनबैक्सी के साथ हालात बिगड़ते चले गए। सही है कि अमेरिकी
मानक कड़े होते हैं, पर रैनबैक्सी के मामले में शिकायतें केवल कड़ाई की नहीं थीं। क्या
हम वास्तव में दवाओं के ठीक से क्लीनिकल ट्रायल भी नहीं कर सकते? सवाल यह भी है कि हमारे देश के औषधि नियामक किस बात का इंतजार
कर रहे हैं? क्या उन्हें अपने देश की कम्पनी
से जुड़े मामले की जाँच नहीं करनी चाहिए? क्या कारण है कि हमारे
देश में ऐसी कंपनियाँ नहीं है जो नए अनुसंधान के आधार पर दवाएं बनाने की कोशिश करें? क्या हम केवल नकल कर सकते हैं वह भी टेढ़े तरीके से? इस मामले में अमेरिका का विसिल ब्लोवर कानून भी
काम में आया है। कंपनी के एक पूर्व अधिकारी की शिकायतें भी इसमें शामिल हैं। इसलिए
इस सवाल पर भी विचार करने की जरूरत है कि हम विसिल ब्लोवर कानून को पास करने देरी क्यों
कर रहे हैं? और यह भी कि इस कानून को
निजी कंपनियों पर भी क्यों नहीं लागू करना चाहिए?
रैनबैक्सी लैबोरेटरीज़
को अमेरिका के खाद्य एवं औषधि प्रशासन (यूएसएफडीए) ने पहली बार सन 2006 में चेतावनी
दी। इसके बाद सन 2008 में अमेरिका के न्याय विभाग ने कंपनी के खिलाफ कानूनी कार्रवाई
भी शुरू की थी। कंपनी की पाउंटा साहब और देवास इकाई से अमेरिका को दवाओं का निर्यात
सन 2008 से बंद है। अब एफडीए ने मोहाली में नवनिर्मित यूनिट तक कंसेंट डिक्री का विस्तार
कर दिया है। पिछले हफ्ते शुक्रवार को मोहाली इकाई को आयात अलर्ट प्राप्त हुआ था। कंसेंट
डिक्री का मतलब है मोहाली इकाई से अमेरिकी बाजार में दवाओं का निर्यात तब तक नहीं होगा
जब तक कि अमेरिकी एफडीए संतुष्ट न हो। अनुमति देने से पहले यूएसएफडीए फिर इस इकाई की
जाँच करेगा। इस काम में दो-तीन साल लगेंगे। कंपनी को थर्ड पार्टी कंसल्टेंट की सेवाएं
लेनी होंगी जो जांच करके प्रमाण पत्र देगा कि औषधि उत्पादन के नियमों के पालन के लिहाज
से यहाँ के तौर-तरीके, प्रक्रिया और नियंत्रण-प्रणाली ठीक-ठाक है।
सवाल है कि क्या रैनबैक्सी
की कार्य-प्रणाली हो पाएगी? क्या दोष इसके परम्परागत
भारतीय प्रबंधन का है? सन 2008 के बाद से इस पर कंपनी
जापानी कंपनी दाइची सैंक्यो का नियंत्रण है। उसके पहले यह भारतीय स्वामित्व में थी।
इसकी देवास और पाउंटा साहिब इकाइयों पर जब रोक लगी थी तब माना जा रहा था कि कंपनी के
पुराने प्रबंधन के कारण ऐसा हुआ है। पर मोहाली का प्रकरण नया है। यूएस एफडीए के अधिकारी
सितंबर और दिसंबर 2012 में यहाँ जाँच के लिए आए थे और उन्होंने उत्पादन
के कुछ नियमों का उल्लंघन पाया था। कंपनी पर दवा बनाने की प्रक्रिया में ढील के ही
नहीं, इससे ज्यादा गंभीर आरोप हैं। कंपनी ने इस साल मई में इन गंभीर आपराधिक आरोपों
को स्वीकार करके 50 करोड़ डॉलर का जुर्माना भी भरा था। कंपनी पर औषधियों के क्लीनिकल
ट्रायल के फर्जी आँकड़े देने और मानकों का उल्लंघन करने के आरोप हैं। अनेक आरोपों की
पुष्टि उसके ही एक अधिकारी दिनेश ठाकुर की भंडाफोड़ शिकायत (विसिल ब्लोवर कंप्लेंट)
से हुई है जो उन्होंने सन 2007 में की थी। भारतवंशी दिनेश ठाकुर ने अमेरिका में शिक्षा
ग्रहण की थी और वे अमेरिका में जन्मे होने के कारण वहाँ के सहज और सजग नागरिक हैं।
सन 2002 वे एक बड़ी कंपनी को छोड़कर इस कंपनी में आए थे। भारत में उन्हें काम-काज के
तरीके में खामियाँ दिखाई पड़ीं। बाद में उन्हें रैनबैक्सी लैबोरेटरीज़ से इस्तीफा देना
पड़ा। हालांकि उनकी विसिल ब्लोवर शिकायत ने इस मामले को उछालने में खासी भूमिका अदा
की है, पर इसके पहले ही कंपनी के कामकाज को लेकर शिकायतें थीं। दिनेश ठाकुर को इस भंडाफोड़
के कारण अमेरिका के संघीय विसिल ब्लोवर कानून के तहत 48 लाख डॉलर से ज्यादा की राशि
मिलेगी, जो उस जुर्माने में से काटी जाएगी, जो कंपनी पर लगाया गया है।
नब्बे के दशक के बाद
से बौद्धिक सम्पदा से जुड़े कारोबार का दुनिया भर में नियमन होने लगा है। पेटेंट की
एक अवधि होती है। दुनिया में औषधि का काफी बड़ा कारोबार जेनरिक दवाओं का है। यानी उन
दवाओं का जो पेटेंट के दायरे से बाहर आ चुकी हैं। इन्हें बनाने के लिए आविष्कार करने
वाली कंपनी से लाइसेंस नहीं लेना पड़ता। दुनिया में तकरीबन 242 अरब डॉलर की जेनरिक
दवाएं बिकती हैं। ये सस्ती होती हैं, इसलिए इनकी माँग अच्छी होती है। गरीब देशों का
यही सहारा है। भारत की ज्यादातर दवा कंपनियाँ जेनरिक दवाओं की माहिर हैं। रैनबैक्सी
अमेरिका में जेनरिक दवाओं को तैयार करने और बेचने वाली पहली विदेशी कंपनी थी। देखते
ही देखते यह वहाँ जेनरिक दवा बनाने वाली छठी सबसे बड़ी कंपनी बन गई। पिछले साल इसने
अमेरिका में एक अरब डॉलर और सारी दुनिया में 2.3 अरब डॉलर की जेनरिक दवाएं बेचीं। इसकी
दवाएं दुनिया के 125 देशों में निर्यात की जाती हैं। 43 देशों में इसके प्रतिनिधि सक्रिय
हैं और 8 देशों में यह दवा का उत्पादन करती है। अमेरिका में ओह्म लैबोरेटरीज़ नाम से
इसकी अपनी यूनिट है। भारत में इसकी आठ यूनिट हैं। इन आठ में से तीन यूनिटों का माल
अमेरिका जाता था।
जून 2008 में जापानी
दवा कंपनी दाइची सैंक्यो ने 4.6 अरब डॉलर लगाकर रैनबैक्सी लैबोरेटरीज़ का नियंत्रण
अपने हाथ में लिया था। जापानी कंपनी ने कल्पना भी नहीं की होगी कि कुछ साल के अंदर
उसे जबर्दस्त चुनौती का सामना करना होगा। उन्हें शायद एफडीए की जाँच को लेकर संशय नहीं
था। फॉरच्यून पत्रिका के लिए कैथरीन इबान ने इस विषय पर जो लम्बी रपट लिखी है उसे पढ़ते
हुए लगता है कि कॉरपोरेट जगत में नैतिकता और जिम्मेदारी की नितांत अभाव है। वहीं दुनिया
को सही रास्ते पर लाने वाली व्यवस्थाएं भी पीछे नहीं हैं। सन 2005 में दिनेश ठाकुर
को कंपनी से इस्तीफा देना पड़ा। इस्तीफे के पीछे की वजह काम करने के तरीके में खराबी
थी। ठाकुर के पहले उनके बॉस राजेन्द्र कुमार ने कंपनी छोड़ी थी। दिनेश ठाकुर ने एक
फर्जी नाम से याहू पर नया ई-मेल आईडी बनाया और खुद को कंपनी का एक साइंटिस्ट बताते
हुए अमेरिका, ब्रिटेन, विश्व स्वास्थ्य संगठन और ब्राजील के औषधि नियामकों के नाम चिट्ठी
लिखी। उन्होंने लिखा कि मेरी कंपनी मुझसे गलत डेटा तैयार करवा रही है। पर इस चिट्ठी
का कोई जवाब नहीं मिला। शायद किसी को इस चिट्ठी की वैधता पर भरोसा नहीं था। आखिर में
दिनेश ने सीधे एफडीए के कमिश्नर लेस्टर क्रॉफर्ड को पत्र लिखा। इसका जवाब आया। जवाब
दिया एफडीए के संटर फॉर ड्रग इवैल्युएशन एंड रिसर्च के चीफ ऑफ इनवेस्टिगेशंस एडविन-रिवेरा
मार्टिनेज का। उन्होंने कहा कि क्या आप कांफ्रेस कॉल के लिए तैयार हैं। ठाकुर शुरू
में झिझके, पर बाद में तैयार हो गए। इसके बाद पड़ताल के कई दौर चले, पर अंततः उनकी
बातें सही साबित हुईं। और कंपनी को 50 करोड़ डॉलर का जुर्माना देना पड़ा।
रैनबैक्सी का मसला
केवल इसलिए महत्वपूर्ण नहीं है कि किसी भारतीय कम्पनी के खिलाफ अमेरिकी प्रशासन ने
कार्रवाई की है। कोई और मौका होता तो हम अमेरिकी प्रशासन को कोसते, पर इस मामले में
शर्मिंदा होना पड़ रहा है। पिछले साल सितंबर में कंपनी को यूएस एफडीए के फॉर्म 483 मिला था, जिसमें मोहाली प्लांट को लेकर चिंता जताई गई थी। जांच के दौरान
मिलने वाली खामियों को बताने के लिए एफडीए इस फॉर्म का इस्तेमाल करता है। यूएस एफडीए
की चेतावनी अब इंपोर्ट बैन में तब्दील हो गई है, जिससे यह बात साबित होती है कि कंपनी का नया मैनेजमेंट नए प्लांट्स
में मैन्युफैक्चरिंग से जुड़े मुद्दों को सफलतापूर्वक हल करने में नाकाम रहा है। रैनबैक्सी
की कुल आय में अमेरिकी कारोबार से होने वाली आय की हिस्सेदारी 40 फीसदी के करीब है। मोहाली यूनिट पर रोक लग जाने के बाद अमेरिकी बाजार के मामले
में कंपनी वहां स्थित अपनी एकमात्र इकाई ओह्म लैबोरेट्रीज पर ही निर्भर रह गई है। कंपनी
की जापानी प्रमोटर दाईची सांक्यो और नई दिल्ली के एफडीए ऑफिस ने इस बारे में अभी विस्तार
से कुछ नहीं बताया है, पर भारतीय कारोबार की प्रतिष्ठा को इस फैसले से धक्का लगा है।
खासतौर से तब जब हम भारत को आने वाले वक्त का मेडिकल हब बनाना चाहते हैं।
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