Wednesday, September 11, 2013

चुनाव-महोत्सव की 'फॉर्मूला रेस'

कृषि-प्रधान होने के साथ-साथ भारत मनोरंजन-प्रधान देश भी है. मनोरंजन के तीन साधन हैं. सिनेमा, क्रिकेट और राजनीति. तीनों को जोड़ता है टीवी, जो सब कुछ है. इन सबके तड़के से तैयार होता है द ग्रेट इंडियन रियलिटी शो. कभी सोचा है कि राजनीति वाला सिनेमा में सिनेमा वाला खेल मे और खेल वाला राजनीति में क्यों है? तीनों की अपनी फॉर्मूला रेस है और अपना सीजन. राजनीति का सीजन आ रहा है और उसके साथ आने वाला है उसका अपना कॉमेडी सर्कस. कुछ विधानसभाओं के चुनाव सिर पर हैं और इनके तीन महीने बाद लोकसभा के. इस लोकतांत्रिक-महोत्सव के बरक्स देश की अर्थनीति, राजनीति और प्रजानीति पर नजर डालनी चाहिए.

    

तीन-चार हफ्ते से देश आर्थिक संकट को लेकर बिलबिला रहा था. पिछले हफ्ते रिजर्व बैंक के गवर्नर का पद सम्हालने के दिन ही रघुराम राजन ने कुछ घोषणाएं कीं और वित्तीय बाजारों की धारणा बदलने लगी. रुपए की कीमत जो डॉलर के मुकाबले 68 रुपए के पार थी वह 65 के आसपास आ गई. शेयर बाजार में गिरावट रुक गई. बहरहाल हमारे पास विदेशी मुद्रा भंडार इतना है कि लम्बे अरसे तक किसी किस्म की परेशानी नहीं होगी. अब कहा जा रहा है कि फंडामेंटल्स मजबूत है. अच्छे मॉनसून के कारण अनाज और खेती से जुड़ी वस्तुओं के दाम गिरेंगे और मुद्रास्फीति पर रोक लगेगी. एचडीएफसी बैंक के चेयरमैन दीपक पारेख संजीदा व्यक्ति हैं. उनका कहना है कि भारत खराब दौर से बाहर आ गया है. इस साल की पहली तिमाही में अर्थव्यवस्था की विकास दर 4.4 प्रतिशत पर आ गई, जो पिछले दशक की सबसे धीमी गति है. इसे बॉटम आउट मानें तो अब इससे बेहतर समय आएगा.

 

राजनीतिक-आर्थिक और सांस्कृतिक लिहाज से खुशहाली का समय फिर से वापस आने वाला है. आए या न आए हमें यही साबित यही करना है. अगले महीने से धार्मिक-सांस्कृतिक महोत्सवों का दौर शुरू होगा, जो नए साल के बाद तक चलेगा. यही समय राजनीतिक फसल की कटाई का है. पेशबंदियाँ और किलेबंदियाँ चल रहीं हैं. इसकी झलक संसद के मॉनसून सत्र में दिखाई पड़ी. पिछली 30 अगस्त को खत्म होने वाले सत्र की अवधि पहले 6 सितंबर तक बढ़ी  और फिर एक दिन और बढ़ी ताकि विधेयक पास हो सकें. सरकार और बढ़ाना चाहती थी, पर सहमति नहीं बनी. पर पक्ष और विपक्ष दोनों ने इसे सफल सत्र बताया. संसदीय कार्य मंत्री कमलनाथ बोले कि महीने भर चले सत्र में मौलिक कार्यहुआ है. भारतीय राजनीति का मौलिक-कार्य’? सपने दिखाना और क्या!

 

बहरहाल इस दौरान आर्थिक सुधारों से जुडा महत्वपूर्ण पेंशन फंड नियामक एवं विकास प्राधिकरण विधेयकपारित हुआ. यह विधेयक राजनीतिक मतभेदों के कारण करीब एक दशक से अटका हुआ था. खाद्य सुरक्षा विधेयक पास हुआ. राजनीतिक मतभेदों का शिकार भूमि अधिग्रहण विधेयक पास हुआ. कम्पनी कानून, पथ विक्रेता विधेयक, सिर पर मैला ढोने की परम्परा खत्म करने वाला विधेयक, वक्फ संशोधन विधेयक वगैरह दस विधेयक संसद से पास हो गए। दोनों सदनों से अलग-अलग कुछ और विधेयक पास हुए. लोकसभा ने एक ही दिन में चार महत्वपूर्ण बिल पास किए. संसदीय मामलों का अध्ययन करने वाली संस्था पीआरएस लेजिस्लेटिव रिसर्च के अनुसार पिछले चार साल में यह दूसरा सबसे उत्पादक सत्र था. पिछले साल के इसी सत्र में लोकसभा ने अपने मुकर्रर समय के 20 फीसदी और राज्यसभा ने 27 फीसदी समय में काम किया. इस बार लोकसभा ने 58 फीसदी और राज्यसभा ने 80 फीसदी समय का इस्तेमाल किया.

 

अब संसद के इस सत्र के सहारे अपनी राजनीति को समझने की कोशिश करें. पिछले साल पूरा मॉनसून सत्र कोयला खानों को आबंटन के नाम चला गया. इस बार भी आग थी, पर सरकार ने विपक्ष को भड़ास निकालने का मौका दिया तो कटुता भाईचारे में बदल गई. विपक्ष ने भी एक ही दिन में एक के बाद एक विधेयक पारित करवाने की छूट दे दी. जिस पेंशन विधेयक को लेकर सरकार परेशान थी, बुधवार को वह लोकसभा से बहुत आसानी से पारित हो गया. उसके एक दिन पहले प्रधानमंत्री ने आडवाणी जी, सुषमा जी और जेटली जी को डिनर पर बुलाया. गुरुवार को भी एक के बाद एक चार विधेयकों को हरी झंडी मिल गई.

हमारी राजनीति और मीडिया और एक हद तक वोटर की राजनीतिक प्रक्रियाओं को लेकर अलग समझ है. संसद को हम शोरोगुल का मंच समझते हैं. जैसे टीवी को हर वक्त सनसनीखेज खबरें चाहिए वैसे ही राजनीति को हर वक्त संकट चाहिए. शोर मचाना राजनीतिक कर्म और धर्म है. मॉनसून सत्र के शुरू होने से अंत तक तेलंगाना मसले पर कुछ सांसद अवरोध पैदा करते ही रहे. उन्हें अपने लोगों को दिखाना था कि हम कुछ कर रहे हैं. स्वतंत्रता आंदोलन से निकली हमारी राजनीति आंदोलन ही तलाशती है. तेलंगाना की उपादेयता या निरर्थकता पर सार्थक बहस नहीं होती. उत्तराखंड की आपदा, सीमा पर तनाव या महंगाई पर भी नहीं. मीडिया की दिलचस्पी भी शोर में है, विमर्श पर कम. फिर भी इस बार के संसदीय कर्म ने रेखांकित किया कि सरकार और विपक्ष पर वोटर का दबाव है.

संसद ने कम से कम दो विधेयकों पर जन-भावनाओं का आदर किया. राजनीतिक दलों को आरटीआई के दायरे में लाने के आदेश को निष्प्रभावी करने वाला विधेयक स्थायी समिति के पास भेज दिया गय़ा. सभी राजनीतिक दल एकमत से इसके पक्ष में थे, पर जन-भावना इसके साथ नहीं थी. दो साल या उससे ज्यादा सजा पाने वाले जन-प्रतिनिधियों की सदस्यता समाप्ति के सुप्रीम कोर्ट के आदेश को पलटने वाला विधेयक भी पास नहीं किया गया. सरकार ने अंतिम क्षण में हाथ खींच लिए. इस सत्र में पास हुए कम्पनी कानून, पेंशन विधेयक और एक हद तक भूमि अधिग्रहण विधेयक आर्थिक गतिविधियों को आगे बढ़ाएंगे. अभी जीएसटी और डायरेक्ट टैक्स कोड जैसे मसले बाकी हैं. लोकपाल, सिटिजन चार्टर और विसिल ब्लोवर विधेयकों के बारे में कोई सोच नहीं रहा. महिला विधेयक भारतीय राजनीति का हमेशा उपहास उड़ाएगा. आर्थिक संवृद्धि और मानव-विकास की बहस अपनी जगह है, पर अर्थ-व्यवस्था की गाड़ी को धीमा करके कोई काम नहीं हो सकता. इस सत्र में उच्च अदालतों में न्यायाधीशों की नियुक्ति के संबंध में संविधान संशोधन विधेयक को लेकर सरकार से चूक हो गई. कानून मंत्री ने इस पर खेद व्यक्त भी किया. उम्मीद है कि यह अगले सत्र में पास हो जाएगा. पर क्या अगला सत्र होगा?

सत्र हो या न हो दो-तीन बातें साफ हैं. राजनीति को चुनाव के पहले ही सारी बातें याद आती हैं. सरकार पहले चार साल सोती है और अंत में जागती है. इसकी वजह जनता के दबाव में कमी है. पर अब कहानी बदल रही है. अन्ना आंदोलन विफल हुआ, पर जनता के सामने सवाल छोड़ गया. वह जागेगी तभी देश जागेगा. मुख्य धारा की राजनीति इन सवालों को लेकर सचेत नहीं है. जबकि नया वोटर इलेक्शन वॉच, एडीआर और पीआरएस की वेबसाइटों पर निगाह रखने लगा है. इस लिहाज से अगला चुनाव रोचक होगा और उसके बाद की राजनीति और ज्यादा मजेदार होगी.

प्रभात खबर में प्रकाशित

No comments:

Post a Comment