Monday, August 29, 2011

अन्ना या नो अन्ना, देश की भावना को समझिए



संसद में शनिवार की बहस सुनने के बाद आपको क्या लगता है? संसद में मौजूद सांसदों और पार्टियों का सबसे बड़ा वर्ग टीम अन्ना के प्रस्तावों से सहमत है। ऐसा लगता है कि हर पार्टी गैलरी के लिए बोल रही है। और यह गैलरी पूरा देश नहीं, अपना चुनाव कोना है। अपने समर्थकों तक अपनी बात पहुँचाने की कोशिश में कोई पूरा सच बोलना नहीं चाहता। उन्हें भड़काए रखना चाहता है। संविधान से टकराव और संसदीय मर्यादा की बात सब कह रहे हैं, पर किसका किससे टकराव हुआ? टकराव है तो सामने आता। आश्चर्य इस बात का है कि पिछले छह महीने से देश एक ऐसे मसले की बारीकियों पर पिला पड़ा है, जिससे सिद्धांततः किसी को आपत्ति नहीं। व्यावहारिक आपत्तियों की लम्बी सूची है।

क्या इस आंदोलन के पीछे राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ है? क्या यह बीजेपी में प्राण डालने की कोशिश है? क्या अन्ना के साथ चल रहे नेताओं की टीम बिखर गई है? अन्ना के साथ दलित नहीं हैं, मुसलमान नहीं है, ओबीसी नहीं हैं, आदिवासी नहीं हैं? सिर्फ हिन्दू सवर्ण, शहरी इलीट मध्यवर्ग है? यह  इल्लेजीटिमेट, अनडेमोक्रेटिक, ब्लैकमेल हैं तो इतने बड़े देश के इतने आक्रामक मीडिया की उपस्थिति में इसे स्वीकार कैसे कर लिया गया? बड़े लोगों, बड़ी ताकतों, अमेरिका और मीडिया हाउसों की साजिश क्या सफल हो गई है? क्या हमारी गर्दन अब झुक जानी चाहिए? ऐसे तमाम सवाल इस दौरान सामने आए हैं और अगले कुछ दिनों में कुछ नए सवाल सामने आएंगे। पर सवाल यह है कि संसद में इतनी आसानी से सारे सवालों पर आमराय बनती चली गई तो यह काम पहले सम्भव क्यों नहीं था?

प्रधानमंत्री ने 25 अगस्त को संसद में कहा था कि मुझे लगता है कि पब्लिक डोमेन में जितने बिल हैं उनकी अच्छाइयों और कमज़ोरियों पर हम सदन में चर्चा करें। विस्तार से जब चर्चा होगी तब इन विधेयकों के एक-एक उपबंध और शब्दावली पर विस्तार से बात होगी, पर पिछले कुछ महीनों से की जा रही माँग क्या थी? इसमें दिक्कत क्या थी? और यह क्यों नहीं हो पा रहा था? विधेयकों के उपबंधों पर बात करने के बजाय हम अपने सोशल फैब्रिक, जल-जंगल ज़मीन, इरोम शर्मिला वगैरह पर चर्चा कर रहे थे। क्या साम्प्रदायिक हिंसा, घरेलू हिंसा, भूमि अधिग्रहण कानून, न्यूक्लियर लायबिलिटी बिल पर विचार करते समय भी हम क्या ऐसे सवाल उठाते हैं?

पिछले डेढ़ साल में घोटाला-प्रकरण न हुए होते तो शायद लोकपाल बिल की किसी को याद नहीं आती। अन्ना हजारे इस बिल को नहीं लाए। यह विचार कहीं पड़ा था, किसी ने इसे उठाया, किसी ने अन्ना को खोजा और देखते-देखते यह आंदोलन बन गया। संसद में जो चर्चा शनिवार को हुई वह पहले सम्भव नहीं थी। कविता नहीं, छन्दों का व्याकरण हमपर हावी है। हम उसका नाम लेकर आपका मुँह बंद कर सकते हैं। सारी व्यवस्था एक ओर खुल रही है और पुराने छत्रपों की इज़ारेदारी खत्म हो रही है। दूसरी ओर व्यवस्था पर काबिज लोग उसे खोलना नहीं चाहते। यह समय का संघर्ष है। पानी को उबलने के लिए 100 डिग्री के तापमान का इंतज़ार होता है।

क्या अब सब ठीक हो जाएगा? भ्रष्टाचार खत्म हो जाएगा? सरकारी मशीनरी सुधर जाएगी? राम-राज्य आ जाएगा? ऐसा दावा किसी ने नहीं किया। और भ्रष्टाचार किसी एक कानून से ठीक होने वाली चीज़ नहीं है। बल्कि भ्रष्टाचार की जिस परिभाषा को सामने रखकर लोकपाल कानून बनाने की कोशिश हो रही है, वह अधूरी है। किसी काम को कराने या रोकने के लिए पैसे का लेन-देन इस रोग का मामूली सा लक्षण है। भ्रष्टाचार हमारे भीतर है। वह समाज और संस्कृति में है। उसे दूर करने के लिए शिक्षा, सांस्कृतिक कर्म सामुदायिक पहल की जरूरत है। उसे ठीक करने के लिए पहले उसे पहचानना होगा। अपनी सामाजिक संरचना के दोष खोजने होंगे।

इस आंदोलन का विरोध करने वाला एक तबका सामाजिक न्यायवादियों का है। उन्हें अंदेशा है कि बाबा साहब के बनाए संविधान को लोग बदल डालेंगे। आरक्षण को खत्म कर डालेंगे। लोकपाल के पदों पर सवर्ण हावी होंगे वगैरह। अतीत को देखें तो इस अंदेशे में कोई खराबी नहीं। ऐसा ही हुआ है। पर आप भविष्य को क्यों नहीं देखते? जिस हद तक दलित जातीय-जागरण हुआ है, क्या वह खत्म हो जाएगा? नहीं वह बढ़ेगा। हमारा संविधान अनोखा दस्तावेज है। पर वह समय के साथ बदल रहा है। आरक्षण देने के लिए भी संविधान का पहला संशोधन करना पड़ा था। ओबीसी आरक्षण के लिए भी संविधान संशोधन लाना पड़ा। इस कानूनी प्रक्रिया मात्र से सामाजिक बदलाव नहीं आता। उसकी एक प्रक्रिया है जो समय लेती है।     

इस आंदोलन को अन्ना हजारे, किरन बेदी और अरविन्द केजरीवाल तक सीमित करके क्यों देखें? हम प्रतिमाएं गढ़ते हैं। यह हमारा सामाजिक दोष है। ऐसा नहीं कि आंदोलन में शामिल संघ के कार्यकर्ता नज़र नहीं आते थे। इतने हजार लोगों के लिए हर रोज़ कहीं से आलू-पूड़ी बनकर आते रहे होंगे। यों भी संघ ने आंदोलन के लिए अपना समर्थन घोषित किया था। पर क्या इतने मात्र से यह आंदोलन संघ के हाथों में चला गया? इसमें मेधा पाटकर भी हैं और संतोष हेगड़े भी। संतोष हेगड़े के कारण भाजपा कर्नाटक में येदुरप्पा को हटाने पर मज़बूर हुई। कम से कम वे तो इतना समझते हैं कि यह आंदोलन किसका है। पिछले कुछ दिन से हेगड़े इस आंदोलन से अलग हैं। पर यह अलहदगी उस कारण से नहीं है। और पूरी तरह अलहदगी है भी नहीं। महत्वपूर्ण है आंदोलन में जनता का शामिल होना। किसी ने कहा बाबरी आंदोलन में भी जनता थी। क्या वह आंदोलन प्रगतिशील था? सही बात पर क्या इस आंदोलन में हम वह बात देख रहे हैं? अभी वक्त है। धीरज रखें। अपने अंदेशों को सही या गलत होते देखने के लिए। 

2 comments:

  1. bilkul sahi kaha aapne sir ye waqt dhiraj rakhne ka hi hai kyoki abhi to bhut khuch hona baki hai jis tarah ansan ke dabav me sarkar ne ye bill sadan me charcha ke baad satnding comete ke paas bhejha ussi sse sarkar ki mnsa saaf ho jati hai vastvikta to ye hai ki abhi bhi humri sarkar aur vipash dono hi iss bill ko sadan me pass karne ko isshuk nahi hai vo sirf iss ansan ko kahtam karne ke liye inhone itna ker diya verna kya jaarrorat padi thi isse commete ke pass bhejne ki jabki hum sabhi jante hai ki ye bill 4 time commete ke pass gaya hai aur khuch bhi nahi mila tamam aise bill bhi hai jisse bina standing commete ke pass bheje hi sarkar ne sadan se pass kara liya jiska ek example atmi karar hai jis per khud ki sarkar hi daw per laga ker congress sassit goverment ne bill ko sadan me pass karaya tab kya iss bill ko standing commete ke pass behjne ki jaarurat nahi thi thi to tab bhi kintu sarkar nahi chati thi vo sirf ye chahti thi ki ye bill pass ho aur uss ne pass kara liya ab parshn sirf ek hai ki sirf janlokpal bill ko hi kyo standing commete ke pass bar bar bheja jaa raha hai kyoki sarkar aur sadan nahi chata ki vo khud hi apne pairo per kulahri mar le kahir ye to thi iss bill per sarkar ka najriya ki baat thi ab baat karre agar jan andolan ki to brastachar koi dengu ka bhukhar to hai nahi ki dawa di aur thik ho gaya dewngu ka bhukhar bhi theek hione me 2 se 4 hafte ka time leta hai phir hum kaise ye man le ki jan lokpal aa jane se bharstchar kahtam ho jayega ha ye sahi ki her ek nayi chez ko paane ke liye ek surwat ki jaarurat hoti hai aue vo surwart janlokpal ke dawara ho sakti hai lekin isske liye bhi hume pahle khud ko badlna hoga aur agr aaj se ye surwat hoti hai tab kahi jakar age 50years ke baad hum ye kah sakenge ki brastachar se mukt jis bahart ka sapna hune dekha tha vo khuch had sakar ho saka issleye abhi bahut diraj ki awsayakta hai kintu isske sath ek aham sawal aur hai aur vo ye hai ki berojgari aur garibi se jhujti ye janta kya aisa ker paategi?

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  2. अन्ना पर तोहमत तो वे लगाते है जिनके बसकी कुछ करना है ही नहीं।

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