Thursday, December 31, 2020

नेपाल का संकट क्या चीन के सीधे हस्तक्षेप से सुलझ पाएगा?

 


नेपाल में गत 20 दिसंबर को संसद हो जाने के बाद से असमंजस की स्थिति है। पिछले हफ्ते ऐसा लगा था कि चीन की कम्युनिस्ट पार्टी किसी प्रकार का हस्तक्षेप कर रही है। वहाँ से पार्टी की एक उच्च स्तरीय टीम नेपाल का दौरा करके वापस चली गई है, पर स्थितियाँ जस की तस हैं। चीनी प्रतिनिधिमंडल ने जानने का प्रयास किया कि क्या संसद की पुनर्स्थापना संभव है। यदि संभव नहीं है, तो क्या चुनाव उन तारीखों में हो सकेंगे, जिनकी घोषणा की गई है। बुधवार 30 दिसंबर को यह टीम वापस लौट गई।

सवाल है कि क्या इस राजनीतिक संकट का समाधान चीन कर पाएगा? इस बीच खबर है कि नेपाली विदेशमंत्री प्रदीप ग्यावली भारत और नेपाल के बीच बने संयुक्त आयोग की बैठक में भाग लेने के लिए जनवरी में भारत आएंगे। अभी इसकी तारीख तय नहीं है। यह यात्रा औपचारिक है, पर संभव है कि इस दौरान कुछ महत्वपूर्ण बातें हों।

नेपाल में तीन साल पहले ही नई सरकार का गठन हुआ था, ऐसे में कार्यकाल पूरा होने से पहले ही यह संसद भंग हो गई। सरकार के इस फैसले को देश के सुप्रीम कोर्ट में चुनौती भी दी गई है। सरकार की ओर से घोषित कार्यक्रम के अनुसार अब अप्रैल-मई 2021 में फिर चुनाव होंगे। नेपाल की राजनीति में इस समय तीन प्रमुख दल हैं। नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी, नेपाली कांग्रेस और जनता समाजबादी पार्टी।

कम्युनिस्ट एकता

जब दुनिया से साम्यवाद की विदाई हो रही थी, तब नेपाली राजनीति में कम्युनिज्म ताकतवर हो रहा था। यह चीन का प्रभाव है। पर यह साम्यवाद विचारधारा से ज्यादा चीनी प्रभाव से जुड़ा है। सन 2015 में नया संविधान बनने के पहले तक देश में एकीकृत मार्क्सवादी-लेनिनवादी पार्टी और माओवादी सेंटर दो कम्युनिस्ट पार्टियाँ थीं। सन 2018 में दोनों का विलय हो गया।

पुष्प कमल दहल प्रचंड गुट और केपी शर्मा ओली गुट ने साथ में आकर सरकार बनाई, लेकिन लगातार ओली पर एकतरफा सरकार चलाने का आरोप लगता रहा। दोनों पक्षों के बीच कई महीनों के तनाव के बाद नेपाल में चीन की राजदूत होऊ यांछी ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हुए ओली और प्रचंड के बीच बातचीत कराई थी।

संसद में कुल 275 सदस्य होते हैं। राष्ट्रपति कार्यालय की तरफ से दी गई जानकारी के मुताबिक 30 अप्रैल को पहले चरण के मतदान होंगे और दूसरे चरण का मतदान 10 मई को होगा। भारत और नेपाल के बीच पिछले कुछ वक्त से तनाव जारी था। पिछले कुछ महीनों से पार्टी दो खेमों में बंटी हुई है। एक खेमे की कमान 68 वर्षीय ओली के हाथ में है तो दूसरे खेमे का नेतृत्व पार्टी के कार्यकारी अध्यक्ष व पूर्व प्रधानमंत्री पुष्प दहल कमल 'प्रचंड' कर रहे हैं।

भारत की भूमिका

नवंबर के अंतिम सप्ताह में भारत के विदेश सचिव हर्षवर्धन श्रृंगला ने नेपाल का दौरा किया था। उस यात्रा के दो दिन बाद ही चीन के रक्षामंत्री का भी अचानक एक दौरा हुआ। नेपाल में हुए ताजा घटनाक्रम के बाद भारत का कोई बयान नहीं आया है। इसके विपरीत चीन खुलकर सामने आया है। रविवार 27 दिसंबर को चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के अंतरराष्ट्रीय विंग के उप-मंत्री गुओ येज़ोऊ उच्चस्तरीय टीम के साथ काठमांडू पहुँचे।

नेपाल के लेखक कनक मणि दीक्षित ने ट्वीट कर चीनी कम्युनिस्ट पार्टी की उच्चस्तरीय टीम के आने की आलोचना की है। उन्होंने अपने ट्वीट में लिखा है, ''यह सरासर ग़लत है। चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के उप-मंत्री गोउ येज़ोउ के नेपाल आने को लेकर ऐसा लग रहा है कि उन्हें प्रचंड ने आमंत्रित किया है। जब सुप्रीम कोर्ट पूरे विवाद पर सुनवाई कर रहा है ऐसे में इस तरह का दौरा निराश करने वाला है।''

भारतीय अखबार हिन्दू से नेपाली कम्युनिस्ट पार्टी के अंतरराष्ट्रीय मामलों के उप-प्रमुख राम कार्की ने कहा, ''हम लोगों के बीच भाईचारे का रिश्ता न केवल कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ चाइना से है बल्कि भारत और बांग्लादेश की वामपंथी पार्टियों से भी है। हम लोगों के बीच आपसी बातचीत होती रहती है। यह एक रूटीन दौरा है। हमारे प्रतिनिधिमंडल का आना जाना लगा रहता है।'' उन्होंने कहा कि पार्टी में विभाजन को लेकर ओली को अहसास होगा कि उन्होंने गलती की थी। वे कम्युनिस्ट एजेंडा चलाने के बजाय नव उदारवाद की राह पर बढ़ रहे हैं।

कम्युनिस्ट एकता के अंतर्विरोध

भारत की वरिष्ठ पत्रकार अदिति फडणीस ने बिजनेस स्टैंडर्ड में लिखा है कि प्रबंधन से जुड़ी नियमावलियां कहती हैं कि विलय और अधिग्रहण को कभी हल्के में नहीं लिया जाना चाहिए। प्रबंधन के नियम चेतावनी देते हैं कि बिना स्पष्ट नीति, प्रभावी परियोजना प्रबंधन और अंशधारक समूहों के बीच मुक्त संवाद के, विलय या अधिग्रहण शायद वांछित परिणाम न दे सके। इसमें विफलता की दर 90 फीसदी है। नेपाल की कम्युनिस्ट पार्टी (एकीकृत माओवादी लेनिनवादी) तथा नेपाल की कम्युनिस्ट पार्टी (माओइस्ट सेंटर) का दो वर्ष पहले हुआ विलय 90 फीसदी की श्रेणी में आता है।

ऐसा बहुत कम ही होता है जब सदन में दो तिहाई बहुमत वाले प्रधानमंत्री सदन को भंग कर नए चुनावों की अनुशंसा करते हों। नेपाल के प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली के समर्थकों का कहना है कि उन्हें ऐसा करना पड़ा। विलय की गई पार्टी के कार्यकारी अध्यक्ष पुष्प कमल दहल के अनुयायियों का कहना है कि ओली सत्ता पाकर अंधे हो गए थे और उन्हें लग रहा था कि उन्होंने अकेले ही पार्टी को जीत दिलाई है और इसमें किसी और की कोई भूमिका नहीं थी। सच्चाई शायद इन दोनों बातों के बीच में है।

 सन 2018 में जब दोनों दलों का विलय हुआ तब यह समझौता हुआ था कि ओली और दहल दोनों ढाई-ढाई साल के लिए प्रधानमंत्री बनेंगे। इस वर्ष के आरंभ में जब ओली के सत्ता छोड़ने का वक्त आया तब उन्होंने इससे इनकार कर दिया और किसी और के बजाय स्वयं प्रधानमंत्री बने रहने का निर्णय लिया। इसके लिए उन्हें एक मुद्दे की आवश्यकता थी। भारत ने उन्हें उस समय मुद्दा दे दिया जब रक्षामंत्री राजनाथ सिंह ने लिपुलेख तक जाने वाली एक सड़क का लोकार्पण करके क्षेत्रीय विवाद को जन्म दे दिया। यह दिलचस्प था।

ओली की गलतियाँ

नेपाली राष्ट्रवाद वर्गहीन समाज के लक्ष्य को हाशिए पर धकेल रहा था और इसके साथ ही रास्ते में आने वाली हर चीज को भी। भारत देखता रहा और ओली गलती पर गलती करते गए। पहले उन्होंने दावा किया कि राम का जन्मस्थान दरअसल नेपाल के बीरगंज स्थित अयोध्या में है। इसके बाद उन्होंने संसद से नेपाल का एक नया मानचित्र जारी कराया जिसमें विवादित इलाकों को नेपाल का हिस्सा बताया गया। धीरे-धीरे भारत के लिए ओली की हरकतों को स्वीकार करना मुश्किल से मुश्किल होता गया।

ओली के लिए एक समस्या थी। पार्टी की लगाम अभी भी प्रचंड के हाथ में थी। इसके अलावा अन्य सहयोगी मसलन पूर्व प्रधानमंत्री माधव नेपाल और झालानाथ खनाल भी अपनी चाल चल रहे थे। राष्ट्रपति विद्या देवी भंडारी ने शांति स्थापना के लिए दखल दिया और दोनों समूहों के समायोजन के लिए नए संस्थान बनाए। ऐसा अंतिम प्रयास नवंबर 2019 में किया गया लेकिन कामयाबी नहीं हाथ लगी। ओली ने उन्हें निष्क्रिय करने का प्रयास और वह चीन की ओर झुके।

ओली में चीन की कम्युनिस्ट पार्टी (सीसीपी) को एक उपयोगी सहयोगी और अधीन रहने वाला मिल गया। उनके कार्यकाल के दौरान सीसीपी और नेपाल की कम्युनिस्ट पार्टी ने अपने रिश्तों को संस्थागत स्वरूप प्रदान किया। राजनीतिक और सैन्य प्रतिनिधिमंडल एक दूसरे के साथ कार्यक्रमों का आदान प्रदान बढ़ा रहे हैं और गत वर्ष हवाई मार्ग से नेपाल आने वाले चीनी पर्यटकों ने विमान से नेपाल पहुंचने वाले भारतीय पर्यटकों को भी पछाड़ दिया।

नेपाल का राष्ट्रीय भय

 राष्ट्रपति शी चिनफिंग ने हाल ही में नेपाल की राष्ट्रपति विद्या देवी भंडारी से बात की और विदेश मंत्री वांग यी ने महामारी के प्रबंधन को लेकर नेपाल के साथ दो आभासी बैठक कीं। नेपाल को दी जाने वाली सहायता और निवेश के मामले में भी भारत को चीन पीछे छोड़ चुका है। परंतु नेपाल में एक किस्म का राष्ट्रीय भय है कि उसे खरीद लिया जाएगा और उसे अपनी संप्रभुता त्यागने के लिए मजबूर किया जाएगा। नेपाल एक ऐसा देश है जिसे कोई साम्राज्यवादी ताकत अपना उपनिवेश नहीं बना सकी। प्रचंड का पार्टी के बड़े हिस्से पर दबदबा है (और शायद भारत से भी उन्हें कुछ रचनात्मक सहयोग हासिल है)। उन्होंने 170 में से 91 सांसदों के समर्थन के साथ संसद में अविश्वास प्रस्ताव लाने और ओली की जगह स्वयं को बतौर प्रधानमंत्री और संसदीय दल के नए नेता के रूप में पेश करने की धमकी दी।

यह हो पाता उससे पहले ही ओली ने संसद भंग कर दी और नए चुनावों की घोषणा कर दी। हालांकि नेपाल के संविधान में इसका कोई प्रावधान नहीं है। नेपाल के महाराजा द्वारा संसद भंग करने की सामूहिक राष्ट्रीय स्मृति ने संविधान निर्माताओं को मजबूर किया होगा कि वे ऐसे प्रावधान करें ताकि कोई सांविधानिक तख़्तापलट न हो और वैध तरीके से निर्वाचित सरकार को पद से न हटाया जाए। परंतु ओली ने एकदम यही किया है।

बतौर प्रधानमंत्री अपने कार्यकाल के दौरान ओली ने कई को नाराज किया लेकिन उन्होंने कई लोगों को उपकृत भी किया। अभी यह निर्णय भी होना है कि नेपाल की असली कम्युनिस्ट पार्टी कौन सी है। पार्टी में विभाजन अब बस औपचारिक रह गया है। चूंकि भारत और चीन दोनों की नेपाल में गहरी रुचि है इसलिए अब उसके वही बनने का खतरा उत्पन्न हो गया है जो वह कभी नहीं बनना चाहता था: एक नाकाम विलय के बाद एक ऐसा लोकतंत्र बनना जो दूसरों से निर्देशित हो।

 

1 comment:


  1. नववर्ष की हार्दिक शुभकामनायें....

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