उत्तर प्रदेश के चुनाव
का माहौल पिछले छह महीने से बना हुआ है। एक ओर सरकार की घोषणाएं तो दूसरी ओर मंत्रियों
की कतार का बाहर होना। सन 2007 के चुनाव के ठीक पहले का माहौल इतना सरगर्म नहीं था।
हाँ इतना समझ में आता था कि मुलायम सरकार गई और मायावती की सरकार आई। मुलायम सरकार
के पतन का सबसे बड़ा कारण यह माना जाता है कि प्रदेश में आपराधिक तत्वों का बोलबाला
था। तब क्या जनता ने अपराध के खिलाफ वोट दिया था?
यह बात शहरों या गाँवों
में भी कुछ उन लोगों पर शायद लागू होती हो, जो मसलों और मुद्दों पर वोट देते हैं। पर
सच यह है कि उस चुनाव में समाजवादी पार्टी का वोट प्रतिशत बढ़ा था। सन 2002 के
25.37 से बढ़कर वह 2007 में 25.43 प्रतिशत हो गया था। फिर भी सीटों की संख्या 143 से
घटकर 97 रह गई। वह न तो मुलायम सिंह की हार थी और न गुंडागर्दी की पराजय। वह सीधे-सीधे
चुनाव की सोशल इंजीनियरिंग थी।
मायावती की बसपा को सन 2002 में 23.06 प्रतिशत वोट मिले थे। सन 2007 में वे बढ़कर 30.43 प्रतिशत हो गए। सिर्फ 7.37 फीसद वोटों के स्विंग ने बसपा की सीटों की संख्या 98 से बढ़ाकर 206 कर दी। 108 सीटों का इज़ाफा।
मायावती की बसपा को सन 2002 में 23.06 प्रतिशत वोट मिले थे। सन 2007 में वे बढ़कर 30.43 प्रतिशत हो गए। सिर्फ 7.37 फीसद वोटों के स्विंग ने बसपा की सीटों की संख्या 98 से बढ़ाकर 206 कर दी। 108 सीटों का इज़ाफा।
उत्तर प्रदेश में उसके
पहले स्पष्ट बहुमत सन 1991 में भाजपा को मिला था, जब उसे 31.45 फीसदी वोट और 221 सीटें
मिलीं। वह भी सोशल इंजीनियरी थी। हिन्दुत्ववादी इंजीनियरी। 1993 में चुनाव में इसके
समानांतर एक और सोशल इंजीनियरी हुई। इसमें भाजपा के वोट बढ़कर 33.30 फीसदी हो गए, पर
44 सीटें घटकर कुल 177 रह गईं। मुसलमान वोटर ने टैक्टिकल वोटिंग की। जहाँ भी भाजपा
का प्रत्याशी था उसे हराने में समर्थ प्रत्याशी को वोट दिया। 1991 के चुनाव तक जनता
परिवार था। 1993 में मुलायम सिंह की सपा नई पार्टी के रूप में उतरी थी। उसे 17.94 फीसदी
वोट और 109 सीटें मिलीं। उसके समानांतर बसपा के रूप में एक और सामाजिक शक्ति का उदय
तब तक हो चुका था। बसपा को पहली बार दहाई में 11.12 फीसदी वोट और 67 सीटें मिलीं। सोशल
इंजीनियरी लगातार जारी है।
बाबू सिंह कुशवाहा के
भाजपा में शामिल होने के बाद लगता है बीजेपी ने सेल्फ गोल कर लिया है। पार्टी का नेतृत्व
भी धर्मसंकट में है। बाबू सिंह को चुनाव यों भी नहीं लड़ना है। वे विधान परिषद के सदस्य
हैं। तब फिर विनय कटियार और सूर्य प्रताप शाही ने उन्हें पार्टी में लाना क्यों उचित
समझा? कहा यह भी जा रहा है कि कांग्रेस इस कोशिश में थी कि बाबू सिंह
को ले लिया जाए। तभी बीजेपी के नेता कूद पड़े और उन्हें झपट कर ले गए। अंदर की बातें
शायद कभी सामने नहीं आएंगी। पर सच यह है कि सोशल इंजीनियरी का अर्थ सभी पार्टियाँ समझती
हैं। बाबू सिंह कुशवाहा, बादशाह सिंह, रशीद मसूद, राजा भैया, धनंजय सिंह, डीपी यादव
या मुख्तार अंसारी वगैरह यों ही राजनीति में नहीं हैं।
उत्तर प्रदेश में कम
से कम पचास प्रत्य़ाशी सिर्फ अपने असर से चुनाव जीतते हैं। उनकी पार्टियाँ बदलती रहती
हैं। पुराने परिणामों को देखें तो हर चुनाव में दस फीसदी से ज्यादा वोट अन्य और निर्दलीय
प्रत्याशियों के खाते में होते हैं। प्रदेश विधानसभी के 1957 के चुनाव में निर्दलीय
प्रत्याशियों को 28.68 फीसदी वोट मिले थे। उस चुनाव में कांग्रेस को 286 सीटें मिलीं
थीं। हालांकि 44 सीटें जीतकर प्रसोपा दूसरी सबसे बड़ी पार्टी थी, पर वास्तव में 74
निर्दलीय प्रत्याशी सबसे बड़ा राजनीतिक समूह था। बहरहाल तबसे अबतक राजनीतिक समझ का
दायरा बढ़ा है और विचारधाराओं ने भी जन्म लिया है। पर चुनाव को पूरी तरह विचार और आदर्श
प्रेरित बनने में समय लगेगा।
महत्वपूर्ण प्रश्न यह
है कि मायावती को मिले 7.37 फीसदी अतिरिक्त वोटों ने उत्तर प्रदेश की कहानी पिछले चुनाव
में बदल दी थी। इन वोटों में सिर्फ जातीय आधार पर सोचने वाले वोट भी रहे होंगे। पर
काफी वोट नाराजगी के भी थे। एंटी इनकम्बैंसी शब्द हमने पिछले कुछ साल से सुनना शुरू
किया है। इसका अर्थ है सरकार से नाराजगी। आप सत्ता में हैं तो जनता की नाराजगी का खामियाजा
आपको भुगतना होगा। इस एंटी इनकम्बैंसी से कम से कम इतना समझ में आता है कि यह वोटर
सोशल इमजीनियरी से अपेक्षाकृत कम प्रभावित है। हम मानकर चलते हैं कि मायावती या मुलायम
सिंह के साथ सॉलिड वोटर हैं। मायावती के पास प्रदेश का 24 या 25 फीसदी वोटर है। तकरीबन
इतना ही मुलायम सिंह के साथ है। यह वोटर गुंडागर्दी, भ्रष्टाचार, बेईमानी वगैरह नहीं
जानता। वह सिर्फ जातीय पहचान या अस्मिता के लिए वोट देता है। उसके नेता पर कोई भी आरोप
लगता हो, उसे परवाह नहीं।
अगले दस-पन्द्रह साल
तक चुनाव के पुल और महल इस सोशल इंजीनियरी के सहारे ही बनेंगे। इसमें बदलाव भी आएगा।
बहुत सी बातों का हम अनुमान नहीं लगा पाते हैं। वक्त उन बातों को परिभाषित करता है।
बाबू सिंह कुशवाहा के मामले में क्या बीजेपी ने अपने गले बला मोल ले ली है? इस सवाल का जवाब समय देगा। और इस बात का भी क्या इस चुनाव में भ्रष्टाचार कोई
मुद्दा है भी या नहीं? पर आज का सवाल यह है कि इन पार्टियों में कौन सी
ऐसी है जिसका समर्थन किया जाए और किसका विरोध? अन्ना हजारे की मंडली ऐसे मौके
पर खामोश बैठी है जब उसे बोलना चाहिए था। बीजेपी ने उत्तराखंड में रमेश पोखरियाल निशंक
को न सिर्फ टिकट दिया है बल्कि उन्हें महत्वपूर्ण ओहदा भी दिया है। पर उन्हें हटाया
क्यों था? पार्टियों की यह दुविधा सामान्य व्यक्ति को समझ में नहीं आएगी।
इसलिए नहीं कि वह समझ नहीं सकता, बल्कि इसलिए कि पीछे की बातें हमें पता नहीं। राजनीति
में जो सामने है उससे ज्यादा महत्वपूर्ण है पीछे का सच।
राजनीति में बैकरूम का
मह्त्व है। जो चोरी-छिपे होता है वह ज्यादा व्यावहारिक है। सामने की बातें दिखावटी
और आदर्शों से भरी होती हैं। रंगमंच के बाद मुख और मुखौटे का इस्तेमाल राजनीति से ज्यादा
और कहीं नहीं होता। पर वोट जनता को देना है। यह भी साफ है कि जनता का बड़ा हिस्सा मुद्दों
पर नहीं सामाजिक पहचान पर वोट देता है। तब किया क्या जाए? चुनाव के वक्त सामाजिक चेतना का स्तर ऊँचा होता है, इसलिए इस सवाल का जवाब इसी
दौरान खोजा जाना चाहिए। इस जवाब का एक छोर हमें मिल चुका है। वह यह कि शत-प्रतिशत वोटर
न सही, तकरीबन पाँच-छह प्रतिशत वोटर जागरूक है। वह संकीर्ण प्रश्नों पर उलझने के बजाय
सोच-समझकर वोट डालना चाहेगा। उसकी यह समझदारी हर चुनाव में कायम रही तो ऐसे वोटर का
प्रतिशत बढ़ता रहेगा। दस से पन्द्रह साल के बीच एक बड़ी तादाद में ऐसे जागरूक वोटर
तैयार हो जाएंगे। इनमें सबसे बड़ी संख्या युवा वोटरों की होगी। और उन्हें ही भविष्य
की राजनीति को संचालित करना है।
अन्ना-आंदोलन क्यों शुरू
हुआ और क्यों मौन हो गया, इस सवाल पर कभी आगे बात करेंगे। फिलहाल वोटर चाहें तो हर
शहर में छोटे स्तर पर वोटर मंच बनाने चाहिए। इनका लक्ष्य वोट डालने की प्रक्रिया को
समझना-समझाना और चुनाव के समय मुद्दों की तलाश होना चाहिए। चुनाव के बाद वोटर की भूमिका
खत्म नहीं होती। बेहतर हो कि जीते हुए प्रत्याशी से हर क्षेत्र के वोटर कुछ बुनियादी
आश्वासन लें। इन आश्वासनों पर आपका प्रत्याशी काम कर रहा है या नहीं इसका लेखा-जोखा
अपने पास रखें। अगले चुनाव में काम आएगा।
लोकतंत्र सबसे कुशल व्यवस्था
है, पर यह अपनी बुनियादी इकाई यानी नागरिक के सहारे चलती है। नागरिक को जागरूक बनाने
का काम शिक्षा, राजनीति, साहित्य और मीडिया वगैरह का है। इनमें दोष है तो इस व्यवस्था
को अकुशल बनने में देर नहीं लगेगी। हम जिस दौर से गुजर रहे हैं उसमें वोटर की भूमिका
परिभाषित हो रही है। इसे बेहतर बनाने में आपकी भूमिका भी है। उसे निभाएं।
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