Friday, December 16, 2011

बहुत हुई बैठकें, अब कानून बनाइए

सरकार पहले कहती है कि हमें समय दीजिए। अन्ना के अनशन की घोषणा के बाद जानकारी मिलती है कि शायद मंगलवार को विधेयक आ जाएगा। शायद सदन का कार्यकाल भी बढ़ेगा। यह सब अनिश्चय की निशानी है। सरकार को  पहले अपनी धारणा को साफ करना चाहिए। 

लोकपाल पर यह पहली सर्वदलीय बैठक नहीं थी। इसके पहले 3 जुलाई को भी एक बैठक हो चुकी थी जब संयुक्त ड्राफ्टिंग समिति की बैठकों के बाद सरकार ने अपना मन लगभग बना लिया था। अगस्त के अंतिम सप्ताह में संसद की इच्छा पर चर्चा हुई तब भी प्रायः सभी दलों की राय सामने आ गई थी। बुधवार की बैठक में पार्टियों के रुख में कोई बड़ा बदलाव नहीं था। बहरहाल 1968 से अब तक के समय को जोड़ें तो देश की संसदीय राजनीति के इतिहास में किसी भी कानून पर इतना लम्बा विचार-विमर्श नहीं हुआ होगा। यह अच्छी बात है और खराब भी। खराब इसलिए कि केवल इस कानून के कारण देश का, मीडिया का और संसद का काफी समय इस मामले पर खर्च हो रहा है जबकि दूसरे मामले भी सामने खड़े हैं। अर्थ-व्यवस्था संकट में है, औद्योगिक उत्पादन गिर रहा है, यूरो और डॉलर के झगड़े में रुपया कमजोर होता जा रहा है। जनता को महंगाई और बेरोजगारी सता रही है। ऐसे में पार्टियाँ सत्ता की राजनीति के फेर में फैसले पर नहीं पहुँच पा रहीं हैं।


सरकार एक ओर इस विषय पर लम्बा विमर्श चाहती है वहीं सोमवार को कैबिनेट ने न्यायिक मानक और जवाबदेही के कानून, ह्विसिल ब्लोवर्स के संरक्षण का कानून और सार्वजनिक सेवाओं के अधिकार का कानून मंजूर कर लिया। इसके साथ ही मनी लाउंडरिंग के बिल को भी मंजूरी मिल गई। सरकार भ्रष्टाचार के खिलाफ कानूनों को पेश करने में बिजली की तेजी से गतिशील हो गई। यह अच्छी बात है, पर तीनों-चारों कानूनों के विवरणों से जनता परिचित नहीं है। मीडिया ने भी इनपर किसी किस्म की चर्चा नहीं की। लगता है सर्वदलीय बैठक में भी इनके बारे में खास चर्चा नहीं हुई, क्योंकि सबकी ज़बान पर सिर्फ एक शब्द है लोकपाल।

इस बात से कोई इनकार नहीं कर सकता कि लोकपाल कानून को इस हद तक महत्वपूर्ण बनाने में अन्ना हजारे के आंदोलन की भूमिका है। अन्यथा संसद के इस सत्र की बात छोड़िए इस कार्यकाल में भी यह बिल नहीं आता। ह्विसिल ब्लोवर संरक्षण कानून और न्यायपालिका की जवाबदेही के कानून बनाने की योजना पहले से जरूर चल रही थी, पर ऐसे आसार नहीं थे कि ये कानून जल्द तैयार हो जाएंगे। सरकार के सामने आर्थिक उदारीकरण का एजेंडा ज्यादा महत्वपूर्ण था। उसमें भी रिटेल, पेंशन फंड और नागरिक उड्डयन में एफडीआई के मसले ऊपर थे। सिटिजंस चार्टर यानी सेवाओं के अधिकार के कानून की केन्द्रीय परिकल्पना अपेक्षाकृत नई है और यह अन्ना आंदोलन की पेशबंदी के रूप में ही सामने आई है। पर सच यह है कि यदि यह कानून आज से बीस साल पहले बन गया होता तो शायद अन्ना हजारे आंदोलन की ज़रूरत ही न होती।

सर्वदलीय बैठक के समानांतर बुधवार को अन्ना-टोली की बैठक भी चल रही थी। इसमें तय हो रहा था कि 27 दिसम्बर से रामलीला मैदान में अनशन शुरू किया जाए या मुम्बई में डेरा डाला जाए जहाँ मौसम बेहतर होगा। कम से कम बैठक तो होगी, चाहे आंदोलन को जारी रखने के लिए हो या विजय समारोह के रूप में। सरकार हौले-हौले मजबूत लोकपाल कानून की बात को मंजूर कर रही है, पर अब घबराहट इस बात की है कि श्रेय किसे मिलेगा? सरकार के तीन या चार वैकल्पिक कानून लोकपाल कानून के मुकाबले ज्यादा प्रभावशाली नहीं होंगे। भले ही उनकी भावना बेहतर है और वे हमारे जीवन में नाटकीय बदलाव ला सकते हैं। बहरहाल अब जो भी होगा वह सरकारों की जवाबदेही को बढ़ाने वाला होगा। सिटिजंस चार्टर लोकपाल कानून का हिस्सा हो या अलग रहे, इस बात के अब खास माने नहीं हैं।

लोकपाल कानून के तीन प्रश्नों पर पेच हैं। एक, प्रधानमंत्री का पद, दूसरा, सीबीआई और तीसरा सी और डी कैटेगरी के कर्मचारियों का मामला। कुछ शर्तों के साथ प्रधानमंत्री पद को दायरे में लाने पर भी सर्वानुमति बनती जा रही है। सीबीआई को स्वतंत्र बनाने की बात पर सैद्धांतिक सर्वानुमति है, पर उसकी रूपरेखा अभी साफ नहीं है। सीबीआई के पास केवल भ्रष्टाचार के मामले ही नहीं होते। लोकपाल के दायरे में इसे लाने के लिए इसके दो हिस्से करने होंगे या इसे पूरी तरह लोकपाल के अधीन लाया जाएगा? सीबीआई के डायरेक्टर को चुनने का तरीका क्या होगा? उसकी जवाबदेही किसके प्रति होगी? ऐसे सवालों का जवाब खोजने की जरूरत होगी। तीसरी और चौथी श्रेणी के कर्मचारियों को इसमें शामिल करने के लिए एक विशाल संगठन की ज़रूरत होगी। क्या लोकपाल नाम की संस्था इतना बड़ा बोझ सहन कर पाएगी? इन बातों से जुड़े सैकड़ों व्यावहारिक मामले सामने हैं। कानून की शक्ल देने के पहले इन सबके समाधान की शब्दावली कानून में शामिल करनी होगी।

अन्ना आंदोलन इस साल 30 जनवरी की एक रैली के साथ शुरू हुआ था। अच्छा हो कि उसका समापन इसी साल हो जाए और अगली 30 जनवरी को हम महात्मा गांधी की पुण्य तिथि के साथ पारदर्शिता दिवसके रूप में मनाएं। अन्ना आंदोलन को आजादी का दूसरा आंदोलन कहना अतिशयोक्ति होगा। अपने असर के लिहाज से यह सत्तर के दशक के जेपी आंदोलन के बराबर भी नहीं है। अलबत्ता राष्ट्रीय प्रश्नों से जुड़ा एक महत्वपूर्ण आंदोलन है। बेशक यह शहरी आंदोलन है, पर सरकारी भ्रष्टाचार से गाँव भी प्रभावित हैं। सरकारी दफ्तरों के कामकाज से गाँव के लोग भी परेशान हैं। सरकारी योजनाओं को प्रभावशाली ढंग से लागू करने के पहले व्यवस्था को पारदर्शी बनाने की मुहिम में कोई गलती नहीं है।

सिर्फ कानूनों से सामाजिक बदलाव नहीं होता। हमारे पास दुनिया के सबसे ज्यादा कानून हैं। पर दुनिया की सर्वश्रेष्ठ व्यवस्था होने का हम दावा नहीं कर सकते। हम निकृष्टतम भी नहीं हैं। पर गर्व करने लायक भी हमारे पास कुछ नहीं है। मनुष्य की गरिमा और समानता का विचार हमारे लिए विदेशी है। इस बात को कहने और समझने वाली व्यवस्था भी हमें चाहिए। सांस्कृतिक और सामाजिक बदलावों के लिए सामाजिक आंदोलनों की जरूरत है। जिसके लिए शिक्षा और पीछे रह गए नागरिकों की भागीदारी की दरकार है। पश्चिमी देशों में भी भ्रष्टाचार है, पर वहाँ की व्यवस्थाएं नागरिक की जिस भागीदारी के सहारे चलती हैं वह हमारे यहाँ अनुपस्थित है। बात-बात पर सार्वजनिक सम्पत्ति को जलाना, तोड़ना और सिर्फ अपने स्वार्थ की बात सोचना अवगुण है। वही जनता अपने अधिकार ले पाती है जो अपने कर्तव्य पूरे करती हो। अन्ना आंदोलन जीते या हारे महत्वपूर्ण है जनता। जेपी आंदोलन की उपलब्धि थी लोकतांत्रिक तंत्र का विकास। हाल के वर्षों में हमने सामाजिक न्याय, सत्ता के विकेन्द्रीकरण, चुनाव सुधार, शिक्षा, स्वास्थ्य और सामाजिक कल्याण के जो भी कार्यक्रम तैयार किए उनके पीछे उस आंदोलन की अनुगूँज भी थी। वैसी ही अनुगूँज अब तैयार होनी चाहिए।

अन्ना आंदोलन में सिटिजंस चार्टर एक महत्वपूर्ण माँग है। संयोग से यह अवधारणा उसी साल तैयार हुई जिस साल हमने आर्थिक उदारीकरण की शुरूआत की। ब्रिटिश प्रधानमंत्री जॉन मेजर ने पद सम्हालने के एक साल के भीतर ही इस कानून को पेश करके पीपुल्स फर्स्ट की इस अवधारणा को जन्म दिया था। इसके बाद बेल्जियम, मलेशिया, जमैका, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया, स्वीडन और स्पेन वगैरह में ऐसे कानून बने। हमारे देश में पिछले साल मध्य प्रदेश ने और इस साल बिहार और उत्तराखंड ने इस आशय के कानून बनाए हैं। इनके व्यावहारिक स्वरूप को शक्ल लेने में समय लगेगा। यह एक अवधारणा है जिसे लगातार मजबूत करने की ज़रूरत है।

प्रेमचंद की कहानियों से लेकर श्रीलाल शुक्ल के ‘राग दरबारी’ तक कोर्ट-कचहरी हमारे मन पर आतंक की तरह छाई हैं। महात्मा गांधी ने ‘हिन्द स्वराज’ में वकीलों को बड़ी समस्या माना है। न्याय के मंदिरों के बारे में हमारी ऐसी धारणा क्यों बनी? सरकार जिस न्यायिक जवाबदेही कानून को ला रही है वह मूलतः न्यायाधीशों के आचरण पर केन्द्रित है, जबकि समस्या भ्रष्टाचार की है। क्या इस कानून का फोकस सही है? न्यायपालिका की स्वतंत्रता और मर्यादा की रक्षा के लिए भी ज़रूरी है कि हम इस सवाल पर गम्भीर विमर्श करें। अभी हमें विमर्श और सर्वानुमतियों के अनेक रेगिस्तान पार करने हैं। चलते रहे तो पार कर लेंगे। संसद के सामने यह एक बेहद महत्वपूर्ण हफ्ता है। इसका सदुपयोग होना चाहिए।
जनवाणी में प्रकाशित

हिन्दू में केशव का कार्टून। सरकार काले धन को लेकर रक्षात्मक मुद्रा में क्यों है? 

1 comment:

  1. महत्वपूर्ण है कि सरकार अपनी जिम्मेदारी समझे। संसद ज्यादातर वक्त तो स्थगित ही रहता है। बचे समय में कुछ बहस हो जाएँ तो वह भी आरोप प्रत्यारोपों में बीत जाता है। ठोस हल निकलने की कोशिश न तो हुई ,न हो रही और न ही होने की संभावना है। हम उम्मीद छोडना नहीं चाहते लेकिन सवाल है कबतक?

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