Sunday, October 21, 2012

राष्ट्रगान के विश्व रिकॉर्ड

25 जनवरी 2012 औरंगाबाद

20 अक्टूबर 2012 लाहौर
केवल राष्ट्रगान गाने से काम चलता हो तो पाकिस्तान ने गिनीज़ बुक ऑफ रिकॉर्ड्स के अंतर्गत विश्व रिकॉर्ड कायम कर लिया है। शनिवार 20 अक्टूबर को लाहौर के नेशनल हॉकी स्टेडियम में 44,200 लोगों ने एक साथ खड़े होकर देश का राष्ट्रगान गाया। पाकिस्तान के लिए एक उपलब्धि यह भी थी कि उसने इस मामले में भारत का रिकॉर्ड तोड़ा था। 25 जनवरी 2012 को महाराष्ट्र के औरंगाबाद शहर के डिवीज़नल स्पोर्ट्स ग्राउंड में 15,243 लोगों ने एक साथ खड़े होकर वंदे मातरम गाया था। वह कार्यक्रम लोकमत मीडिया कम्पनी ने आयोजित किया था। उसके पहले 14 अगस्त 2011 को पाकिस्तान के कराची शहर में 5,857 लोगों ने एक साथ अपना राष्ट्रगान गाया था। इस रिकॉर्ड को कायम करने के लिए फेसबुक और ट्विटर की मदद ली गई थी।

शनिवार को लाहौर में कायम किए गए विश्व रिकॉर्ड में पाकिस्तान के पंजाब सूबे के मुख्यमंत्री शाहबाज़ शरीफ भी शामिल थे। राष्ट्रगान और समूहगान हमें एक जुट होने की प्रेरणा देते हैं। हाल में मलाला युसुफज़ई प्रकरण में पाकिस्तान की सिविल सोसायटी ने एकता का परिचय दिया था। इस एकता की दिशा बदहाली और बुराइयों से लड़ने की होनी चाहिए। हम होंगे कामयाब जैसे समूहगान चमत्कारी हो सकते हैं बशर्ते हमारी सामूहिक पहलकदमी में दम हो। सम्भव है कल भारत में कोई इससे भी बड़ी भीड़ से राष्ट्रगान गवाने में कामयाब हो जाए, पर असल बात भावना की है।

पाकिस्तान में 44,200 ने एक साथ गाया राष्ट्रगान

Friday, October 19, 2012

न्यूज़वीक का प्रिंट संस्करण बंद होगा

पिछले दो साल से लड़खड़ाती समाचार पत्रिका न्यूज़वीक आखिरकार प्रिंट मीडिया के एडवर्टाइज़िंग रेवेन्यू में लगातार गिरावट का शिकार हो गई। गुरुवार को घोषणा की गई कि इस साल के अंत तक या अगले साल के शुरू में इसके प्रिंट संस्करण का प्रकाशन बंद हो जाएगा। इसका ऑनलाइन रूप बना रहेगा, जो ऑनलाइन पत्रिका डेली बीस्ट के साथ इस समय भी चल रहा है। 

हाल के वर्षों में न्यूज़वीक पर सबसे बड़ा संकट  2010 में आया। तब उसे एक दानी किस्म के स्वामी ने खरीद लिया। इसे ख़रीदने वाले 91 साल के सिडनी हर्मन थे, जो ऑडियो उपकरणों की कंपनी हर्मन इंडस्ट्रीज़ के संस्थापक थे। वॉशिंगटन पोस्ट कम्पनी, जिसने न्यूज़वीक को बेचा, न्यूज़वीक’ अपने आप में और इसे खरीदने वाले सिडनी हर्मन तीनों किसी न किसी वजह से महत्वपूर्ण हैं। कैथरीन ग्राहम जैसी जुझारू मालकिन के परिवार के अलावा वॉशिंगटन पोस्ट के काफी शेयर बर्कशर हैथवे के पास हैं, जिसके स्वामी वॉरेन बफेट हैं।न्यूज़वीक को ख़रीदने की कोशिश करने वालों में न्यूयॉर्क डेली न्यूज़ के पूर्व प्रकाशक फ्रेड ड्रासनर और टीवी गाइड के मालिक ओपनगेट कैपिटल भी शामिल थे। पर सिडनी हर्मन ने 1 डॉलर में खरीदकर इसकी सारी देनदारी अपने ऊपर ले ली। 

Monday, October 15, 2012

टाइम्स ऑफ इंडिया का एई समय


 कुछ दिन पहले आनन्द बाज़ार पत्रिका ग्रुप ने कोलकाता से बांग्ला अखबार 'एबेला' यानी इस घड़ी  शुरू किया था। और अब दुर्गापूजा के उत्सव की शुरूआत यानी महालया के साथ टाइम्स ऑफ इंडिया ने 'एई समय' लांच किया है। दोनों में बुनियादी फर्क है। एबेला टेबलॉयड है और 'एई समय' ब्रॉडशीट अखबार है।

बांग्ला और हिन्दी समाज में भाषा का कितना फर्क है वह यहाँ देखा जा सकता है। कोलकाता के लिए आनन्द बाज़ार पत्रिका जीवन का एक हिस्सा है। उसके मुकाबले किसी गैर-बांग्ला समूह द्वारा बांग्ला अखबार निकालने की कोशिश अपने आप में दुस्साहस है। टाइम्स ऑफ इंडिया समूह ने चेन्नई में हिन्दू के मुकाबले अंग्रेजी अखबार निकाला था, पर कोलकाता में वह बांग्ला अखबार के साथ सामने आए हैं। एक ज़माने में टाइम्स हाउस ने कोलकाता से हिन्दी का नवभारत टाइम्स भी निकाला था, जो चला नहीं।

ऐसे जन सत्याग्रहों की हमें ज़रूरत है


मज़रूह सुलतानपुरी  की नज़्म है , 'मैं अकेला ही चला था जानिबे मंज़िल मगर, लोग साथ आते गए और कारवां बनता गया।' ( मूल आलेख में मैंने इसे मखदूम मोहियुद्दीन की  रचना लिखा था, जिसे अब मैंने सुधार दिया है। इसका संदर्भ कमेंट में देखें।)

हालांकि एकता परिषद की कहानी के पीछे वामपंथी जोश-खरोश नहीं है। और न इसकी कार्यशैली और नारे इंकलाबी हैं, पर यह संगठन रेखांकित करता है कि आधुनिक भारत का विकास गरीब-गुरबों, दलितों, आदिवासियों, खेत-मज़दूरों और छोटे किसानों के विकास के बगैर सम्भव नहीं है। और इनके अधिकारों की उपेक्षा करके बड़े औद्योगिक-आर्थिक विकास की कल्पना नहीं की जा सकती । पर इस विशाल जन-शक्ति का आवाज़ उठाने के लिए ज़रूरी नहीं है कि कड़वाहट भरा, तिक्त-शब्दावली से गुंथा-बुना सशस्त्र आंदोलन खड़ा किया जाए। इसके कार्यक्रम सुस्पष्ट हैं और इनमें नारेबाजी की जगह मर्यादा और अनुशासन है। इससे जुड़े लोगों ने पूरे देश में कई तरह की यात्राएं की है, जिससे इनका जुड़ाव सार्वदेशिक है। आप चाहें तो इसे राजनीतिक आंदोलन कह सकते हैं क्योंकि आखिरकार यह राजव्यवस्था और राजनीति से जुड़े महत्वपूर्ण सवाल उठाता है, पर सत्ता को सीधे अपने हाथ में लेने का प्रयास नहीं करता है। पिछले हफ्ते इसका  जन सत्याग्रह एक मोड़ पर आकर वापस हो गया। साथ में अनेक सवाल पीछे छोड़ गया। यह बात अलग है कि इसकी आवाज़ उतने ज़ोर से नहीं सुनी गई, जितने ज़ोर से कुछ दूसरे आंदोलनों की सुन ली जाती है। यह बात हमारे लोकतंत्र, सरकारी कार्य-प्रणाली और मीडिया की समझ को भी रोखांकित करती हैं।

पिछले साल जब अन्ना-आंदोलन की लाइव कवरेज मीडिया में हो रही थी, तब थोड़ी देर के लिए महसूस हुआ कि हमारा मीडिया अब राष्ट्रीय महत्व के सवालों को उठाना चाहता है। यह गलतफहमी जल्द दूर हो गई। पिछले हफ्ते 11 अक्टूबर को महानायक अमिताभ बच्चन के जन्मदिन की कवरेज देखने से लगा कि हमारी वरीयताएं बदली नहीं हैं। न जाने क्यों मीडिया की शब्दावली का ‘फटीग फैक्टर’ इन जन्मदिनों पर लागू नहीं होता? साँप-सपेरे, जादू-टोना, प्रिंस, मटुकनाथ, सचिन, धोनी, सहवाग से लेकर राहुल महाजन और राखी सावंत तक सारे प्रयोग करके देख लिए। पर मस्ती-मसाला को लेकर मीडिया थका नहीं। बहरहाल पिछली दो अक्टूबर को ग्वालियर से तकरीबन साठ हजार लोगों का एक विशाल मर्यादित जुलूस दिल्ली की ओर चला था। इसका नाम था जन सत्याग्रह 2012। उम्मीद थी कि इस बार मीडिया की नजरे इनायत इधर भी होगी। और सरकार ने इसी खतरे को भाँपते हुए समय रहते इसे टाल दिया। 

Friday, October 12, 2012

तोता राजनीति के मैंगो पीपुल

भारतीय राज-व्यवस्था के प्राण तोतों में बसने लगे हैं। एक तोता सीबीआई का है, जिसमें अनेक राजनेताओं के प्राण हैं। फिर मायावती, मुलायम सिंह, ममता और करुणानिधि के तोते हैं। उनमें यूपीए के प्राण बसते हैं। तू मेरे प्राण छोड़, मैं तेरे प्राण छोड़ूं का दौर है। ये सब तोते सात समंदर और सात पहाड़ों के पार सात परकोटों से घिरी मीनार की सातवीं मंजिल में सात राक्षसों के पहरे में रहते हैं। तोतों, पहाड़ों और राक्षसों की अनंत श्रृंखलाएं हैं, और राजकुमार लापता हैं। तिरछी गांधी टोपी सिर पर रखकर अरविन्द केजरीवाल दिल्ली में कटी बत्तियाँ जोड़ रहे हैं। हाल में उन्होंने गांधी के हिन्द स्वराज की तर्ज पर एक किताब लिखी है। टोपियाँ पहने  आठ-दस लोगों ने एक नई पार्टी बनाने की घोषणा की है। पिछले 65 साल में भारतीय राजनीति में तमाम प्रतीक और रूपक बदले पर टोपियों और तोतों के रूपक नहीं बदले। इस दौरान हमने अपनी संस्थाओं, व्यवस्थाओं और नेताओं की खिल्ली उड़ानी शुरू कर दी है। आम आदमी ‘मैंगो पीपुल’ में तब्दील हो गया है। संज़ीदगी की जगह घटिया कॉमेडी ने ले ली है।