Tuesday, January 29, 2013

विमर्श-विहीनता, विश्वरूपम से आशीष नन्दी तक



संयोग है कि आशीष नन्दी का प्रकरण तभी सामने आया, जब विश्वरूपमपर चर्चा चल रही थी। आशीष नंदी विसंगतियों को उभारते हैं। यह उनकी तर्क पद्धति है। वे मूलतः नहीं मानते कि पिछड़े और दलित भ्रष्ट हैं, जैसा कि उनकी बात के एक अंश को सुनने से लगता है। वे मानते हैं कि देश के प्रवर वर्ग का भ्रष्टाचार नज़र नहीं आता। यह जयपुर लिटरेरी फोरम के मंच पर कही गई गई थी। आशीष नन्दी से असहमति प्रकट करने के तमाम तरीके मौज़ूद हैं। पर सीधे एफआईआर का मतलब क्या है? एक मतलब यह कि विमर्श का नहीं कार्रवाई का विषय है। कार्रवाई होनी चाहिए। बेहतर हो कि इस बहस को आगे बढ़ाएं, पर उसके पहले वह माहौल तो बनाएं जिसमें कोई व्यक्ति कुछ कहना चाहे तो वह कह सके।
अब विश्वरूपम पर आएं। यह हॉलीवुड जैसी एक्शनपैक्ड फिल्म है। और किसी प्रकार की राजनीतिक-सांस्कृतिक अवधारणा को स्थापित नहीं करती। फिर भी उसका विरोध हो रहा है। यह सामान्य मनोरंजन की फिल्म है। पर यदि कमलहासन राजनीतिक या सामाजिक-सांस्कृतिक दृष्टि को फिल्म की शक्ल देना चाहें तो क्या इसका उन्हें अधिकार नहीं है? फिल्मों, नाटकों, कहानियों-उपन्यासों और अभिव्यक्ति के हर माध्यम में इस बात की गुंजाइश होती है कि किसी को उससे शिकायत हो, किसी भावना को ठेस लगती हो या उस बात से उसका गहरा मतभेद हो। पर एक उदार समाज अपने लेखकों, विचारकों, रंगकर्मियों और कलाकारों को अपनी बात कहने का मौका देता है। उनसे असहमति होती भी है तो उपयुक्त मंच पर उसे व्यक्त करता है। समाज या संस्कृति की यह उदारता उसके समूचे साहित्य, सिनेमा, रंगमंच और अभियक्ति के माध्यमों से झलकती है।

कमल हासन की तमिल फिल्म 'विश्वरूपम' का दक्षिण भारत के तीन राज्यों में प्रदर्शन नहीं हो पाया। मद्रास हाईकोर्ट ने तमिलनाडु में कुछ समय तक इसके प्रदर्शन को रोका। कुछ मुस्लिम संगठनों ने फिल्म पर आपत्ति जताई थी। उनका कहना है कि फिल्म में मुस्लिम समुदाय के खिलाफ है। आंध्र और कर्नाटक की राजधानियों में भी प्रदर्शन रोका गया, जबकि कुछ छोटे शहरों में यह रिलीज़ हो गई। फिल्म का विरोध जिस गति से बढ़ रहा है उससे कुछ और राज्यों में इसे प्रदर्शित होने से रोका जाए तो आश्चर्य नहीं होगा। यह फिल्म हिन्दी में विश्वरूप नाम से तैयार है। तमिल फिल्म के साथ जो हुआ है उसे देखते हुए हिन्दी फिल्म का हश्र भी आसानी से समझ में आता है। यह विरोध अनायास था या पब्लिसिटी स्टंट, यह कहना भी मुश्किल है। सवाल इस फिल्म का नहीं उन भावनाओं का है, जो बात-बात पर कुंठित होती हैं।

पिछले कुछ साल से जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल के नाम से साहित्यिक मेला लगाने की शुरूआत की गई है। यह समारोह अपने रूपाकार में सेलेब्रटियों को जमा करने की कोशिश जैसा लगता है। मूलतः इसकी चिंताएं अंग्रेज़ी में व्यक्त होती हैं, पर इधर कुछ समय से हिन्दी के कुछ प्रतिनिधि भी इसमें नमूदार हुए हैं। यह बौद्धिक क्रियाकलाप है। पर लगता है कि हमारा सामना बहुमुखी असहिष्णुता से है, जिसमें एक ओर सामंती प्रवृत्तियाँ हैं और दूसरी ओर आधुनिक राज-व्यवस्था और मसाला-मस्ती में डूबी आधुनिकता है। औपचारिक रूप से किताबों पर पाबंदी लगाने वाले देशों की सूची में भारत काफी आगे है। हमारे यहाँ फिल्में सेंसर होती हैं, पर एक बार सेंसर होने के बाद भी उन्हें रोकने वाली ताकतें हमारे देश में मौज़ूद हैं। ऐसे में सरकारों के पास कानून-व्यवस्था बनाए रखने का बहाना होता है। उनकी दिलचस्पी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को सहारा देने में नहीं होती। उन्हें उसका महत्व समझ में भी नहीं आता। सन 2011 में प्रकाश झा की फिल्म आरक्षण के साथ ऐसा ही हुआ था। उसके पहले फिल्म राजनीति को लेकर इसी प्रकार की आपत्तियाँ थीं। दो दशक पहले फिल्म मणिरत्नम की फिल्म बॉम्बे के प्रदर्शन के समय भी ऐसा ही विरोध था। हिन्दी फिल्मों के गीत अक्सर किसी समुदाय की भावनाओं को ठेस पहुँचाते हैं। खासतौर से लोकगीतों की शब्दावली ठेस पहुँचाने वाली होती है। पिछले महीने 20 दिसम्बर को फैजाबाद के एक महाविद्यालय में आनन्द पटवर्धन की फिल्म राम के नाम के प्रदर्शन के बाद कुछ लोगों ने हमला बोल दिया। उनका कहना था कि यह फिल्म हिन्दू देवी-देवताओं के विरुद्ध है। बंगाल में मुख्यमंत्री ममता बनर्जी को अपने कार्टून पसंद नहीं। पिछले साल एनसीआरटी की पाठ्य पुस्तकों में प्रकाशित कार्टूनों के मामले पर विमर्श के दौरान हमारी राजनीति और समाज व्यवस्था की तमाम परतें खुलीं। केवल सांविधानिक व्यवस्थाओं के बना देने से अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता सुनिश्चित नहीं होती। उसके लिए मजबूत सामाजिक संरक्षण और जागरूकता की दरकार है। ज्ञान, विवेक और विज्ञानसम्मत विमर्श से विमुख क्रांति की उम्मीद नहीं करनी चाहिए। हमें जिस अंधेरे से लड़ना हैं, वही हमारी मशालें छीनकर उल्टे रास्ते पर ले जाता है।

विश्वरूपम के संदर्भ में आईबीएन-सीएनएन से बात करते हुए सलमान रुश्दी ने कहा, भारत को खुद से पूछना चाहिए कि किसी बात को दबा देना इतना आसान क्यों होता है? जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल पिछले साल विवाद में था। इस साल भी है। पिछले साल यहाँ सलमान रुश्दी को बुलाया गया था, जिसका कुछ संगठनों ने विरोध किया था। रुश्दी तो नहीं आए, पर कुछ साहित्यकारों ने रुश्दी की किताब के अंश पढ़कर अभिव्यक्ति के अपने अधिकार को प्रतीक रूप में स्थापित किया था। इस बार मुस्लिम संगठन उन साहित्यकारों को बुलाने के खिलाफ हैं, जिन्होंने पिछली बार रुश्दी की किताब के अंश पढ़े थे। दूसरी ओर भाजपा पाकिस्तानी साहित्यकारों को बुलाने का विरोध कर रही है। इस बार सम्मेलन में सात पाकिस्तानी साहित्यकार शामिल हुए हैं। हाल में नियंत्रण रेखा पर तनाव पैदा होने के बाद हॉकी इंडिया लीग में खेलने आए पाकिस्तानी खिलाड़ियों को वापस भेज दिया गया। देश के कुछ शहरों में आए रंगकर्मियों को अपने प्रदर्शन छोड़कर वापस जाना पड़ा। उदारता का ऐसा एंटी क्लाइमेक्स अक्सर होता है। जयपुर में दो प्रकार के कट्टरपंथों की क्रॉसफायरिंग कुछ वास्तविकताओं की ओर इशारा करती है। राजनीतिक दल सुविधा का रास्ता खोजते हैं। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता उनका एजेंडा नहीं है। जिनका यह एजेंडा है, वे अभी काफी कमज़ोर है।

एक ओर उदार अभिव्यक्तियों के सामने आवेशों में मुट्ठियाँ तन जाती हैं, वहीं निर्दोष और निर्मल अभिव्यक्तियाँ आक्रामक दादागीरी की शिकार भी बनती हैं। सन 2005 में एक बहुभाषी पत्रिका के तमिल संस्करण में तमिल फिल्मों की अभिनेत्री खुशबू का इंटरव्यू प्रकाशित हुआ। उसमें खुशबू ने कहा, विवाह-पूर्व यौन सम्बन्ध अनुचित नहीं है। यह वक्तव्य ऐसा नहीं था कि तमिल नारी, समाज या संस्कृति को ठेस लगती। बावज़ूद इसके एक राजनीतिक दल ने बखेड़ा खड़ा किया और खुशबू के खिलाफ आंदोलन शुरू हो गया। खुशबू को सार्वजनिक रूप से माफी माँगनी पड़ी। पर इतना काफी नहीं था। खुशबू के खिलाफ अनेक अदालतों में मुकदमे दायर कर दिए गए। खुशबू ने हाईकोर्ट में अपील की कि ये मामले मुझे परेशान करने के लिए दायर किए गए हैं, इन्हें खारिज किया जाए। पर हाईकोर्ट ने उनकी नहीं सुनी। अंत में उन्हें सुप्रीम कोर्ट जाना पड़ा, जिसने अप्रेल 2010 में उनके खिलाफ दायर 22 आपराधिक मुकदमों को खारिज किया। खुशबू को अपनी अभिव्यक्ति के अधिकार की रक्षा में लगभग साढ़े छह साल लगे। वह भी तब जब खुशबू आर्थिक रूप से समर्थ थीं और समाज-व्यवस्था में उनका रसूख भी था। एक सामान्य व्यक्ति की दशा को समझा जा सकता है।

एक रोचक खबर पढ़ने को मिली। महाराष्ट्र में शिव सेना ने पार्टी की महिला समर्थकों को सुरक्षा के लिए चाकू बाँटे हैं। ये चाकू पार्टी के दिवंगत नेता बाल ठाकरे के जन्मदिन पर हुए एक समारोह में बाँटे गए। दिल्ली में एक लड़की  के साथ हुए गैंगरेप के संदर्भ में शिवसेना का कहना है कि सरकार महिलाओं को सुरक्षा देने में विफल साबित हुई है, इसलिए उन्हें अपनी सुरक्षा खुद करनी पड़ेगी। बेशक चाकू मददगार होगा, पर इसे एक समझदार समाज क्यों न बनाएं, जिसमें स्त्रियों का सम्मान हो? पिछले कुछ वर्षों में सोशल मीडिया दुनियाभर में जनता की आवाज़ बनकर उभरा है। इसके स्वरों में लय-ताल नहीं है। उनका कोई व्याकरण नहीं है। फिर भी उनमें सामान्य व्यक्ति के सुख-दुख व्यक्त होते हैं। इस खुलेपन ने अभिव्यक्ति को जो मंच दिया है, वह भटकता भी है। म्यामांर और असम के फसादों की तस्वीरों के नाम पर भावनाएं भड़काने का काम फेसबुक और ब्लॉगों पर हुआ। वह इसका नकारात्मक पहलू था। एक विदेशी फिल्म इनोसेंस ऑफ इस्लाम ने आग में घी का काम किया। पर अमेरिका सरकार ने उसे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता मानकर संरक्षण दिया। उसके बाद असीम त्रिवेदी की गिरफ्तारी का प्रकरण हुआ। और फिर बाल ठाकरे के निधन के बाद शाहीन ढाडा और उनकी एक मित्र की मामूली सी बात पर गिरफ्तारी।

भारत सरकार पिछले दो साल से सोशल मीडिया पर बंदिशें लगाने की पेशकश कर रही है। दुनिया भर की सरकारें सोशल मीडिया से परेशान हैं। विकीलीक्स के संस्थापक जूलियन असांज आधी दुनिया के हीरो और आधी के विलेन बन गए हैं। उन्होंने अमेरिका के तमाम गोपनीय दस्तावेज़ों को उजागर किया है, फिर भी असांज के आर्थिक मददगारों में अमेरिकी लोग भी हैं। इक्कीसवीं सदी की लोकतांत्रिक व्यवस्थाएं वही नहीं रहेंगी, जो उन्नीसवीं सदी में थीं। फेसबुक के रचनाकार मार्क जुकेनबर्ग ने  व्यवस्था-विरोधी साज़िश नहीं की है। तकनीकें सामाज़िक ज़रूरतों को पूरा करने के लिए जन्म लेती हैं। आज की अभिव्यक्तियाँ अराजक और अनुशासनहीन लगती हैं, सम्भव है कल न लगें। इनसे भागने की नहीं, इनका सामना करने की ज़रूरत है। 

हिन्दी ट्रिब्यून में प्रकाशित

2 comments:

  1. दुनि‍या एक बहुत भावनात्‍मक जगह है, कोई भी खि‍लवाड़ कर सकता है

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  2. प्रमोद जी,
    मुझे लगता है कि विचारों की अभिव्यक्ति कि स्वाधीनता जैसी कोई वस्तु अब इस दुनिया में बाकी नहीं रही।
    हमारा देश इस मामले में दूसरे देशों से बहुत आगे निकल चुका है। अगर आप इस सारी
    नौटंकी का मज़ाक उड़ाना पसंद करते हैं, तो मेरे ब्लॉग "The Peanut Express" पर मैंने अंतरिक्ष के बंदरों के बारे में लिखा है। पढ़िए और हंसिये।

    शांति!

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