Friday, August 12, 2011

महत्वपूर्ण है गवर्नेंस की गुणवत्ता


एक ज़माने में भारतीय कम्युनिस्टों पर आरोप लगता था कि जब मॉस्को में बारिश होती है, वे दिल्ली या कोलकाता में अपने छाते खोल लेते हैं। यह बात अब भारत के बिजनेस पर लागू होती नज़र आती है। अमेरिका के क्रेडिट रेटिंग संकट के बाद भारत का शेयर बाज़ार जिस तरह हिला है, उससे लगता है कि हम वास्तविक अर्थव्यवस्था को जानना-समझना चाहते ही नहीं। मीडिया, जिस तरीके से शेयर बाज़ार की गिरावट को उछालता है वह आग में घी डालने का काम होता है। पूरा शेयर बाजार सिर्फ और सिर्फ कयासों पर टिका है। बेशक यह कारोबार देश की अर्थ-व्यवस्था से जुड़ा है। इसमें मध्य वर्ग की मेहनत की कमाई लगी है, जिसे समझदार विदेशी कम्पनियाँ मिनटों में उड़ा ले जाती हैं। हम देखते रह जाते हैं।

यह हफ्ता दो विदेशी और शेष भारतीय घटनाओं के लिए याद किया जाएगा। इनमें आपसी रिश्ते खोजें तो मिल जाएंगे। यों तीनों के छोर अलग-अलग हैं। अमेरिका की घटती साख के अलावा इंग्लैंड में अफ्रीकी और कैरीबियन मूल के लोगों के दंगे सबसे बड़ी विदेशी घटनाएं हैं। अमेरिका की क्रेडिट रेटिंग घटने से यह अनुमान लगाना गलत होगा कि अमेरिका का डूबना शुरू हो गया है। आज भी डॉलर दुनिया की सबसे साखदार मुद्रा है और इस रेटिंग क्राइसिस के दौरान उसकी कीमत बढ़ी है। कम से रुपए के संदर्भ में तो यह सही है। उसके सरकारी बांड दुनिया में सबसे सुरक्षित निवेश माने जाते हैं। यों मौखिक बात वॉरेन बफेट की है, जिन्होंने कहा है कि हमारे लिए अमेरिका की साख ट्रिपल ए की है, कोई उसे बढ़ाए या घटाए, इससे फर्क नहीं पड़ता। पर यह भावनात्मक बातें हैं। दुनिया पर दबदबा बने रखने की जो कीमत अमेरिका दे रहा है, वह ज्यादा है। इस स्थिति की गोर्बाचौफ के रूस के साथ तुलना करें तो पाएंगे कि संस्थाओं और व्यवस्थाओं में फर्क है, मूल सवालों में ज्यादा फर्क नहीं है।

हम दो बातें एक साथ होते हुए देख रहे हैं। पहली है पूँजी का वैश्वीकरण और दूसरी पूँजीवादी व्यवस्था के अंतर्विरोधों का खुलना। संकट अमेरिका का हो या ग्रीस का अब जी-20 देशों का समूह इसका समाधान खोजता है। यह पूँजीवादी व्यवस्था की शक्ति और सामर्थ्य है कि वह अपने संकटों का समाधान खोज लेने में अभी तक सफल है। सोवियत व्यवस्था ने भी अपने अंतर्विरोधों को सुलझाना चाहा था, पर वे विफल रहे। अभी यह संकट सिर्फ अमेरिका का संकट नहीं है, वैश्विक पूँजीवाद का संकट है। वैश्विक पूँजी के और विस्तार के बाद हम इसके वास्तविक अंतर्विरोधों को देख पाएंगे। अमेरिकी व्यवस्था में पिछले कुछ दशक से कॉरपोरेट सेक्टर ने राजनीति की जगह ले ली है। ऐसा ही भारत में करने का प्रयास है। पर क्या यूरोप, चीन और भारत में अंतिम रूप से सफल हो जाएगा?

आज अमेरिका के तीन हजार अरब डॉलर के सरकारी बॉण्ड चीन के पास हैं। अमेरिका का बजट घाटा चीनी मदद से होता है। आज से तीन दशक पहले चीन के पास तीन हजार डॉलर छोड़, इतने डॉलर नहीं थे कि कायदे से वह अंतरराष्ट्रीय व्यापार कर पाता। वह विश्व व्यापार संगठन का सदस्य तक नहीं था। सारे डॉलर अमेरिकी व्यवस्था की मदद से ही तो आए। चीन की अर्थ-व्यवस्था अमेरिका और यूरोप के लिए सस्ता माल तैयार करने वाली व्यवस्था है। जापानी अर्थ-व्यवस्था भी इसी तरह बढ़ी थी। पर भारतीय व्यवस्था में तमाम पेच हैं। यह निर्यात आधारित अर्थ-व्यवस्था नहीं है। हमारा मध्य वर्ग तेजी से बढ़ रहा है। हमें स्थानीय उपभोग के लिए औद्योगिक विस्तार करना है। खेतिहर समाज से औद्योगिक समाज में हमारे रूपांतरण को अनेक लोकतांत्रिक परीक्षणों से गुजरना पड़ रहा है। यह हमें अजब-गजब लगता है, पर कम से कम चीन से बेहतर है। वहाँ की सरकारी नीतियाँ इस तरीके के संसदीय परीक्षण से नहीं गुजरतीं। बेशक पार्टी का लोकतंत्र है, पर वह खुला लोकतंत्र नहीं है।

हम चीन के विशाल हाइवे और सुपरफास्ट ट्रेनों से हतप्रभ हैं। वास्तव में यह तारीफ के काबिल उपलब्धियाँ हैं, पर यह बड़े स्तर की शोकेसिंग भी है। और जो कुछ आप वहां देख रहे हैं, वह डॉलर में मिलता है। सार्वजनिक पूँजी का काफी बड़ा हिस्सा इस शोकेसिंग में लगाया गया है। पर जब सुपरफास्ट ट्रेन की दुर्घटना होती है तब पता लगता है कि उस देश के लोग भी कहीं विचार करते हैं। हमें चीन की जनता के विचारों से रूबरू होने का मौका कम मिलता है। चीन को आने वाले वक्त में जबर्दस्त लोकतांत्रिक आंदोलनों का सामना करना होगा। साथ ही यह भी देखना होगा कि वहाँ की कम्युनिस्ट पार्टी कॉरपोरेट सेक्टर की खिदमतगार है या नहीं। यह भी देखना चाहिए कि चीन ने अपने आर्थिक इन्फ्रास्ट्रक्चर के अलावा शिक्षा, सार्वजनिक स्वास्थ्य, आवास और जन कल्याण के दूसरे कामों को किस तरीके से साधन मुहैया कराए हैं। अंततः जनता का मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य आने वाले वक्त में राजनैतिक व्यवस्था के स्वास्थ्य को निर्धारित करेगा।

भारतीय शेयर मार्केट पिछले कुछ दिनों से वोलटाइल चल रहे हैं। चीन, सिंगापुर या हांगकांग के शेयर बाजार ऐसा व्यवहार करें तो समझ में आता है। हमारा तो कुल अंतरराष्ट्रीय कारोबार में दो फीसदी हिस्सा है। इसकी एक वजह है कि विदेशी निवेशक आने वाले संकट को समय से पहले भाँप जाते हैं और अपना नफा निकाल कर फुर्र हो जाते हैं। यह हमारी व्यवस्था का दोष भी है। पूँजी बाजार के रेग्युलेशन में अभी और काम होना बाकी है। भारतीय लोकतांत्रिक संस्थाओं, व्यवस्थाओं के साथ-साथ गवर्नेंस और नियामन में कड़ाई की ज़रूरत है। यदि इतने बड़े स्तर पर बगैर किसी स्थानीय वजह के शेयर बाजार टूटते हैं तो रेग्युलेटरों को देखना होगा कि चूक कहाँ हुई। मॉरीशस लेकर आइल ऑफ मैन तक अर्थ-व्यवस्था के अनेक ब्लैक होल बने हैं।

जो लोग कहते हैं कि शेयर बाज़ार अर्थ-व्यवस्था इंडीकेटर है, उन्हें पहले शेयर बाजार को कारोबार से जोड़ना होगा। कम्पनियाँ एक बार आईपीओ लाकर जनता से पैसा वसूलती हैं, उसके बाद सेकंडरी मार्केट को मैनीपुलेट करती हैं। यह पैसा कम्पनियों के विस्तार पर खर्च नहीं होता। कम्पनियों के परफॉर्मेंस से शेयर बाजार का जो रिश्ता होना चाहिए, वह हमारे यहाँ नहीं है। इसमें कई तरह के स्वार्थी तत्वों ने सेंध लगा रखी है। अभी हम टू-जी के संदर्भ में कॉरपोरेट महारथियों के विवरण पढ़ रहे हैं। कॉरपोरेट क्राइम पर हमारा ध्यान अब गया है।

हाल में उत्तर प्रदेश में तीन सीएमओ की मौतों के बाद सार्वजनिक स्वास्थ्य के घोटालों की ओर हमारी निगाहें घूमी हैं। मोटी बात यह है कि मनरेगा, सार्वजनिक वितरण व्यवस्था और जन स्वास्थ्य से लेकर कम्पनी कारोबार तक हर जगह हमें गवर्नेंस और नियामन की विफलता नज़र आती है। अनेक परेशानियों के केन्द्र अमेरिका या चीन में होंगे, पर वास्तविक परेशानियाँ हमारे भीतर हैं। एक माने में भारत नई दुनिया है, जिसे अपने आप को खुद परिभाषित करना है। हम प्रायः बात करते हैं तो मानते हैं कि चीन से हमें अपनी तुलना नहीं करनी चाहिए। हम उसके सामने कहीं नहीं हैं। ठीक बात होगी, पर चीन ने ऐसा तीन दशक में किया है। हम कोशिश करें तो एक दशक में परिस्थितियाँ बदल जाएंगी। बल्कि संसदीय बहस वगैरह बंद कराकर आँख मूँदकर सारे नियमों-कानूनों को पास कराते जाएं तो हमें भी सपनों का देश मिल जाएगा, जिसमें शानदार इमारतें, सड़कें, रोशनी और टीवी शो होंगे। हम अमेरिका जैसा बनना चाहते हैं तो वहाँ के शिक्षा, स्वास्थ्य और जन कल्याण के सार्वजनिक कार्यक्रमों को भी तो लाना होगा। विकास माने खुशहाली है चमकदार सड़कें नहीं। चमकदार सड़कें सबके लिए खुशहाली की सौगात ला सकें उससे बेहतर और क्या होगा।

विदेशी घटनाओं के संदर्भ में इंग्लैंड के दंगे इस हफ्ते की प्रमुख घटना है। मोटे तौर पर ये दंगे अफ्रीकी और कैरीबियन मूल के लोगों और इंग्लैंड के जंकीज़ का उत्पात है। इनमें ज्यादातर अपराधी हैं और मुफ्त की कमाई चाहते हैं। पर गहराई से जाएं तो इनके पीछे पिछले साल आई नई सरकार द्वारा पैदा की गई नई उम्मीदों का मर जाना है। सामान्य दंगे होते तो दो-एक दिन में खत्म हो जाते। इंग्लैंड में यह छुट्टियों का वक्त हैं। छुट्टियाँ रद्द करके महत्वपूर्ण सांसद वापस आ रहे हैं। वहाँ की संसद बैठने वाली है। ब्रिटिश संसद गम्भीर विचार करती है। हमारे लिए संदर्भ सिर्फ इतना है कि ऐसे झगड़ों के कारण कहीं और होते हैं। और अंततः वे नॉन गवर्नेंस पर आकर रुकते हैं। जिस देश में जनता और सरकार समझदार हों वहाँ संकट नहीं होते।    

4 comments:

  1. Nice post.

    http://blogkikhabren.blogspot.com/

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  2. In our country sensitivity and seriousness towards solving problems is not important.

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  3. bahut hi achchi jaankari pramod ji...

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  4. स्वाधीनता दिवस की हार्दिक मंगलकामनाएं।

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