पिछले हफ्ते रेवाड़ी में हुई रैली में नरेन्द्र मोदी ने दो महत्वपूर्ण
बातें कहीं जिनपर ध्यान दिया जाना चाहिए। उन्होंने एक तो पाकिस्तान के बरक्स अटल बिहारी
वाजपेयी की नीतियों का समर्थन किया। और दूसरे यह कहा कि भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश
को मिलकर दक्षिण एशिया की गरीबी दूर करने के रास्ते तलाशने चाहिए। पाकिस्तान के अखबार
‘द नेशन’ इस खबर को शीर्षक
दिया ‘फाइट पावर्टी नॉट इंडिया, मोदी आस्क्स पाकिस्तान।’ मोदी ने कहा, पाकिस्तान के शासक अगले दस साल तक अपनी जमीन का इस्तेमाल आतंकी
गतिविधियों में शामिल होने से रोक सकें तो मैं पूरे विश्वास के साथ कहता हूँ कि पाकिस्तान
वह प्रगति देखेगा जो पिछले साठ साल में नहीं देखी होगी। मोदी की बातें आमतौर पर उग्र
राष्ट्रवादी शब्दावली में लिपटी होती हैं। पिछले स्वतंत्रता दिवस पर प्रधानमंत्री को
जवाब देने वाले भाषण में उन्होंने चीनी घुसपैठ और पाकिस्तानी सीमा पर सैनिकों की गर्दन
काटे जाने के मामलों में मनमोहन सिंह की प्रतिक्रिया को बेहद कमजोर और क्षीण साबित
किया था। पर लगता है प्रधानमंत्री पद के प्रत्याशी के रूप में उनका नाम तय हो जाने
के बाद उनकी शब्दावली संयत और सार्थक हुई है।
नरेन्द्र मोदी की विश्व दृष्टि क्या है? मसलन यदि वे प्रधानमंत्री बने तो उनकी विदेश नीति क्या होगी? क्या वे पाकिस्तान और चीन से सीधे मुठभेड़ मोल लेंगे? चीन के साथ व्यापारिक सम्बन्धों पर उनका दृष्टिकोण क्या होगा? उन्हें वीजा न देने वाले अमेरिका के साथ उनके रिश्ते कैसे होंगे? इन बातों पर अभी ज्यादा चर्चा नहीं हुई है, पर होनी चाहिए। पहली बात तो यह
है कि देश की विदेश नीति पूरे देश की नीति होती है, किसी व्यक्ति विशेष की नीति के
रूप में उसे देखना मुश्किल होता है। इसीलिए उसमें एक प्रकार की निरंतरता होती है। दूसरे
मोदी एक पार्टी के नेता हैं। पार्टी भी इन सवालों पर विमर्श करती है। व्यक्तिगत रूप
से नेता भी इसमें भूमिका निभाते हैं जैसे कि पाकिस्तान के संदर्भ में अटल बिहारी वाजपेयी
ने निभाई थी।
अमेरिका के वीजा प्रकरण को छोड़ दें तो मुख्यमंत्री के रूप में
नरेन्द्र मोदी के बाहरी देशों के साथ रिश्ते अच्छे रहे हैं। खासतौर से यूरोपीय यूनियन
के देशों और जापान के साथ उनके रिश्ते अच्छे रहे हैं। मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार
घोषित किए जाने के बाद ब्रिटेन के प्रधानमंत्री डेविड कैमरन ने मोदी के साथ काम करने
की इच्छा जताई है। कैमरन ने कहा है कि गुजरात में ब्रिटेन के व्यापक उद्देश्यों को
देखते हुए ब्रिटेन,
गुजरात और उसके मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ निकट संबंध
बनाने का पक्षधर है।
कैमरन का मानना है कि नरेंद्र मोदी सहित गुजरात से बेहतर संबंध
बनाने से ही ब्रिटेन के उद्देश्यों की पूर्ति हो सकती है, जिसमें मानवाधिकार भी शामिल है। कैमरन से पूछा गया कि साल
2014 के आम चुनावों में अगर मोदी की जीत होती है तो क्या ब्रिटेन उन्हें वीजा जारी
करेगा,
इसके जवाब में उन्होंने कहा कि ब्रिटेन भारत के साथ द्विपक्षीय
संबंधों के लेकर प्रतिबद्ध हैं और इसमें भारतीय प्रधानमंत्री का यहां स्वागत करना भी
शामिल है। यों भी ब्रिटेन के सांसदों ने हाउस ऑफ कॉमंस में भाषण देने के लिए मोदी को
आमंत्रित किया है। इस निमंत्रण के बाद भी एक बहस खड़ी हुई कि क्या लेबर पार्टी मोदी
के कार्यों का समर्थन करती है। ब्रिटेन के कुछ मानवाधिकारवादी ग्रुपों ने मोदी की सम्भावित
यात्रा का विरोध भी किया है।
हाल में भारत के 65 सांसदों के दस्तखतों से जारी एक चिट्ठी चर्चा
में आई थी जिसमें मोदी को वीजा न देने का अमेरिका से अनुरोध किया गया था। उस चिट्ठी
का शुद्ध राजनीतिक निहितार्थ था। उस पत्र के बाबत अमेरिका के वॉशिंगटन पोस्ट अखबार
में प्रकाशित खबर की शुरूआती पंक्ति थी,“इस बात की कल्पना भी नहीं की जा सकती कि भारत के सांसद अपने देश के आंतरिक
मामले को लेकर अमेरिका से कोई माँग करेंगे। अनेक भारतीय राजनेता, जिनके मन में अमेरिका
को लेकर आज भी शीत-युद्ध के दौर का संदेह कायम है, इस बात की कल्पना भी नहीं कर सकते।” गुजरात में 2002 के दंगों के बाद ब्रिटेन और अमेरिका सहित कई पश्चिमी देशों
ने खुद को मोदी से अलग कर लिया था और वीजा देने से मना कर दिया था। लेकिन पिछले कुछ
साल से उनका रूख बदलता दिख रहा है। ब्रिटेन के विदेश विभाग कार्यालय के मंत्री ह्यूगो
स्वायर ने मार्च में गुजरात में मोदी से मुलाकात में कहा था कि भारत और ब्रिटेन के
संबंधों में यह अगला महत्वपूर्ण कदम है। इसके विपरीत मोदी के पीएम प्रत्याशी घोषित
होने के बाद अमेरिकी विदेश विभाग ने कहा कि इस सिलसिले में अमेरिकी नीति में बदलाव
नहीं आया है। सन 2005 में अमेरिका ने नरेन्द्र मोदी को राजनयिक वीजा देने से इनकार
कर दिया था, साथ ही उन्हें प्राप्त बी-1/बी-2 वीजा रद्द कर दिया
था। अमेरिका ने अपने देश के उस नियम का हवाला दिया था जिसमें ऐसे व्यक्ति को वीजा देने
से इनकार किया जा सकता है जिसने किसी सरकारी पद पर रहते हुए लोगों की धार्मिक स्वतंत्रता
में प्रत्यक्ष या परोक्ष बाधा पहुँचाई हो। इस दौरान मोदी को अमेरिका से मिले निमंत्रण
किसी न किसी वजह से रद्द होते रहे। उनका अमेरिका के अपने समर्थकों के साथ सम्पर्क सैटेलाइट
कांफ्रेंसिग के जरिए है। ऐसे ही एक सम्मेलन को उन्होंने इसी शनिवार को भी सम्बोधित
किया है।
सवाल है यदि मोदी प्रधानमंत्री बने तो क्या अमेरिका उन्हें अमेरिका
अपने देश में आने का निमंत्रण नहीं देगा? बेशक यह बड़ा सवाल है, पर उसका जवाब पाने के लिए पहले हमें मोदी के प्रधानमंत्री
बनने का इंतजार करना होगा। ऐसा लगता नहीं कि उस स्थिति में अमेरिका मोदी को वीजा देने
में ना-नुकुर करेगा। इसके पहले अमेरिका यासर अरफात से लेकर ईरान के राष्ट्रपति अहमदीनेजाद
तक को वीजा दे चुका है। पाकिस्तान में शियों और अहमदियों पर ढेरों जुल्म होते हैं।
अहमदियों को तो सरकारी तौर पर अपने धर्मस्थल बनाने तक का अधिकार नहीं है। ऐसा कभी नहीं
हुआ कि किसी पाकिस्तानी प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति को वीजा देने से मना किया गया हो।
शायद यह बात कभी सामने आए कि मोदी के वीजा-प्रतिबंध के पीछे की असली कहानी क्या थी।
यह वीजा प्रकरण 2005 का है, जब दिल्ली में यूपीए सरकार थी। इतना स्पष्ट है कि कम से
कम भारत सरकार ने मोदी के पक्ष में हस्तक्षेप नहीं किया। यह भी स्पष्ट है कि अमेरिकी
नीति के पीछे कहीं न कहीं भारत की आंतरिक राजनीति का प्रभाव भी है। शायद आने वाले समय
में कुछ तथ्य सामने आएं। बहरहाल दोनों महत्वपूर्ण मित्र देश हैं और अमेरिका व्यापार
का हमारा सबसे बड़ा साझीदार है। उसके प्रधानमंत्री को वीजा देने से रोकना उसके लिए
सम्भव नहीं होगा। पर असल सवाल है क्या मोदी प्रधानमंत्री बनेंगे?
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