Tuesday, October 22, 2019

अयोध्या पर क्यों न हम सकारात्मक रूप से सोचें?


दुर्भाग्य है कि पिछले 27 साल से हमारे सामाजिक जीवन में कुछ लोग 6 दिसम्बर को ‘शौर्य दिवस’ मनाते हैं और कुछ ‘यौमे ग़म.’ एक गहरा सामाजिक विभाजन एक घटना के कारण हमारे जीवन में पैदा हो गया है. अयोध्या में राम जन्मभूमि को लेकर सुप्रीम कोर्ट का फैसला इस साल 6 दिसंबर के पहले ही आ जाएगा. इस फैसले को लेकर कई तरह के कयास हैं. क्या अदालत इसे केवल स्वामित्व के रूप में देखेगी? क्या वह आस्था के सवाल पर फैसला करेगी? क्या उसपर जनमत का दबाव होगा? ऐसे बीसियों सवाल हैं. उम्मीदें भी हैं और अंदेशे भी. बेहतर यही होगा कि हम उम्मीद करें कि फैसला ऐसा होगा कि सभी पक्ष इसे स्वीकार करेंगे और हम इस साल से इस फैसले की तारीख को ‘राष्ट्र निर्माण दिवस’ के रूप में मनाना शुरू करेंगे.
इस मामले की सुनवाई के आखिरी दिन तक और अब भी यह सवाल हमारे मन में है कि क्या इसका निपटारा आपसी समझौते से संभव नहीं था? क्या अब भी यह संभव नहीं है? दुर्भाग्य से ऐसा संभव नहीं हुआ. संभव था, तो अबतक हो चुका होता. अब मनाना चाहिए कि यह निपटारा सामाजिक बदमज़गी पैदा न करे. इलाहाबाद हाईकोर्ट के एक फैसले को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर सुप्रीम कोर्ट में 40 दिन की लगातार सुनवाई के दौरान यह बदमज़गी भी किसी न किसी रूप में व्यक्त हुई थी. सुनवाई के आखिरी दिन भी कुछ ऐसे प्रसंग आए, जिनसे लगा कि कड़वाहट कहीं न कहीं बैठी है और बहुत गहराई से बैठी है.

अदालत के सामने मध्यस्थता समिति की एक रिपोर्ट भी है. इस समिति का गठन भी अदालत ने ही किया था. अदालत के सामने सभी पक्षों ने अपने कड़वे-मीठे दृष्टिकोण रखे. आपसी सहमति से निपटाने की कोशिशें भी हुईं. अदालत की सुनवाई के आखिरी दौर में एक खबर आई कि एक महत्वपूर्ण मुस्लिम पक्षकार ने कहा है कि व्यापक सामाजिक हित में हम इस जमीन पर दावा छोड़ने को तैयार हैं. यह खबर जितनी तेजी से आई उतनी ही तेजी से इसका खंडन भी हो गया. बेशक इसकी कोशिश भी है, पर यह पूरे मुस्लिम पक्ष की राय नहीं है. सुनवाई पूरी होने के बाद शुक्रवार को सुप्रीम कोर्ट के पाँच वकीलों ने एक संयुक्त बयान जारी करके कहा कि मुस्लिम पक्ष की ओर से ऐसा कोई प्रस्ताव नहीं है.
सन 2010 में इलाहाबाद हाईकोर्ट ने अपने फैसले में जन्मभूमि का स्वामित्व तीन दावेदारों के बीच विभाजित किया था. इनमें रामलला विराजमान, निर्मोही अखाड़ा और मुस्लिम पक्ष का प्रतिनिधि सुन्नी वक्फ बोर्ड है. सुप्रीम कोर्ट के फैसले में बुनियादी तौर पर हाईकोर्ट के फैसले का ही संदर्भ होगा. हाईकोर्ट ने इसके लिए भूमि के स्वामित्व को आधार बनाया है. उच्चतम न्यायालय इस फैसले को स्वीकार कर सकता है, संशोधन कर सकता है या उसे नामंजूर भी कर सकता है. तीनों बातों के अलग-अलग निहितार्थ हैं.
पिछले बुधवार को जब इस मुक़दमे की सुनवाई पूरी हुई, तो यह जानकारी भी सामने आई कि सुप्रीम कोर्ट के इतिहास में ये दूसरी सबसे लंबे समय तक चली सुनवाई थी. इससे पहले, केशवानंद भारती केस की सुनवाई सुप्रीम कोर्ट ने 68 दिनों तक की थी. यह बात निर्विवाद रूप से कही जा सकती है कि देश की जनता का खामोश बहुमत इस मामले का शांतिपूर्ण समाधान चाहता है. कोई नहीं चाहता कि इसे लेकर गैर-जरूरी कड़वाहट पैदा हो.
चूंकि चीफ़ जस्टिस रंजन गोगोई 17 नवंबर को सेवानिवृत्त हो रहे हैं, इसलिए माना जा रहा है कि फ़ैसला नवंबर तक आ जाएगा. जस्टिस गोगोई को इस बात का श्रेय दिया जाना चाहिए कि उन्होंने सुनवाई की जो समय सीमा रखी थी, वे उस पर दृढ़ रहे. पर यह फैसला करना आसान नहीं होगा. पिछले तीन दशक से ज्यादा समय से इस मामले के समांतर राष्ट्रीय राजनीति चल रही है. इसलिए इसकी संवेदनशीलता को हमें समझना चाहिए. सन 1989 में एक बार लगा था आम सहमति से समझौता हो जाएगा. ऐसा हुआ होता तो बाबरी विध्वंस की घटना नहीं होती और उससे जुड़े न जाने कितने फसाद नहीं हुए होते.
फिर 1993 में केन्द्र सरकार ने इस जमीन का अधिग्रहण किया, तब लगा कि शायद कोई समाधान सामने आए. पीवी नरसिंहराव सरकार ने अनुच्छेद 143 के तहत सुप्रीम कोर्ट से भी इस मसले पर सलाह मांगी, लेकिन तब अदालत ने राय देने से मना कर दिया. अब उसे ही इसका फैसला करना है. अलबत्ता यह फैसला इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले के आधार पर होगा.
मार्च 2017 में सुप्रीम कोर्ट के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश जस्टिस जगदीश सिंह खेहर ने कहा था कि इस मामले को आपसी बातचीत से सुलझाना चाहिए. ज़रूरत पड़ने पर सुप्रीम कोर्ट के जज भी मध्यस्थता करने के लिए तैयार हैं. 1853 में पहली बार इस जमीन को लेकर दोनों संप्रदायों में विवाद हुआ. पिछले डेढ़ सौ साल से ज्यादा समय में कम से कम नौ बड़ी कोशिशें समस्या के समाधान की हो चुकी हैं. सभी में विफलता मिली है, पर एक अनुभव यह भी मिला है कि इस समझौते को कोई वैधानिक रूप दिए बगैर समाधान सम्भव नहीं ह. हमारी सर्वोच्च अदालत सीधे हस्तक्षेप से बचती रही है, पर लगता है कि इसका समाधान उसे ही करना है. वह घड़ी अब आ पहुँची है.
इकबाल की एक नज्म की कुछ पंक्तियाँ हैं, ‘इस देस में हुए हैं हज़ारों मलक-ए-सरश्त/ मशहूर जिनके दम से है दुनिया में नाम-ए-हिन्द/ है राम के वजूद पे हिन्दोस्तां को नाज़/ अहले-नज़र समझते हैं उस को इमाम-ए-हिन्द.’ हमारे पूर्वजों में हज़ारों नाम ऐसे हैं, जिनके सहारे भारत का दुनिया भर में नाम है. राम के अस्तित्व पर संपूर्ण भारत गर्व है और विद्वान उनको 'इमाम-ए-हिन्द' कहते हैं. उम्मीद है कि यह भावना आज भी कायम है और हम इस फैसले को सकारात्मक रूप से देखेंगे.  























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