Tuesday, December 8, 2020

पंजाब की ग्रामीण संरचना पर भी नजर डालिए

 


दिल्ली में चल रहे किसान आंदोलन ने अंततः राजनीतिक शक्ल अख्तियार कर ली है। इसमें किसी को आपत्ति नहीं होनी चाहिए। हमारे देश में खेती-किसानी से बड़ा राजनीतिक मुद्दा है भी नहीं। इससे राजनीति को अलग नहीं कर सकते। शायद ही कोई चुनाव जाता होगा, जिसमें किसानों का राजनीतिक दलों के घोषणापत्रों में उल्लेख नहीं होता हो। दिल्ली में चल रहे किसान आंदोलन में सबसे ज्यादा किसान पंजाब और हरियाणा से आए हैं। इनमें उत्तर प्रदेश, राजस्थान, मध्य प्रदेश और कुछ दूसरे राज्यों के किसान भी हैं, पर सबसे ज्यादा पंजाब और हरियाणा से हैं। अलबत्ता इसमें देशभर के किसान संगठन जुड़े हैं।

इस आंदोलन को लेकर कई तरह की बातें हैं। इसमें आए लोगों की कारों के मॉडलों और जींस पहने नौजवानों तथा अंग्रेजी बोलने वालों का जिक्र भी हो रहा है। इन बातों का कोई मतलब नहीं है। अलबत्ता यह सवाल जरूर है कि इसमें सबसे ज्यादा लोग पंजाब-हरियाणा से ही क्यों आए हैं और बाकी राज्यों में यह बड़ा आंदोलन क्यों नहीं है? सवाल यह भी है कि उत्तर प्रदेश और हरियाणा की भाजपा सरकारों ने आंदोलन का समर्थन नहीं किया है, पर पंजाब सरकार आंदोलन की समर्थक है। दिल्ली की आम आदमी पार्टी सरकार ने भी आंदोलन का समर्थन किया है। जाहिर है कि बड़ा कारण पंजाब की राजनीति है। इस राजनीति की ध्वनि आपको ऑस्ट्रेलिया, कनाडा और ब्रिटेन से भी सुनाई पड़ रही है, तो उसके पीछे के कारणों को भी समझना होगा।

पंजाब में कांग्रेस, अकाली दल और आम आदमी पार्टी तीनों किसी न किसी रूप में गाँव की राजनीति करना चाहते हैं। पर पंजाब के गाँवों में जबर्दस्त अंतर्विरोध हैं। पंजाब में बड़े किसानों का वर्चस्व है, पर गाँवों में बहुत बड़ी आबादी भूमिहीनों या बटाई पर खेती करने वालों की है। असमानता के गिनी इंडेक्स पर देखेंगे, तो पंजाब में संभवतः सबसे ज्यादा असमानता है। यहाँ आर्थिक के अलावा सामाजिक असमानता सबसे ज्यादा है। राज्य की आबादी में 32 फीसदी दलित हैं। यह प्रतिशत गाँवों में 38 फीसदी है। इतनी बड़ी संख्या में भूमिहीन जब इस राज्य में हैं, तब यहाँ बिहार और उत्तर प्रदेश से खेत मजदूर क्यों आते हैं? इसकी एक वजह यह है कि यहाँ के खेत-मजदूर महंगे पड़ते हैं।

यहाँ के ज्यादातर दलित भूमिहीन मजदूर खेती से जुड़े उद्योगों या सहायक कारोबारों में काम करते हैं। उनके हित जाट भूस्वामियों से टकराते हैं। कम जोत वाले किसानों की जमीन धीरे-धीरे बड़े किसानों के पास पहुँचती जा रही है। दलितों के अलग धर्मस्थल और डेरे हैं। जिस तरह उत्तर प्रदेश और बिहार की जातीय संरचना ने राजनीति को प्रभावित किया है, वैसे ही पंजाब की जातीय संरचना उसे प्रभावित कर रही है और आने वाले समय में और ज्यादा करेगी।

क्या वास्तव में पंजाब के किसानों का राजनीतिक रसूख बहुत ज्यादा है? क्या बीजेपी को इस बात की समझ नहीं है? ऐसे सवालों के जवाब खोजने के पहले देखना होगा कि इस आंदोलन की ताकत क्या है, कौन से किसान संगठन इसके पीछे हैं, उनके सवाल क्या हैं और यह कहाँ तक चलेगा? और यह भी कि पंजाब की भूमिका क्या इसमें विशेष है? वहाँ के किसान किस तरह अपनी विशेष स्थिति को बनाए रखना चाहते हैं?

यह आंदोलन संयुक्त किसान मोर्चा के झंडे तले चल रहा है, जिसके पीछे अनेक संगठन खड़े हैं। इनमें वीएम सिंह के नेतृत्व वाला राष्ट्रीय किसान मज़दूर संगठन, अवीक साहा और डॉ आशीष मित्तल का जय किसान आंदोलन, वी वेंकटरमैया का ऑल इंडिया किसान मजदूर सभा, डॉ अशोक धवल, हनन मुल्ला, अतुल कुमार अनजान और भूपेंदर सांबर के नेतृत्व वाली ऑल इंडिया किसान सभा, डॉ दर्शन पॉल के नेतृत्व में क्रांतिकारी किसान यूनियन, जगमोहन सिंह के नेतृत्व में भारतीय किसान यूनियन (दकौंडा), कविता कुरुगंटी और किरण विस्सा का आशा (ASHA) किसान स्वराज, कोडिहल्ली चंद्रशेखर के नेतृत्व वाला कर्नाटक राज्य रैयत संघ, मेधा पाटकर के नेतृत्व में नेशनल एलायंस फॉर पीपुल्स मूवमेंट, प्रतिभा शिंदे के नेतृत्व में लोक संघर्ष मोर्चा, राजाराम सिंह और प्रेम सिंह गहलावत के नेतृत्व में ऑल इंडिया किसान महासभा, राजू शेट्टी के नेतृत्व में स्वाभिमानी शेतकरी संघटना, रिचा सिंह के नेतृत्व में संगतिन किसान मजदूर संगठन, सतनाम सिंह अजनाला के नेतृत्व में जम्हूरी किसान सभा, सत्यवान के नेतृत्व में ऑल इंडिया किसान खेत मजदूर संगठन, डॉ सुनीलम के नेतृत्व में किसान संघर्ष समिति, तजिंदर सिंह विर्क के नेतृत्व में तराई किसान सभा और योगेंद्र यादव के नेतृत्व में जय किसान आंदोलन शामिल हैं। इनके अलावा बलबीर सिंह राजेवाल के नेतृत्व में बीकेयू (राजेवाल), गुरनाम सिंह चढूनी के नेतृत्व में बीकेयू (चढूनी), रामपाल चहल के नेतृत्व में गन्ना संघर्ष समिति, भादसों, विनोद राणा के नेतृत्व में गन्ना संघर्ष समिति शहजादपुर, सत्यवान दनोडा के नेतृत्व में किसान संघर्ष समिति, जोगिंदर सिंह उगराहां के नेतृत्व में बीकेयू (उगराहां) तथा बीकेयू के दूसरे धड़ों के अलावा राष्ट्रीय किसान महासंघ भी हैं।

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