सब ठीक रहा तो अब लोकपाल बिल आज या कल संसद में पेश कर दिया जाएगा। साल खत्म होते-होते देश पारदर्शिता के अगले पायदान पर पैर रख देगा। और कुछ नए सवालों के आधार तैयार कर लेगा। समस्याओं और समाधानों की यह प्रतियोगिता जारी रहेगी। शायद अन्ना हजारे की टीम 27 को जश्न का समारोह करे। हो सकता है कि इस कानून से असहमत होकर आंदोलन के रास्ते पर जाए। पर क्या हम अन्ना हजारे के या सरकार के समर्थक या विरोधी के रूप में खुद को देखते हैं? सामान्य नागरिक होने के नाते हमारी भूमिका क्या दर्शक भर बने रहने की है? दर्शक नहीं हैं कर्ता हैं तो कितने प्रभावशाली हैं? कितने जानकार हैं और हमारी समझ का दायरा कितना बड़ा है? क्या हम हताशा की पराकाष्ठा पर पहुँच कर खामोश हो चुके हैं? या हमें इनमें से किसी प्लेयर पर इतना भरोसा है कि उससे सवाल नहीं करना चाहते?
हाल में एक सभा में पत्रकारिता की मौजूदा प्रवृत्तियों पर चर्चा हो रही थी। लोगों को मीडिया से, पत्रकारों और सम्पादकों से शिकायतें थीं। एक पत्रकार ने सभा में मौजूद दर्शकों से सवाल किया, आपको शिकायत है तो अखबारों को पत्र क्यों नहीं लिखते? शिकायत क्यों नहीं करते? हम जो संजीदा बातें लिखते हैं क्या आप उन्हें पढ़ते हैं? आपकी भी तो कोई भूमिका है? कृपया आप अपनी भूमिका निभाएं। हस्तक्षेप करें। कई बार लगता है हम हवा में विचार-विमर्श करते हैं। कहने के विचार अलग होते हैं और करने के अलग। और यह भी कि हमारा बौद्धिक विमर्श आम जनता की समझ से बाहर है। सामान्य नागरिक के सरोकार, उसके मुहावरे, भाषा, साहित्य अलग हैं। बजाय उन्हें समझ में आने वाले मुहावरों में बात करने के बौद्धिक जन उन्हें हेय दृष्टि से देखते हैं।
अन्ना आंदोलन की सफलता-विफलता से हटकर इसे इस तरीके से देखें कि सामान्य जनता कैसे सोचती है तो कुछ रोचक बातें सामने आएंगी। तमाम कीचड़ उछाले जाने और बदनाम करने के प्रयासों के बावजूद अन्ना हजारे के आंदोलन को मध्य वर्गीय जनता के एक बड़े तबके का समर्थन मिलता रहा। सरकार इस आंदोलन का नब्ज को पकड़ पाने में विफल रही या वह इस ताकत का अंदाजा लगाना चाहती थी। कारण जो भी हो, इतना ज़रूर है कि अन्ना के हाथ में एक कोड़ा नज़र आता है। वह कोड़ा जनता की ताकत का है। कई लोगों का कहना है कि इस आंदोलन के पीछे थोड़े से लोग हैं, जनता नहीं है। गाँवों में कोई हलचल नहीं है। पर ऐसा होता तो सरकार इसे कबका ढक्कन कर चुकी होती। जैसा बाबा रामदेव के साथ हुआ। एक वक्त तो बाबा रामदेव को भी इसके समांतर खड़ा करने की कोशिश हुई। इक्का-दुक्का वामपंथी लेखकों को छोड़कर ज्यादातर को इस आंदोलन में कोई सब ऑल्टर्न अपील नज़र नहीं आती। बावजूद इसके वामपंथी नेता अन्ना के मंच पर पहुँचे। इसके पीछे क्या वजह है? चुनाव का गणित? भाजपा-वामपंथी गठजोड़?
अन्ना के बजाय इस आंदोलन के शिखर पर कोई और नेता होता तो क्या यह आंदोलन इतना ही सफल होता? अन्ना न तो राजनीतिक विचारक हैं, न बड़े लोकप्रिय जन-नायक? उनकी भाषण शैली भी मंत्र-मुग्ध करने वाली नहीं है। वे एक तरह से मैस्कट हैं, प्रतीक चिह्न। सामान्य नागरिक अन्ना में खुद को देखता है। इसे सफल आंदोलन मानें तो इसके दो बड़े कारण हैं। पहला है सामान्य सरकारी मशीनरी में बैठी जबर्दस्त अराजकता। भ्रष्टाचार इसके लिए उपयुक्त शब्द नहीं है। हमारे पास अंधेर नगरी चौपट राजा का मुहावरा है। यह अंग्रेजी राज और कांग्रेसी राज के पहले की अभिव्यक्ति है। जनता को आधुनिक राज में इसके खत्म होने की उम्मीद थी। गवर्नेंस को डिलीवर करने के लिए कुशल व्यवस्था चाहिए। सरकार ऐसा कर पाने में विफल रही। टूजी या कॉमनवैल्थ गेम्स के घोटालों से जनता का सामना नहीं होता। हाथ कंगन को आरसी क्या? वह तो अपने सामने चलती अराजकता का गवाह है। किसी भी आम व्यक्ति से बात कर लीजिए वह आपको इस अराजकता के दसियों उदाहरण गिना देगा।
अन्ना आंदोलन के लगभग हर शीर्ष नेता के खिलाफ कोई न कोई मामला खड़ा होता गया। सीडी, नोटिस और एफआईआर की झड़ी लग गई। इतने से तो इन लोगों के परखचे उड़ जाने चाहिए थे। प्रतिस्पर्धी को पटखनी देने वाले परम्परागत टूल बेकार साबित हुए। आंदोलन कुछ और ताकतवर हो गया। इस आंदोलन के कुछ सबक हैं, जिन्हें पढ़ा जाना चाहिए।
लोकतांत्रिक शासन के तीनों प्रमुख स्तम्भों की साख को कायम रखने की सबसे बड़ी ज़रूरत है। इसे कांग्रेस बनाम भाजपा करके नहीं देखा जाना चाहिए। अन्ना आंदोलन का राजनीतिक इस्तेमाल हुआ तो जनता का उससे भी मोहभंग होगा। इस साख को वापस लाने में सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों की भूमिका है। कांग्रेस पर ज्यादा आरोप इसलिए लगते हैं क्योंकि सत्ता में वह ज्यादा समय तक रही है, पर पर क्या बीजेपी और वामपंथी दलों के कारनामों की अनदेखी की जा सकती है? चौथे स्तम्भ यानी मीडिया हाउसों की साख भी तो हवा हो चुकी है। भारतीय पत्रकारिता की साख को पिछले एक साल में जितना बड़ा धक्का लगा है उतना पिछले 64 साल में कभी नहीं लगा होगा। निर्भीकता, निष्पक्षता और स्वतंत्रता का पानी उतर चुका है। यह भी अशनि संकेत है। इन सबकी लगाम जिसके हाथ में है उसकी जागरूकता ही सारी बातों को रास्ते पर लाएंगी। सम्भव है इस निराशा की घड़ी में आशा के सूत्र हमारे हाथ लगें।
जनसंदेश टाइम्स में प्रकाशित
हाल में एक सभा में पत्रकारिता की मौजूदा प्रवृत्तियों पर चर्चा हो रही थी। लोगों को मीडिया से, पत्रकारों और सम्पादकों से शिकायतें थीं। एक पत्रकार ने सभा में मौजूद दर्शकों से सवाल किया, आपको शिकायत है तो अखबारों को पत्र क्यों नहीं लिखते? शिकायत क्यों नहीं करते? हम जो संजीदा बातें लिखते हैं क्या आप उन्हें पढ़ते हैं? आपकी भी तो कोई भूमिका है? कृपया आप अपनी भूमिका निभाएं। हस्तक्षेप करें। कई बार लगता है हम हवा में विचार-विमर्श करते हैं। कहने के विचार अलग होते हैं और करने के अलग। और यह भी कि हमारा बौद्धिक विमर्श आम जनता की समझ से बाहर है। सामान्य नागरिक के सरोकार, उसके मुहावरे, भाषा, साहित्य अलग हैं। बजाय उन्हें समझ में आने वाले मुहावरों में बात करने के बौद्धिक जन उन्हें हेय दृष्टि से देखते हैं।
अन्ना आंदोलन की सफलता-विफलता से हटकर इसे इस तरीके से देखें कि सामान्य जनता कैसे सोचती है तो कुछ रोचक बातें सामने आएंगी। तमाम कीचड़ उछाले जाने और बदनाम करने के प्रयासों के बावजूद अन्ना हजारे के आंदोलन को मध्य वर्गीय जनता के एक बड़े तबके का समर्थन मिलता रहा। सरकार इस आंदोलन का नब्ज को पकड़ पाने में विफल रही या वह इस ताकत का अंदाजा लगाना चाहती थी। कारण जो भी हो, इतना ज़रूर है कि अन्ना के हाथ में एक कोड़ा नज़र आता है। वह कोड़ा जनता की ताकत का है। कई लोगों का कहना है कि इस आंदोलन के पीछे थोड़े से लोग हैं, जनता नहीं है। गाँवों में कोई हलचल नहीं है। पर ऐसा होता तो सरकार इसे कबका ढक्कन कर चुकी होती। जैसा बाबा रामदेव के साथ हुआ। एक वक्त तो बाबा रामदेव को भी इसके समांतर खड़ा करने की कोशिश हुई। इक्का-दुक्का वामपंथी लेखकों को छोड़कर ज्यादातर को इस आंदोलन में कोई सब ऑल्टर्न अपील नज़र नहीं आती। बावजूद इसके वामपंथी नेता अन्ना के मंच पर पहुँचे। इसके पीछे क्या वजह है? चुनाव का गणित? भाजपा-वामपंथी गठजोड़?
अन्ना के बजाय इस आंदोलन के शिखर पर कोई और नेता होता तो क्या यह आंदोलन इतना ही सफल होता? अन्ना न तो राजनीतिक विचारक हैं, न बड़े लोकप्रिय जन-नायक? उनकी भाषण शैली भी मंत्र-मुग्ध करने वाली नहीं है। वे एक तरह से मैस्कट हैं, प्रतीक चिह्न। सामान्य नागरिक अन्ना में खुद को देखता है। इसे सफल आंदोलन मानें तो इसके दो बड़े कारण हैं। पहला है सामान्य सरकारी मशीनरी में बैठी जबर्दस्त अराजकता। भ्रष्टाचार इसके लिए उपयुक्त शब्द नहीं है। हमारे पास अंधेर नगरी चौपट राजा का मुहावरा है। यह अंग्रेजी राज और कांग्रेसी राज के पहले की अभिव्यक्ति है। जनता को आधुनिक राज में इसके खत्म होने की उम्मीद थी। गवर्नेंस को डिलीवर करने के लिए कुशल व्यवस्था चाहिए। सरकार ऐसा कर पाने में विफल रही। टूजी या कॉमनवैल्थ गेम्स के घोटालों से जनता का सामना नहीं होता। हाथ कंगन को आरसी क्या? वह तो अपने सामने चलती अराजकता का गवाह है। किसी भी आम व्यक्ति से बात कर लीजिए वह आपको इस अराजकता के दसियों उदाहरण गिना देगा।
अन्ना आंदोलन के लगभग हर शीर्ष नेता के खिलाफ कोई न कोई मामला खड़ा होता गया। सीडी, नोटिस और एफआईआर की झड़ी लग गई। इतने से तो इन लोगों के परखचे उड़ जाने चाहिए थे। प्रतिस्पर्धी को पटखनी देने वाले परम्परागत टूल बेकार साबित हुए। आंदोलन कुछ और ताकतवर हो गया। इस आंदोलन के कुछ सबक हैं, जिन्हें पढ़ा जाना चाहिए।
लोकतांत्रिक शासन के तीनों प्रमुख स्तम्भों की साख को कायम रखने की सबसे बड़ी ज़रूरत है। इसे कांग्रेस बनाम भाजपा करके नहीं देखा जाना चाहिए। अन्ना आंदोलन का राजनीतिक इस्तेमाल हुआ तो जनता का उससे भी मोहभंग होगा। इस साख को वापस लाने में सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों की भूमिका है। कांग्रेस पर ज्यादा आरोप इसलिए लगते हैं क्योंकि सत्ता में वह ज्यादा समय तक रही है, पर पर क्या बीजेपी और वामपंथी दलों के कारनामों की अनदेखी की जा सकती है? चौथे स्तम्भ यानी मीडिया हाउसों की साख भी तो हवा हो चुकी है। भारतीय पत्रकारिता की साख को पिछले एक साल में जितना बड़ा धक्का लगा है उतना पिछले 64 साल में कभी नहीं लगा होगा। निर्भीकता, निष्पक्षता और स्वतंत्रता का पानी उतर चुका है। यह भी अशनि संकेत है। इन सबकी लगाम जिसके हाथ में है उसकी जागरूकता ही सारी बातों को रास्ते पर लाएंगी। सम्भव है इस निराशा की घड़ी में आशा के सूत्र हमारे हाथ लगें।
जनसंदेश टाइम्स में प्रकाशित
वास्तविकता यह है कि कांग्रेस का मनमोहन गुट ,भाजपा/आर एस एस ,भारतीय और अमेरिकी कारपोरेट घराने पिछले 20 वर्ष से चल रहे 'उदारवाद' के नाम पर जनता के शोषण-उत्पीड़न को छिपाने हेतु 'अन्ना-आंदोलन' चलवा रहे हैं जिसका उद्देश्य कारपोरेट और IAS लोगों के भ्रष्टाचार पर पर्दा डालना है। आम जनता को उल्टे उस्तरे से मूढ़ा जा रहा है।
ReplyDeleteअन्ना आंदोलन के कुछ सबक हैं, जिन्हें पढ़ा जाना चाहिए।
ReplyDeleteलोकतांत्रिक शासन के तीनों प्रमुख स्तम्भों की साख को कायम रखने की सबसे बड़ी ज़रूरत है। इसे कांग्रेस बनाम भाजपा करके नहीं देखा जाना चाहिए। अन्ना आंदोलन का राजनीतिक इस्तेमाल हुआ तो जनता का उससे भी मोहभंग होगा। इस साख को वापस लाने में सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों की भूमिका है।
Welcome to
Blogger's Meet Weekly 22
http://hbfint.blogspot.com/2011/12/22-ramayana.html
किसी भी रमणीय सुन्दर रास्ते को अच्छा नही कहा जा सकता यदि वह लक्ष्य तक नही पहुंचाता है।
सार्थक अभिव्यक्ति...समय मिले कभी तो आयेगा मेरी पोस्ट पर आपका स्वागत है ....http://mhare-anubhav.blogspot.com/
ReplyDeleteअन्ना आंदोलन लोगों के काफी बड़े हिस्से का प्रतीक है. शहर का मध्यवर्ग ही नहीं बल्कि गांव के लोग भी इसकी ख़बरें रखते हैं. किसी भी राजनितिक दल के प्रति हमदर्दी रखने वाले लोग होँ, लेकिन इस आंदोलन से लोगों का जुडाव राजनितिक विचारधारा से परे हटकर है.
ReplyDeleteकभी भी सामाजिक या राजनितिक विषयों पर बात या चर्चा ना करने वाले लोग बसों, नुक्कड़, दुकानों पे इस आंदोलन पे बात करते हुए ज़रूर नज़र आयेंगे.जो लोग इस आंदोलन में हिस्सा लेने नहीं भी पहुँच पाये होँ वोह भी किसी न किसी रूप में इससे अपने आप को जुड़ा हुआ महसूस करते हैं. यही इस आंदोलन का आधार है और यही सरकार व अन्य राजनितिक दलों के ऊपर दबाब है
लोकपाल कानून कैसा बनेगा और वो वास्तव में कितना प्रभावी होगा यह तो बाद कि बात है, लेकिन इस आंदोलन ने लोगों के बीच जागरूकता बढ़ाई है और लोगों को यह अहसास भी करवाया है कि उनके आंदोलन के आगे कैसे सरकार भीगी बिल्ली बन सकती है और सरकार को भी मजबूर किया जा सकता है, ये इस आन्दोलन कि फौरी उपलब्धियां हैं जिन्हें नकारा नहीं जा सकता
At least he is fighting against this massively corrupt system. How many people have waged such a war in last 65 yrs. If Anna is undermined, no one in future will dare to challenge the corrupt govt. We need to strengthen Anna rather than arouse secpticism agains him. We have only two choices - meekly submit to the corrupt or fight them.
ReplyDelete@Vijai : very clever - the only person u left out is Soniya Gandhi !!
ReplyDeleteठीक है.....जनता का चुप रहना ही बे-हतर है....
ReplyDeleteलोकपाल पर मची खींचातानी का आखिरी हश्र जो भी हो लेकिन अन्ना आन्दोलन सरकारी तंत्र के लिए एक सीख तो ज़रूर है। आपकी बातों से बिल्कुल सहमत हूँ लेकिन लेख इस भाग पर एक सवाल पूछना चाहूँगा। आप लिख रहे हैं एक सभा के दौरान पत्रकार ने यह पूछा कि आपको अगर शिकायत है तो पत्र क्यों नहीं लिखते? सवाल यह भी उठाया गया है कि हम जो संजीदा लिखते हैं क्या आप उसे पढ़ते हैं? दोनों ही सवाल जायज हैं। लेकिन क्या वास्तव में हम शिकायत नहीं करते? क्या ऐसा है कि हम संजीदा चीज़ें नहीं पढ़ते? बिल्कुल नहीं। हम लिखते भी हैं और पढ़ते भी हैं लेकिन किसी अखबार का ज़वाब नहीं आता। सुनी, सुनाई और दूसरों के द्वारा कही गयी बातों की चर्चा मैं नहीं कर रहा हूँ। खुद का उदाहरण देता हूँ। एक बड़े अखबार की तथ्य से परे रिपोर्ट पर संपादक महोदय से बात करनी चाही, शाम ६ से रात ११ बजे तक एक ही जवाब आया, चैम्बर से कोई जवाब नही आ रहा। इस बाबत लिखा तो आजतक कोई जवाब नहीं आया। एक और बड़े अखबार के संपादक से चर्चा हो रही थी जिसमे कुछ छात्रों को बुलाया गया था। उस चर्चा का उद्देश्य था युवाओं के लिए एक ४ पेज का सप्लीमेंट निकालना। आश्चर्य लगा मुझे जब चर्चा शुरू होने से पहले ही संपादक जी ने शर्त रख दी कि कोई नीति, सरोकार, विमर्श जैसी चीजों की सलाह नहीं दीजियेगा। एक लडके ने फिर भी कहा कि हम गांव से आते हैं ,यू पी एस सी की तयारी के लिए हमें सामग्री चाहिए। क्योंकि गांवों में हमें बहुत कुछ नहीं मिल पाता। और कोई बताने वाला भी नहीं होता। उसकी बातों को नजरंदाज कर दिया गया। मुझे नही लगता कि किसी अखबार को इससे हानि होगी। रीडर भले ही कम मिलेंगे। अंत में उन्होंने नोट भी किया ब्यूटी टिप्स, कुकरी टिप्स, फैशन रिलेटेड खबरें, नेलपॉलिश के नए ब्रांडों की जानकरी, फ़िल्मी स्टार्स के बारे में, उनकी पसंद, नापसन्द इत्यादि, जैसे आइडियाज़ को। माना कि हमें इन चीज़ों की जानकारी चाहिए, यह ज़रुरी भी हैं लेकिन इससे हटकर भी चीज़ें हैं। उन्हें अपने एजेंडे से बाहर कर देना और फिर यह सवाल कि आप शिकायत क्यों नही करते हैं? थोड़ा अजीब है। सिर्फ़ मसाला परोसना अखबार का उद्देश्य हो तो क्या किया जाए?५
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