Monday, December 5, 2011

बंद गली में खड़ी कांग्रेस



कम्युनिस्ट पार्टी के सांसद गुरदास दासगुप्त का कहना है कि रिटेल में एफडीआई के फैसले को स्थगित करने का फैसला भारत सरकार का है, बंगाल सरकार का नहीं। इसकी घोषणा बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने की। दो रोज पहले तक प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह कह रहे थे कि यह फैसला सुविचारित है और इसे वापस लेने की कोई सम्भावना नहीं है। ममता बनर्जी ने वित्तमंत्री प्रणब मुखर्जी का हवाला देकर कहा है कि जबतक इस मामले में सर्वानुमति नहीं होती यह फैसला स्थगित रहेगा। प्रणब मुखर्जी का कहना है कि सरकार का दृष्टिकोण संसद में व्यक्त किया जाएगा। संसद का सत्र चल रहा है मैं कोई घोषणा नहीं कर सकता। बुधवार को पता लगेगा कि सरकार क्या कह रही है, पर लगता है कि यूपीए ने अपना मृत्युलेख लिख लिया है। क्या सरकार अपनी पराजय की घोषणा करने वाली है? मनमोहन सरकार के सबसे महत्वाकांक्षी सुधार कार्यक्रमों में से एक के ठंडे बस्ते में जाने के राजनीतिक संदेश साफ हैं। इसके आगे के सुधार कार्यक्रम अब सामने आ भी नहीं पाएंगे।


ममता बनर्जी का कहना सही है कि गठबंधन सरकार में महत्वपूर्ण फैसले सहयोगियों से विमर्श के बाद होने चाहिए। पर कांग्रेस पार्टी को क्या इसका आभास नहीं था कि तृणमूल कांग्रेस का रुख क्या होगा? फैसला वापस होने का अर्थ होगा यूपीए की क्रमशः बढ़ती निरर्थकता। संसद में सरकार विपक्ष के सामने दबाव में है। भ्रष्टाचार और लोकपाल ने पहले से सरकार को घेर रखा है। आर्थिक मोर्चे से लगतार खराब खबरें आ रहीं हैं। अब राजनीतिक मोर्चे पर बड़ी पराजय का खतरा सामने खड़ा है। क्या सरकार इसका सामना कर पाएगी? इसका अर्थ क्या है? क्या सरकार विपक्ष के स्थगन प्रस्ताव को टालना चाहती है? उससे बचने का यह रास्ता निकाला है? एफडीआई के मामले में क्या यूपीए के घटक दलों में सर्वानुमति हो पाएगी?

एक सवाल यह भी है कि क्या यह उदारीकरण की पराजय है या कांग्रेसी राजनीति का असमंजस है? रिटेल सेक्टर में विदेशी और देशी पूँजी निवेश से सम्बद्ध स्थायी समिति को राज्यों से जो फीड बैक मिला है उसके अनुसार एक को छोड़कर किसी कांग्रेस शासित राज्य ने देशी पूँजी का समर्थन भी नहीं किया। केवल पंजाब, गुजरात और हिमाचल ने समर्थन किया है। ये तीनों राज्य एनडीए से जुड़े हैं। यह कैसी राजनीति है? कांग्रेस के कई वरिष्ठ नेता इसके खिलाफ हैं। पार्टी इसके समर्थन में कैसे आगे बढ़ पाएगी? सरकार लोकपाल बिल पर स्थायी समिति की सिफारिशों पर चलना चाहती है, पर रिटेल सेक्टर पर स्थायी समिति की सिफारिशें उसे स्वीकार नहीं। दोनों बातों में क्या अंतर्विरोध नहीं है?

हमारी ज़रूरत है पुष्ट, समझदार और जागरूक नागरिक। वे सामाजिक उत्पाद हैं। इसलिए आर्थिक विकास के समानांतर सामाजिक विकास की जरूरत हमें है। एक बार सामाजिक स्तर पर हम एक मजबूत ताना-बाना रचने में कामयाब हुए तो असमानता को दूर करने का अभियान भी चल सकेगा। पर उसके पहले यह समझें कि जिस रास्ते पर हम बढ़ रहे हैं वह जाता कहाँ है। यूपीए-एक के मुकाबले यूपीए-दो को संसद में बेहतर समर्थन प्राप्त है। ऐसा लगता था कि जनता ने आर्थिक सुधार के शेष काम पूरे करने का आदेश सरकार को दिया था। कम से कम न्यूक्लीयर डील को जनता ने रद्द नहीं किया था। उस डील को संसद से पास कराने में सरकार को कई तरह के बैकरूम डील करने पड़े थे। हमारी राजनीति में ऐसा ही होता है। एफडीआई के मामले में सरकार ने कोई बैकरूम डील क्यों नहीं किया? सरकार और पार्टी में दूरियाँ बढ़ती जा रहीं हैं। पार्टी धीरे-धीरे लोकलुभावन राजनीति की ओर बढ़ रही है और सरकार को कॉरपोरेट-मुखी होने का बिल्ला लगाने में कोई हर्ज नज़र नहीं आता।

उदारीकरण हमारे लिए ज़रूरी है या नहीं इस विषय पर देश की राजनीति में कोई चिंतन-मनन नहीं है। वह ज़रूरी नहीं है तो हम क्यों व्यर्थ में उसके पीछे पड़े हैं? हम आसानी से पिछले बीस साल के कामकाज की समीक्षा कर सकते हैं। दिक्कत यह है कि सरकार भी अधूरे मन से इस काम को आगे बढ़ा रही है। और विपक्ष की दिलचस्पी भी इस बहस को रचनात्मक मोड़ देने के बजाय सत्ता पर कब्जा करने में ज्यादा है। जरूरत इस बात की थी कि हम अपनी नीतियों के सकारात्मक और नकारात्मक दोनों पहलुओं पर विचार करते।

आर्थिक उदारीकरण की शुरूआत के समय से ही इसके विरोधियों ने कहना शुरू कर दिया कि देश में विदेशी प्लेयर घुस आएंगे। स्थानीय उद्योग-धंधे खत्म हो जाएंगे। हमारे किसान केलों की खेती करने लगेंगे, क्योंकि विदेशी व्यापारी उसका बेहतर पैसा देंगे। स्थानीय लोगों के लिए अन्न नहीं बचेगा। पर ऐसा नहीं हुआ। आर्थिक विकास की दर बढ़ी। अंतरराष्ट्रीय व्यापार में हमारा घाटा कम हुआ, बावजूद इसके कि पेट्रोल की कीमतें अंतरराष्ट्रीय बाजार में बढ़ती रहीं हैं। देश में बचत का स्तर बेहतर हुआ। भारतीय पूँजी का अफ्रीका, लैटिन अमेरिका और यूरोप तक में निवेश बढ़ा। भारतीय कम्पनियों ने विदेशी कम्पनियों को खरीदना शुरू किया। गरीबों की संख्या में भी कमी हुई। यह एक उपलब्धि है भले ही इसे बड़ी उपलब्धि न माना जाए। हालांकि इन सब मामलों में उदारीकरण विरोधियों की अलग राय है। यह एक वैचारिक मामला है।

इन उपलब्धियों के बरक्स हमने कुछ खोया भी है। ग्रामीण जीवन में कष्ट बढ़ा है। गरीबों की स्थिति में सुधार हुआ है, पर असमानता का स्तर बढ़ा है। इसलिए गरीबों की दशा वैसी ही लगती है। औद्योगीकरण के कारण जमीन के अधिग्रहण की ज़रूरत पूरी करने की आड़ में तकरीबन लूट की स्थिति पैदा हो गई है। पर्यावरण पर विपरीत असर पड़ा है। इसके अलावा सामाजिक कल्याण के मोर्चे पर हम विफल साबित हुए हैं। बाल मृत्यु दर, मातृ-कल्याण और शिक्षा के मोर्चे पर अपेक्षित सफलता नहीं मिली। यह देखने की ज़रूरत भी है कि ऐसा क्यों हुआ? इसके लिए नीतियाँ जिम्मेदार हैं या राजनीतिक शक्तियाँ जो लूट में भागीदार बनना चाहती हैं, निर्माण में नहीं।
हमारी ज़रूरत है पुष्ट, समझदार और जागरूक नागरिक। वे सामाजिक उत्पाद हैं। इसलिए आर्थिक विकास के समानांतर सामाजिक विकास की जरूरत हमें है। एक बार सामाजिक स्तर पर हम एक मजबूत ताना-बाना रचने में कामयाब हुए तो असमानता को दूर करने का अभियान भी चल सकेगा। पर उसके पहले यह समझें कि जिस रास्ते पर हम बढ़ रहे हैं वह जाता कहाँ है।
जनसंदेश टाइम्स में प्रकाशित

दैनिक हिन्दू में सुरेन्द्र के कार्टून


7 comments:

  1. बहुत सटीक और मननीय ।

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  2. बहुत अच्छा लेख लिखा है आपने, प्रमोद जी.

    आजकल जब भी सरकार कोई नीति से युक्त निर्णय प्रत्यक्ष में लाती है, तो परोक्ष में क्या हो रहा है, उस पर भी विचार करना चाहिए. बहुत लोगों का यह मानना है कि आज भारत में "real estate" का धंधा आखिरी सांस ले रहा है. बाहरी निवेश बंद है, ऊँची EMI दर के कारण कोई मकान नहीं खरीद रहा है, और DLF जैसी कंपनियों का धंधा ठप है, शेयर बाज़ार में भी हालत बहुत ख़राब है.

    रियल एस्टेट lobby ने यह सोचा था कि अगर रिटेल में FDI आएगी, तो वाणिज्यिक रियल एस्टेट का बाज़ार सुधरेगा. सरकार में ऊँचे दर्जे के नेता और बाबु, दोनों का रियल एस्टेट में बहुत पैसा लगा है. अगर मकानों के दाम में गिरावट आने लगी, तो दोनों का करोड़ों का नुकसान हो जायेगा.

    आम आदमी के लिए अपना मकान तो सालों पहले पहुँच के बाहर हो चुका है, पर हमारी कौन सोचता है ?!

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  3. जानकारी भरी उपयोगी पोस्ट !

    आभार ||

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  4. अच्छी चर्चा और बहस के लिए काफी खुराक है...इससे गुज़रना अच्छा लगा,ध्न्यवाद।

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  5. अच्छी चर्चा और बहस के लिए भरपूर खुराक है, इससे गुज़रना काफी
    अच्छा लगा,धन्यवाद।

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  6. बहूत ही अच्छा लखा है आपने...पढ़कर अच्छा लगा.

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  7. सटीक और सपाट । विमर्श को उद्वेलित करती और बहस की गुंजाईश के रास्ते छोडती हुई लगी । शुक्रिया सर

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