Wednesday, August 24, 2011

मीडिया असंतुलित है, अपराधी नहीं

अन्ना हजारे के आंदोलन के उद्देश्य और लक्ष्य के अलावा दो-तीन बातों ने ध्यान खींचा है। ये बातें सार्वजनिक विमर्श से जुड़ी हैं, जो अंततः लोकमत को व्यक्त करता है और उसे बनाता भी है। इस आंदोलन का जितना भी शोर सुनाई पड़ा हो, देश के बौद्धिक-वर्ग की प्रतिक्रिया भ्रामक रही। एक बड़े वर्ग ने इसे राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ प्रवर्तित माना। संघ के साथ इसे सवर्ण जातियों का आंदोलन भी माना गया। सिविल सोसायटी और मध्यवर्ग इनकी आलोचना के केन्द्र में रहे।

आंदोलन के विरोधी लोग इसे अल्पजनसंख्या का प्रभावहीन आंदोलन तो कह रहे हैं, पर लगभग नियमित रूप से  इसकी आलोचना कर रहे हैं। यदि यह प्रभावहीन और जन-प्रतिनिधित्वविहीन है तो इसकी इतनी परवाह क्यों है? हालांकि फेसबुक और ट्विटर विमर्श का पैमाना नहीं है, पर सुबह से शाम तक कई-कई बार वॉल पर लिखने से इतना तो पता लगता है कि आप इसे महत्व दे रहे हैं। एक वाजिब कारण यह समझ में आता है कि मीडिया ने इस आंदोलन को बड़ी तवज्जो दी, जो इस वर्ग के विचार से गलत था। इनके अनुसार इस आंदोलन को मीडिया ने ही खड़ा किया।  चूंकि इस आंदोलन के मंच पर कुछ जाने-पहचाने नेता नहीं थे, इसलिए इसे प्रगतिशील आंदोलन मानने में हिचक है।


लोकपाल कानून को लेकर हमारे बौद्धिक-वर्ग की चेतना अन्ना हजारे के आंदोलन तक ही सीमित है। इसलिए जब इस आंदोलन की घोषणा हुई तो वे चौंक गए। ऐसा नहीं कि इस कानून को लेकर अतीत में बात न हुई हो। या प्रधानमंत्री को इसके दायरे में रखा जाए या न रखा जाए इसे लेकर बहस न हुई हो। संयोग से गैर-कांग्रेस सरकारों ने प्रधानमंत्री को इसके दायरे में लाने के कानून का ही प्रस्ताव किया था। इसमें भाजपा और गैर-भाजपा दोनों किस्म की सरकारें थीं।

इंडिया अगेंस्ट करप्शन और अन्ना हजारे मंच पर तब आए जब देश में भ्रष्टाचार के खिलाफ माहौल बना। इसमें अन्ना की भूमिका क्या है और वे कहां से विधेयक लाए, इसके लिए गहरे अनुमानों की ज़रूरत नहीं है। इसमें अरविन्द केजरीवाल, प्रशांत भूषण, किरन बेदी, स्वामी अग्निवेश और संतोष हेगडे की भूमिकाएं हैं। आंदोलन के लिए नेतृत्व की जरूरत होती है। इसलिए अन्ना को सामने लाया गया। अन्ना इसके पहले महाराष्ट्र में भ्रष्टाचार के खिलाफ मुहिम चला चुके थे।

क्या यह कोई साजिश है या कुछ उत्साही लोगों का अभियान? इस बात को वह व्यक्ति बेहतर बता सकता है, जो इनके साथ करीब से जुड़ा हो। पर मुझे लगता है कि इसके पीछे संघ, सीआईए और अमेरिका की साजिश नहीं है।  और वह साजिश है तो फिर कॉमनवैल्थ गेम्स, टूजी, आदर्श सोसायटी और इसरो के घोटालों का सामने आना भी कोई साजिश है।  यह सम्भव है कि भाजपा, संघ और दूसरी शक्तियाँ इसका फायदा उठाएं। पर नेतृत्व और विचार के दृष्टिकोण से  भाजपा बेदम हो चुकी पार्टी है। आज वह प्राणवान नज़र आ रही है तो इसके पीछे कांग्रेस द्वारा उसे प्लेट में रखकर दिया गया च्यवनप्राश है।

सन 2009 में दूसरी बार चुनाव जीतने के बाद यूपीए के अंदर अहंकार आ गया। जो लोग आज इसके खिलाफ खड़े हैं, उन्ही लोगों ने इसे तब जिताया था। यह सरकार बचकानेपन से काम कर रही थी। गठबंधन धर्म था या अपरिपक्वता इस सरकार में प्रधानमंत्री का पद बेहद कमज़ोर हो गया। साथ ही कई तरह के स्वार्थी तत्व सत्ता का फायदा उठाने के लिए टूट पड़े। एक साल के भीतर ही तमाम घोटाले सामने आ गए। हर घोटाले का सरकार ने खंडन किया। यह ठीक बात है कि इस दौरान कुछ बड़े लोग जेल में गए, पर हर मामला अदालत की पहल पर चला है, सरकार की पहल पर नहीं। जनता की नाराजगी बढ़ने लगी।

क्या मीडिया की साजिश है? मुझे यह साजिश तो नहीं लगती, हाँ बिजनेस के हाथों में जकड़े मीडिया हाउसों का असंतुलन ज़रूर लगता है। पिछले साल जब कॉमनवैल्थ गेम्स के घोटालों को लेकर मीडिया ने खबरों को उछालना शुरू किया तब मीडिया हाउसों का अंतर्विरोध सामने आया। इंडियन एक्सप्रेस सरकार के पक्ष में और टाइम्स ऑफ इंडिया ने मुखालफत में आवाज बुलंद की। एक मीडिया हाउस ने दूसरे अखबारों में बड़े-बड़े  विज्ञापन देकर यह कहने का प्रयास किया कि कॉमनवैल्थ खेल राष्ट्रीय प्रतिष्ठा से जुड़े हैं। इन्हें हो जाने दीजिए। प्रधानमंत्री ने कहा कि खेल हो जाने के बाद दोषी लोगों को बख्शा नहीं जाएगा। बहरहाल जो हुआ, वह हमारे सामने है।

इस साल जनवरी में ट्यूनीशिया की जनता ने अपनी व्यवस्था के खिलाफ जब बगावत की तब तक भारतीय मीडिया नहीं जागा था, पर मिस्र के तहरीर चौक में जब आंदोलन खड़ा हुआ, तब भारतीय टीवी टीमें भी वहां पहुँच गईं। यह नई बात थी। मीडिया की वह साजिश थी या अपने माल को बेचने की कोशिश? 30 जनवरी 2011 को दिल्ली के रामलीला मैदान से जंतर-मंतर तक एक रैली निकाली गई जिसका नेतृत्व श्री श्री रविशंकर, अरविन्द केजरीवाल, किरन बेदी, प्रशांत भूषण, शांति भूषण, महमूद मदनी, मेधा पाटकर, स्वामी अग्निवेश आदि कर रहे थे। उस रैली में काफी भीड़ थी, पर उसकी कवरेज वैसी नहीं थी जैसी आज है। उस रैली में जनलोकपाल बिल की माँग उठाई गई थी, पर उस वक्त तक अन्ना उस बिल के समर्थक थे, प्रवर्तक नहीं।

इस रैली के पहले नवम्बर में बाबा रामदेव ने दिल्ली में कालेधन को लेकर रैली की थी जिसमें उनके भक्त बड़ी संख्या में एकत्र हुए थे, पर मुख्यधारा के मीडिया ने उनपर ध्यान नहीं दिया था। सिर्फ एक धार्मिक चैनल पर वह कार्यक्रम प्रसारित हुआ। पर जनवरी में स्थितियाँ बदल चुकी थीं। ट्यूनीशिया के बाद मिस्र में तहरीर चौक की घटनाएं हो रहीं थीं। 11 फरवरी को हुस्नी मुबारक का पराभव हुआ। भारतीय मीडिया पर वह बड़ी खबर बनी। उन्हीं दिनों जन लोकपाल बिल को लेकर जब अन्ना हजारे प्रधानमंत्री से मिले तब वह बड़ी खबर नहीं थी, पर जब अप्रेल में अनशन की घोषणा हुई तब वह बड़ी खबर बन गई। इस दौरान भारतीय मीडिया वर्ल्ड कप क्रिकेट को डील कर रहा था।

समूचा मीडिया अन्ना हजारे के पक्ष में उतर आया हो तब ऐसी बात नहीं थी। इंडियन एक्सप्रेस ने सरकार के पक्ष में मोर्चा सम्हाला। सिविल सोसायटी क्या होती है , क्यों होती है जैसे सवाल एक्सप्रेस ने ही सबसे पहले उठाए। उसके बाद शांति भूषण और प्रशांत भूषण पर सीधे हमले शुरू हुए। एक सीडी सामने आई। उसकी फोरेंसिक रिपोर्ट को लेकर एक्सप्रेस और हिन्दुस्तान टाइम्स में खबरें छपीं। अंततः वह सीडी प्रकरण गायब हो गया। ये खबरें इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में भी थीं। उस सीडी प्रकरण में अरुणा रॉय और हर्ष मंदर समेत अनेक सामाजिक कार्यकर्ताओं ने शांति भूषण और प्रशांत भूषण का समर्थन किया

मीडिया का अपना कारोबारी रुख है। उसकी कवरेज असंतुलित जरूर है, पर वह साजिश करके कोई चीज़ स्थापित करना चाहता है, ऐसा नहीं लगता। अन्ना के आंदोलन में सभी सामाजिक वर्गों की हिस्सेदारी नहीं है और वंदे मातरम जैसे नारे उसे संघ के करीब ले जाते हैं, ऐसी बातें मीडिया के मार्फत ही सामने आईं। अन्ना का आंदोलन विचारधारा विहीन है, उसमें अजा-जजा, अल्पसंख्यक नहीं हैं। जल,जमीन, जंगल के मसले नहीं हैं वगैरह मीडिया में ही आया। इंटरनेट की सोशल नेटवर्क साइटों पर यह मसला गर्म है। यह मीडिया पर हावी है तो इसकी वजह यही है कि यह मसला है। बेशक हरेक जन-बहुल आंदोलन प्रगतिशील नहीं होता, पर अन्ना के आंदोलन को लोकप्रियता क्रमशः मिली है। यही मीडिया इसपर काफी लानतें भेज चुका है।

अन्ना आंदोलन को जनता का समर्थन मिलने की बुनियादी वजह है भ्रष्टाचार के खिलाफ उसका रुख। पर दो बातें और भी हैं। बाबा रामदेव के समर्थकों पर रात में हुए हमले को जनता ने पसंद नहीं किया। बाबा रामदेव का धरना इतना बड़ा मसला नहीं था कि उसे निपटाया नहीं जा सकता था। पर सरकार ने  नासमझी का परिचय दिया। दूसरी ओर पहले तो एक संयुक्त प्रारूप समिति बनाई, फिर उसमें सिविल सोसायटी के सुझावों को नामंजूर करके सिर्फ अपनी मर्जी का प्रारूप संसद में पेश कर दिया। संसद में केवल सरकार के सांसद ही नहीं होते विपक्ष के सांसद भी होते हैं, पर सरकार ने विपक्ष की पूरी तरह अवहेलना की। प्रारूप समिति में विपक्ष को कोई सदस्य नहीं था। साथ ही इस आंदोलन को भाजपा प्रेरित बताने की कोशिश भी की। इसके बाद 16 अगस्त को अन्ना की गिरफ्तारी भी सरकार को उल्टी पड़ी।

बहरहाल मीडिया की भूमिका तटस्थ दर्शक की है जो अभी दिखाई नहीं पड़ती। यह तटस्थता कवरेज में होनी चाहिए, विचार-विमर्श में भी कोशिश होनी चाहिए की हर रंग का विचार सामने आ जाए। फिलहाल ऐसा नहीं है। दीर्घकालीन साख बनाने के लिए मीडिया को संतुलन की ज़रूरत होगी, पर फिलहाल जल्दबाज़ी है। खासतौर से किसी एक का पक्ष का लेने की कोशिश करने से दूरगामी नुकसान होगा। यह आंदोलन मध्यवर्ग का है या नहीं अब यह साबित करने की ज़रूरत नहीं है। जनता खुद भी देख रही है, पर इस विधेयक का दूरगामी असर हमारे जीवन पर क्या होगा उसे उपने दर्शकों और पाठकों को बताने की ज़रूरत है।

संकट के वक्त हमारी अच्छाइयाँ और खामियाँ एक-साथ सामने आतीं हैं। यह बात राजनीति, प्रशासन, मीडिया और समाज सब पर लागू होती है।






2 comments:

  1. Anonymous11:01 PM

    balanced article

    ReplyDelete
  2. एक-एक चीज क्लियर हो गई...मजा आ गया सर

    ReplyDelete