Tuesday, December 27, 2011

किसे लगता है 'लोकतंत्र' से डर?

30 जनवरी महात्मा गांधी की 64वीं पुण्यतिथि है। पंजाब और उत्तराखंड के वोटरों को ‘शहीद दिवस’ के मौके पर अपने प्रदेशों की विधानसभाओं का चुनाव करने का मौका मिलेगा। क्या इस मौके का कोई प्रतीकात्मक अर्थ भी हो सकता है? हमारे राष्ट्रीय जीवन के सिद्धांतों और व्यवहार में काफी घालमेल है। चुनाव के दौरान सारे छद्म सिद्धांत किनारे होते हैं और सामने होता है सच, वह जैसा भी है। 28 जनवरी से 3 मार्च के बीच 36 दिनों में पाँच राज्यों की विधानसभाओं के चुनाव होंगे। एक तरीके से यह 2012 के लोकसभा चुनाव का क्वार्टर फाइनल मैच है। 2013 में कुछ और महत्वपूर्ण राज्यों में चुनाव हैं, जिनसे देश की जनता का मूड पता लगेगा। उसे सेमीफाइनल कहा जा सकता है। क्योंकि वह फाइनल से ठीक पहले का जनमत संग्रह होगा। जनमत संग्रह लोकतंत्र का सबसे पवित्र शब्द है। इसी दौरान तमाम अपवित्रताओं से हमारा सामना होगा।



पिछले एक साल में देश ने तरक्की और गिरावट के कई आयाम देखे हैं। और सब ठीक रहा तो तीन दिन तक हमें संसद से सड़क तक इन आयामों को लेकर रोचक विचार सुनने को मिलेंगे। इस विमर्श का इन विधानसभा चुनावों से सीधा रिश्ता नहीं। पर उस समझ से ज़रूर है जो जन-प्रतिनिधित्व की अवधारणा के पीछे है। शनिवार को मुख्य चुनाव आयुक्त ने कार्यक्रम की घोषणा करते हुए कुछ पेशबंदियों का विवरण भी दिया जो चुनाव-प्रणाली को साफ-सुथरा बनाने के लिए अपनाई जा रहीं हैं। चुनाव-प्रणाली को सबसे बड़ा खतरा धन और पाशविक बल से है। जिसके पास संगठन, पैसा और लाठी नहीं है, उसके लिए चुनाव के मार्फत जनसेवा का रास्ता खुला नहीं है।

इस बार चुनाव मैदान में उतर रहे प्रत्याशियों को नया बैंक एकाउंट खोलना होगा। बदले हुए फॉर्मट में एफीडेविट दाखिल करना होगा। तमाम तरह की शिकायतों और जानकारियों के लिए कॉल सेंटर बनाया जाएगा। आधुनिक भारत की लोकतांत्रिक-प्रक्रिया के उद्घाटन वर्ष के प्रतीक रूप में टोल फ्री नम्बर 1950 शुरू किया जाएगा। कहना मुश्किल है कि प्रत्याशी अपनी सीमा के भीतर ही खर्च करेंगे। अनुभव यह रहा है कि चुनाव के बाद प्रत्याशी अपने खर्च का जो विवरण देते हैं, वह सीमा के काफी नीचे होता है।

इस गुजर रहे साल 2011 के अप्रेल-मई में पाँच विधानसभाओं के चुनाव हुए थे। एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (एडीआर) के तहत काम करने वाली संस्था इलेक्शन वॉच ने इन चुनावों में शामिल प्रत्याशियों के खर्च का विवरण दिया है वह रोचक है। प बंगाल, असम, केरल, तमिलनाडु और पुदुच्चेरी में चुनाव हुए थे। इनमे पहले चार राज्यों में प्रत्याशियों के खर्च की सीमा 16 लाख रु है और पुदुच्चेरी में 9 लाख रु। प्रत्याशियों ने जो विवरण दिया है वह मजेदार है। एडीआर ने कुल 746 एमएलए के खर्च का विश्लेषण किया है। इनमें से केवल 32 ने माना है कि उन्होंने खर्च की सीमा के 80 फीसदी से ज्यादा खर्च किया। 403 ने 50 फीसदी से कम खर्च किया। किसी भी एमएलए ने सीमा से ज्यादा खर्च नहीं किया। लगभग सभी दल माँग करते हैं कि चुनाव खर्च की सीमा कम है। उसे बढ़ाया जाना चाहिए। पर जब खर्च होता है तो वे सीमा से कहीं कम खर्च करते हैं। चुनाव आयोग के पर्यवेक्षकों ने इस दौरान काफी नकद राशि बरामद की। अकेले तमिलनाडु में ही 60 करोड़ रु से ज्यादा बरामद हुए। यह किसका पैसा था और कौन खर्च कर रहा था? तिरुचिरापल्ली में एक बस से 5.11 करोड़ रु बरामद हुए। एक और छापे में मदुरै में 3.5 करोड़ रु बरामद हुए थे।

अन्ना आंदोलन के आलोचकों ने यह बात बार-बार कही कि लोकतांत्रिक संस्थाओं की मर्यादा भंग नहीं होनी चाहिए। पर हमारा लक्ष्य लोकतंत्र है, केवल संस्थाएं बनाना नहीं। इन संस्थाओं का ‘एंड प्रोडक्ट’ यानी कुल परिणाम लोकतंत्र होना ही चाहिए। इनकी मॉनीटरिंग करने वाली संस्थाओं की भी हमें ज़रूरत है। सांसारिक-व्यवस्था में पाशविक और मानवीय प्रवृत्तियों के बीच संघर्ष पुराने ज़माने से चला आ रहा है। लोकतांत्रिक क्रियाकलाप में भी आप उसे देखेंगे। लोकतंत्र की दुहाई देने वाले नेता संसदीय बहस में कितना शामिल होते है, किस प्रकार के सवाल उठाते हैं और लोकतांत्रिक व्यवस्था को वस्तुनिष्ठ बनाने में कितना योगदान करते हैं इस पर शोध की भी जरूरत है।

हम सिर्फ प्रत्याशियों से पैसों का विवरण माँगते हैं। पार्टियों से भी माँगना चाहिए। संवैधानिक-लोकतांत्रिक व्यवस्था में जनता का हस्तक्षेप बुनियादी शर्त है। लोकतंत्र केवल चुनाव लड़ना ही नहीं है। चुनाव की पद्धति को दुरुस्त करना भी है। चुनाव आयोग ने इस बार ‘पेड न्यूज़’ पर नज़र रखने की योजना भी बनाई है। मीडिया इस व्यवस्था का बुनियादी साझीदार है। लोकतंत्र के ‘रॉ मैटीरियल’ में सूचना की सबसे महत्वपूर्ण भूमिका है। पर हमारे कारोबारी मॉडल में सूचना तिज़ारती माल(बाइंग कॉमोडिटी) है। पत्रकारीय मर्यादाओं के लम्बे अनुभव के आधार पर इस कर्म से जुड़े लोग अपने आपको कारोबार से अलग रखते रहे हैं। इसका तिजारती मॉडल हमेशा कायम रहा, क्योंकि प्रकाशन एक कारोबार है। इसके गैर-कारोबारी मॉडल भी बने, पर बाजार और साख के विचार को कमोबेश पाठक ने मंजूर कर लिया है। पर इधर यह संतुलन बिगड़ गया और कारोबार ने मर्यादाओं की धज्जियाँ उड़ा दीं। व्यवस्था को क्या शक्ल लेनी चाहिए इसपर भी लोकतांत्रिक फोरमों पर विमर्श की ज़रूरत है।

इस चुनाव में किस पार्टी का पलड़ा भारी है या हल्का है, यह विचार का अलग विषय है। उससे पहले विचार यह करना है कि वोटर का पलड़ा कितना भारी है। आज के हालात में वोट एक बैंक है, जिसमें प्रत्याशी अपना पहला खाता खोलता है। दूसरा खाता अब चुनाव आयोग खुलवाएगा। जागरूक वोटर की चाहत है कि प्रत्याशी अपने सारे खातों का विवरण दें। उम्मीद है व्यवस्था सुधरेगी। भले ही कुछ देर हो। जनसंदेश टाइम्स में प्रकाशित

                                                              हिन्दू में सुरेन्द्र का कार्टून

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