लोकसभा चुनाव में
मिली भारी पराजय के बाद कांग्रेस पार्टी को संभलने का मौका भी नहीं मिला था कि
कर्नाटक और तेलंगाना में बगावत हो गई। राहुल गांधी के इस्तीफे के कारण पार्टी के
सामने केंद्रीय नेतृत्व और संगठन को फिर से खड़ा करने की चुनौती है। फिलहाल सोनिया
गांधी को फिर से सामने लाने के अलावा पार्टी के पास कोई विकल्प नहीं था। अब पहले
महाराष्ट्र और हरियाणा और उसके बाद झारखंड और फिर दिल्ली में विधानसभा चुनावों की
चुनौती है। इनका आगाज़ भी अच्छा होता नजर नहीं आ रहा है।
महाराष्ट्र में
संजय निरुपम और हरियाणा में अशोक तँवर के बगावती तेवर ‘प्रथम ग्रासे मक्षिका पातः’ की कहावत को दोहरा रहे
हैं। महाराष्ट्र में संजय निरुपम भले ही बहुत बड़ा खतरा साबित न हों, पर हरियाणा
में पहले से ही आंतरिक कलह के कारण लड़खड़ाती कांग्रेस के लिए यह अशुभ समाचार है। संजय
और अशोक दोनों का कहना है कि पार्टी के वफादार कार्यकर्ताओं की उपेक्षा हो रही है।
दोनों की बातों से लगता है कि पार्टी में राहुल गांधी के वफादारों की अनदेखी की जा
रही है।
कुछ समय पहले लगता था कि हरियाणा में अशोक तँवर की बातें सुनी जाएंगी। इस वजह
से अगस्त के तीसरे हफ्ते खबरें थीं कि भूपेंद्र सिंह हुड्डा कांग्रेस का साथ
छोड़कर एक नई पार्टी बनाएंगे। पर पिछले महीने सोनिया गांधी से हुड्डा की मुलाकात
के बाद यह तय हो गया था कि पार्टी अध्यक्ष चाहे कोई भी हो, चाबी हुड्डा के पास ही
रहेगी। यानी टिकट उनके इशारे पर ही दिए जाएंगे। हाईकमान पर उनके बागी तेवरों का
असर इतना ज्यादा हुआ कि पार्टी के अशोक तँवर किनारे लगा दिए गए।
पिछले महीने ही तँवर के स्थान पर कुमारी शैलजा को पार्टी अध्यक्ष बना दिया गया।
भूपेंद्र सिंह हुड्डा अब चुनाव संचालन कर रहे हैं। टिकट उनके इशारे पर दिए गए हैं।
सवाल है कि तँवर के बागी तेवरों से अब क्या होगा? उनका कहना है कि हमने लगातार पाँच
चुनावों में पार्टी के लिए जान लगाकर काम किया। और हमें दूध से मक्खी की तरह निकाल
कर फेंक दिया गया। हरियाणा में पार्टी अब हुड्डा कांग्रेस बन गई है और उन लोगों को
टिकट नहीं दिया गया है, जो चुनाव में जीत सकते थे। तँवर समर्थकों को टिकट नहीं दिए
गए हैं। उन्होंने कहा कि कुछ स्वार्थी तत्व नहीं चाहते कि पार्टी के भीतर से नया
नेतृत्व उभर कर आए। वे वंशवाद पर ही चलना चाहते हैं। अगर मेरी सुनते तो आज कांग्रेस का नाश नहीं
होता।
सवाल यह है कि तँवर किस हद तक हुड्डा को नुकसान पहुँचा पाएंगे? उन्होंने पार्टी के सभी पदों से इस्तीफा दे दिया है, पर यह भी कहा है कि मैं एक साधारण
कार्यकर्ता की तरह काम करूँगा। बीजेपी ने मुझे बीते तीन महीने में छह बार पार्टी में शामिल
होने का प्रस्ताव दिया, लेकिन मैं नहीं गया। क्या
वे पार्टी के वफादार बनकर अपनी हैसियत बना पाएंगे? हुड्डा के बावजूद कांग्रेस बुरी तरह हारी तो
तँवर की वापसी का मौका है, पर कांग्रेस को सफलता मिली, तो तँवर का भविष्य अधर में
है। क्या वे पार्टी नेतृत्व को ब्लैकमेल कर पाएंगे? उनकी परीक्षा की भी यही घड़ी है।
अशोक तँवर ने अपनी लड़ाई को दिल्ली तक ले जाने की कोशिश भी की और बुधवार को
अपने समर्थकों के साथ कांग्रेस
मुख्यालय के बाहर प्रदर्शन किया उन्हें समझाने की कोशिशें हुई भी होंगी, तो वे सफल
नहीं हुईं हैं। तँवर और उनके समर्थकों ने आरोप लगाया कि टिकट वितरण में भ्रष्टाचार
हो रहा है और पार्टी ने सोहना विधानसभा का टिकट पाँच करोड़ रुपए में बेचा है। जिन
लोगों को चुना जा रहा है वह कैसे जीतेंगे?
चुनाव के तीन सप्ताह पहले इस प्रकार की बातें निश्चित रूप से पार्टी के लिए
अशनि संकेत है। संजय निरुपम ने चुनाव
में पार्टी के लिए प्रचार करने से इनकार कर दिया है। उन्होंने ट्वीट किया, 'ऐसा लगता है कि अब
कांग्रेस पार्टी मेरी सेवा नहीं चाहती है। मैंने विधानसभा चुनाव के लिए मुंबई में
सिर्फ एक सीट मांगी थी, वह भी नहीं दी गई। हालांकि मैंने कांग्रेस आलाकमान को पहले
ही बता दिया था कि ऐसी स्थिति में मैं कांग्रेस पार्टी के लिए चुनाव प्रचार नहीं
करूंगा। यह मेरा आखिरी फैसला है।'
हालांकि उन्होंने
पार्टी छोड़ने की धमकी नहीं दी है, पर यह भी कहा है, ‘कांग्रेस आलाकमान मेरे साथ जिस तरह का बर्ताव कर रहा है, उससे नहीं लगता है कि
कांग्रेस में ज्यादा दिन तक रहूंगा।' उन्होंने शुक्रवार को पत्रकारों के सामने
साफ-साफ कहा कि सोनिया गांधी के करीबी लोग पूर्वग्रह से प्रेरित हैं। उन्होंने
पार्टी की संगठनात्मक संरचना को भी दोष दिया और कहा कि इन सब कारणों से पार्टी डूब
जाएगी।
कांग्रेसी
उम्मीदवारों की जारी की गई लिस्ट में पूर्व मुख्यमंत्री अशोक चह्वाण का नाम शामिल
है। 288 सदस्यों वाली विधानसभा में कांग्रेस और एनसीपी ने आपस में 125-125 सीटें
बाँटी हैं। बाकी 38 सीटें गठबंधन के अन्य सहयोगी दलों के लिए छोड़ी गई हैं। 2014
के चुनाव में बीजेपी ने 122 और शिवसेना को 63 सीटें जीती थीं। कांग्रेस और एनसीपी
को क्रमशः 42 और 41 सीटें मिली थीं। हरियाणा विधानसभा में कुल 90 सीटें हैं। 2014
में बीजेपी ने यहाँ 47 सीटें जीती थीं। कांग्रेस को केवल 15 सीटें ही मिली थीं।
हरियाणा में कांग्रेस मजबूत पार्टी रही है। बीजेपी की स्थिति इस राज्य में कभी
बहुत मजबूत नहीं रही है, पर पिछले पाँच वर्षों में कहानी बदली है। अंदरूनी कलह और
राज्य में बदलते जातीय समीकरणों के कारण कांग्रेस लगातार कमजोर होती गई है। राज्य
में जाट बड़ी ताकत रहे हैं, पर हाल के चुनावों में बड़े हुड्डा, छोटे हुड्डा और
रणदीप सुरजेवाला की हार से जाटों की ताकत को लेकर बना भ्रम टूटा है।
दूसरी तरफ गैर-जाट समूह बीजेपी के झंडे तले संगठित हैं। सन 2014 के लोकसभा और फिर
विधानसभा चुनाव में बीजेपी बड़ी ताकत बनकर उभरी है। पहले तो वह ओम प्रकाश चौटाला
की इनेलो की पिछलग्गू हुआ करती थी, पर 2014 के लोकसभा चुनाव के बाद सब कुछ बदल गया
है। कांग्रेस को उम्मीद है कि मनोहर लाल खट्टर की सरकार के खिलाफ एंटी इनकंबैंसी
काम करेगी, पर पिछले लोकसभा चुनाव में राज्य ने मोदी लहर का साथ दिया।
कांग्रेस के भीतर भूपेंद्र सिंह हुड्डा लगातार अशोक तँवर के खिलाफ शिकायतें
करते रहे हैं। इस साल लोकसभा चुनाव में कांग्रेस की पराजय के बाद उन्हें मौका मिल
गया। पार्टी के वरिष्ठ नेता गुलाम नबी आजाद ने दोनों के टकराव को रोकने की कोशिशें
भी कीं, जिनमें वे सफल नहीं हो पाए। अब नहीं लगता कि पार्टी हुड्डा और तँवर को साथ
लेकर चल पाएगी। इस बगावत के कारण तँवर को कुछ हासिल हो न हो, पर वे हुड्डा के
मंसूबों को ध्वस्त कर सकते हैं। यों भी कांग्रेस पार्टी के राष्ट्रीय पराभव को
देखते हुए राज्यों में कार्यकर्ताओं के हौसले पस्त हैं।
जब परेशानी आती है तो सब तरफ से आती है ,जब बर्बाद होने का सिलसिला शुरू होता है तो मजबूत स्तम्भ भी गिर जाते हैं,अब सब पदों के भूखे लोग भाग खड़े होंगे , कुछ कट्टर रुके रहेंगे , यह क्रम यूं ही चलता रहेगा
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