Thursday, July 29, 2021

अफगानिस्तान से खतरनाक संदेश

 

इस साल मई में काबुल के एक स्कूल पर हुई बमबारी के बाद एक कक्षा में मृत-छात्राओं के नाम पर डेस्क पर रखी पुष्पांजलियाँ

अमेरिकी विदेश मंत्री एंटनी ब्लिंकेन ने कहा है कि अफ़ग़ानिस्तान मामले में चीन का दिलचस्पी लेना “एक सकारात्मक बात” हो सकती है। वह भी तब जब चीन “इस टकराव के शांतिपूर्ण समाधान” और “सही मायने में एक प्रतिनिधि और समावेशी” सरकार को लेकर विचार कर रहा हो। भारत-यात्रा पर आए एंटनी ब्लिंकेन ने यह भी कहा, “देश पर तालिबान के फौजी कब्ज़े और इसे इस्लामिक अमीरात बनने में किसी की दिलचस्पी नहीं है।” उनके इस बयान की यह बात ज्यादा महत्वपूर्ण है।

ट्विटर पर एक वीडियो वायरल हो रहा है, जिसमें लोग एक नौजवान की पत्थर मारकर हत्या कर रहे हैं। पता नहीं वीडियो नया है या पुराना, पर यह खतरनाक संदेश है। सबसे बड़ा खतरा लड़कियों की पढ़ाई को लेकर है। अफगानिस्तान में तालिबान का मजबूत होना इस पूरे इलाके में अराजकता का संदेश है। अफगानिस्तान को मध्य-युगीन अराजक-व्यवस्था बनने से रोकना होगा। अमेरिका के सामने यह बड़ी चुनौती है। भारत के विदेशमंत्री एस जयशंकर ने भी कहा है कि अफगानिस्तान में ताकत के जोर पर स्थापित किसी व्यवस्था का हम समर्थन नहीं करेंगे।

बुधवार को तालिबान का एक प्रतिनिधिमंडल चीन पहुंचा था। मुल्ला अब्दुल ग़नी बारादर की अगुआई वाले दल ने चीन के विदेश मंत्री वांग यी के साथ मुलाक़ात की थी। इस मुलाक़ात के बाद तालिबान के प्रवक्ता ने एक ट्वीट किया कि चीन ने "अफ़ग़ानों को सहायता जारी रखने की अपनी प्रतिबद्धता दोहराई और कहा कि वे अफ़ग़ानिस्तान के मुद्दों में हस्तक्षेप नहीं करेंगे, लेकिन देश में शांति बहाल करने और समस्याओं को हल करने में मदद करेंगे।" वहीं, चीन के विदेश मंत्रालय ने भी एक बयान जारी कर कहा कि वो अफ़ग़ानिस्तान के घरेलू मामलों में "हस्तक्षेप ना करने" की नीति जारी रखेगा।

सबसे बड़ा सवाल है कि चीन की दिलचस्पी किस बात में है? हमारी समझ से उसकी दिलचस्पी दो बातों में है। एक, अफगानिस्तान में सीपैक की तरह बीआरआई कार्यक्रम को लागू करने में और दूसरे शिनजियांग प्रांत के वीगुर उग्रवादियों को काबू में रखने में। तीसरे वह इस इलाके में भारत के प्रभाव को कम करना चाहता है, जिसमें उससे भी ज्यादा बड़ी दिलचस्पी पाकिस्तान की है। पाकिस्तान उसका बगल-बच्चा है। चीन और तालिबान के रिश्तों को मजबूत बनाने में पाकिस्तान पूरी मदद कर रहा है। एक तरफ पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान कहते हैं कि अफगानिस्तान में किसकी सरकार बने, इसमें हमारी दिलचस्पी नहीं है, दूसरी तरफ उसके विदेशमंत्री चीन जाकर तालिबानी शिष्टमंडल के साथ चीनी विदेशमंत्री की मुलाकात कराते हैं।

पाकिस्तान कुछ भी कहे, इसमें दो राय नहीं कि तालिबान उसकी देन हैं। नब्बे के दशक में तालिबान के रूप में अफगानिस्तान में पाकिस्तानी सेना घुसी हुई थी। तालिबान कौन हैं? वे पाकिस्तान में नब्बे के दशक में चले मदरसों की देन हैं। पाकिस्तान ने कट्टरपंथी इस्लाम के बीज इस इलाके में डाल तो दिए हैं, पर जहर का यह प्याला उसे भी पीना होगा। तालिबान का समर्थन करने वाले जानते हैं कि तालिबानी जिस मध्य-युगीन व्यवस्था की स्थापना करना चाहते हैं, वह न तो पाकिस्तानी समाज को पसंद आएगी और न अफगान-समाज को। थोड़ी देर के लिए धार्मिक भावनाओं से प्रेरित होकर लोग इस व्यवस्था को स्वीकार कर भी लें, पर वे इसे देश में लागू नहीं कर पाएंगे।

आधुनिक लोकतांत्रिक व्यवस्थाएं किसी धर्म विशेष की देन नहीं हैं, बल्कि ऐतिहासिक विकास की देन हैं। इसमें तमाम दोष हैं, पर यही एक रास्ता है, जो अंततः दुनिया को कल्याणकारी बनाएगा। इसके गुण-दोष पर विचार करें, पर अफगानिस्तान में जो व्यवस्था बन चुकी है, उसे ताकत के जोर पर समाप्त करने की कोशिश नहीं होनी चाहिए। चीन की दिलचस्पी इस व्यवस्था में नहीं है। वह खुद में एक निरंकुश व्यवस्था का हामी है। विडंबना है कि वह अपने देश में वीगुरों को सहन नहीं करता है, पर अफगानिस्तान में और भी ज्यादा कट्टरपंथी तालिबान उसे स्वीकार्य हैं। 

  

 

 

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