इस साल हुए लोकसभा चुनाव के बाद के राजनीतिक परिदृश्य का
पता इस महीने हो रहे महाराष्ट्र और हरियाणा विधानसभा के चुनावों से लगेगा। दोनों
राज्यों में सभी सीटों पर प्रत्याशियों के नाम तय हो चुके हैं, नामांकन हो चुके
हैं और अब नाम वापसी के लिए एक दिन बचा है। दोनों ही राज्यों में एक तरफ भारतीय
जनता पार्टी के बढ़ते हौसलों की और दूसरी तरफ कांग्रेस के अस्तित्व-रक्षा से जुड़े
सवालों की परीक्षा है। एक प्रकार से अगले पाँच वर्षों की राजनीति का यह
प्रस्थान-बिंदु है।
कांग्रेस के अस्तित्व को बनाए रखने के लिए कहीं न कहीं अपने
पैर जमाने होंगे। ये दोनों राज्य कुछ साल पहले तक कांग्रेस के गढ़ हुआ करते थे। अब
दोनों राज्यों में उसे अपने अस्तित्व को कायम रखने के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है।
इन चुनावों में उसकी संगठनात्मक सामर्थ्य के अलावा वैचारिक आधार की परीक्षा भी है।
पार्टी कौन से नए नारों को लेकर आने वाली है? क्या वह लोकसभा
चुनाव में अपनाई गई और उससे पहले मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ के विधानसभा
चुनावों में तैयार की गई रणनीति को दोहराएगी?
यह रणनीति मूल रूप से एंटी इनकंबैंसी पर आधारित थी।
महाराष्ट्र और हरियाणा दोनों राज्यों में भाजपा-नीत सरकारें रहीं हैं। क्या इस
वक्त दोनों राज्यों में एंटी इनकंबैंसी के मुहावरे काम करेंगे? क्या इन राज्यों में सफल होने वाली सोशल इंजीनियरी उसके पास है? ज्यादा बड़े सवाल देश की दीर्घकालीन राजनीति से जुड़े हैं। इन दो चुनावों के
बाद अगले कुछ महीनों के भीतर झारखंड और दिल्ली विधानसभा के चुनाव होंगे। जम्मू
कश्मीर में भी होने हैं, पर फिलहाल वहाँ की स्थितियों पर काफी कुछ निर्भर करेगा।
अगले साल नवंबर में बिहार विधानसभा के चुनाव देश की भावी
राजनीति के लिहाज से काफी महत्वपूर्ण साबित होंगे। बीजेपी के खिलाफ महागठबंधन का
विचार सन 2015 के बिहार विधानसभा चुनाव से ही जन्मा था। क्या बिहार के पास अब भी
कोई फॉर्मूला बचा है? इसके बाद 20 21 में बंगाल,
तमिलनाडु और केरल के विधानसभा चुनावों में बीजेपी की रणनीति की परीक्षा होगी। बीजेपी
को अपनी राष्ट्रीय विस्तार के लिए इन तीनों राज्यों में अपनी स्थिति सुधारनी होगी।
बंगाल में वह प्रवेश कर ही चुकी है।
हरियाणा में कांग्रेस अपनी स्थिति सुधारना चाहती है, पर वह
आंतरिक कलह की शिकार रही है। यह उसके कमजोर नेतृत्व की निशानी है। महाराष्ट्र में
भी उसके सामने आंतरिक अनुशासन से जुड़े सवाल हैं। पर सबसे बड़ा सवाल केंद्रीय
नेतृत्व को लेकर है। पार्टी ने फौरी तौर पर सोनिया गांधी को फिर से कमान सौंपी है,
पर उसकी दीर्घकालीन रणनीति अब भी स्पष्ट नहीं है। उसके तौर-तरीकों को देखने से
लगता नहीं कि वह इस बात को लेकर परेशान है। कांग्रेस को हर हाल में और पूरी शिद्दत
के साथ अपने नए नेतृत्व को तैयार करना चाहिए। ऐसा नहीं होने पर 2024 में उसका पता
भी नहीं लगेगा।
लोकसभा चुनाव में
मिली भारी पराजय के बाद कांग्रेस पार्टी को संभलने का मौका भी नहीं मिला था कि
कर्नाटक और तेलंगाना में बगावत हो गई। राहुल गांधी के इस्तीफे के कारण पार्टी के
सामने केंद्रीय नेतृत्व और संगठन को फिर से खड़ा करने की चुनौती है, पर आगाज़
अच्छा नहीं है। महाराष्ट्र में संजय निरुपम और हरियाणा में अशोक तँवर की बगावत ‘प्रथम ग्रासे मक्षिका पातः’ की कहावत को दोहरा रही है। उधर रायबरेली की
कांग्रेस विधायक अदिति सिंह ने बगावत का बिगुल बजाकर आने वाले समय का संकेत दे
दिया है।
जम्मू कश्मीर में अनुच्छेद 370 के निष्प्रभावी होने के बाद पार्टी के अनेक
वरिष्ठ नेताओं ने अपनी खुली राय व्यक्त करके यह संकेत भी दिया है कि पार्टी के
नैरेटिव में बदलाव होना चाहिए। बहरहाल 21 को होने वाले चुनाव पर नजर डालें, तो
लगता नहीं कि पार्टी जीतने के इरादे से मैदान में उतरी है। फिलहाल लगता है कि वह
किसी तरह अपनी जमीन बचाना चाहती है।
महाराष्ट्र में संजय निरुपम भले ही बहुत बड़ा खतरा साबित न हों, पर हरियाणा
में पहले से ही आंतरिक कलह के कारण लड़खड़ाती कांग्रेस के लिए अच्छे समाचार नहीं
हैं। संजय निरुपम और अशोक तँवर दोनों का कहना है कि पार्टी के वफादार कार्यकर्ताओं
की उपेक्षा हो रही है। दोनों की बातों से लगता है कि राहुल गांधी के वफादारों की
अनदेखी की जा रही है। यह बात भले ही सही न हो, पर इतना जाहिर है कि पार्टी के भीतर
कई प्रकार के समूह हैं, जिनकी पहुँच शीर्ष नेतृत्व तक है। वे अपनी पहुँच का लाभ
उठाते हैं। यह आपसी खींचतान कमजोर नेतृत्व की निशानी है।
कुछ समय पहले लगता था कि हरियाणा में अशोक तँवर की चल रही है और अगस्त के
तीसरे हफ्ते तक खबरें थीं कि भूपेंद्र सिंह हुड्डा कांग्रेस का साथ छोड़कर एक नई
पार्टी बनाएंगे। पर सोनिया गांधी से हुड्डा की मुलाकात के बाद कहानी बदल गई। हाईकमान
पर उनके बागी तेवरों का असर हुआ या उनके अनुभव ने काम किया, परिणाम यह हुआ कि तँवर
किनारे लगा दिए गए। नेतृत्व ताकतवर होता, तो बगावत का मौका नहीं आता। अपने लोगों
को एकजुट रखने का तिलस्म पार्टी के पास नहीं रहा।
चुनाव के तीन सप्ताह पहले ऐसी बातें निश्चित रूप से पार्टी के लिए खराब संकेत
है। उधर संजय निरुपम ने
प्रचार करने से इनकार कर दिया है। उन्होंने ट्वीट किया, 'मैंने विधानसभा चुनाव के
लिए मुंबई में सिर्फ एक सीट मांगी थी, वह भी नहीं दी गई।' पहले संजय और तँवर दोनों
ने पार्टी छोड़ने की धमकी नहीं दी थी, पर शनिवार को तँवर ने पार्टी छोड़ने की
घोषणा भी कर दी। संजय निरूपम ने संकेत दिया है कि हालात ऐसे ही रहे, तो पार्टी डूब
जाएगी।
उत्तर प्रदेश में
बीजेपी के विरोधी दलों ने विधानसभा के 36 घंटे के विशेष सत्र का बहिष्कार करके
अपनी उस गलती को दोहराया है, जिसके कारण वे असंगत और अप्रासंगिक होते जा रहे हैं।
महात्मा गांधी की 150वीं वर्षगाँठ पर बुलाए गए इस सत्र में शामिल होकर वे जितनी
बातें कह सकते थे, उतनी बातें वे बाहर रहकर नहीं कह पाए। कांग्रेस की विधायक अदिति
सिंह ने बगावती तेवर अपनाकर पार्टी को झटका अलग से दे दिया है। अदिति सिंह युवा
नेता हैं और संयोग नहीं कि कांग्रेस के युवा नेता इन दिनों बगावती मुद्रा में हैं।
कांग्रेस अभी दुविधा की हालत में है , युवा एवं बुजुर्ग नेताओं का पारस्परिक संघर्ष उसे किसी एक दिशा को तय नहीं करने दे रहा है , अदिति सिंह को एक तरफ नोटिस दिया जा रहा है तो आज के समाचार पत्र में उन्हें स्टार प्रचारक नियुक्त करने के भी समाचार हैं ,सोनिया, राहुल,व प्रियंका के खेमे अलग अलग नजर लगते हैं , इन्हें निम्न नेताओं ने बना दिया है , पार्टी की जान कार्यकर्त्ता होते हैं , और यदि वे बनते हुए हैं तो सफलता की क्या उम्मीद की जा सकती है , चाहे किसी भी स्टेट का चुनाव क्यों न हो , फिलहाल तो हरयाणा और महाराष्ट्र दोनों में ही कांग्रेस की वापसी के आसार नजर नहीं आ रहे , अगले १५ दिनों में कोई चमत्कार हो जाए तो दीगर बायत है , दिल्ली में भी ऐसा होने की पूर्ण सम्भावना है
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