Tuesday, December 16, 2025

ट्रंप की ‘अमेरिका-फर्स्ट’ विदेश-नीति और भारत


अमेरिका के ट्रंप-प्रशासन ने वस्तुतः इस बात की खुली घोषणा कर दी है कि अमेरिकी-प्रभाव के विस्तार के बजाय उसकी आंतरिक-महानता को फिर से स्थापित करना होगा. यानी कि अमेरिका की विदेश-नीति भी मेक अमेरिका ग्रेट अगेन सिद्धांत पर केंद्रित होगी.

अमेरिका की नई राष्ट्रीय सुरक्षा-नीति (एनएसएस) से ऐसा ही आभास मिलता है. हालाँकि यह दस्तावेज़ 25 नवंबर को जारी हुआ था, पर हाल में ही सामने आया है. इस छोटे से दस्तावेज़ में अमेरिका के अंतरराष्ट्रीय हितों, उन हितों के क्रम और समग्र रूप से बदलती विश्व व्यवस्था पर, अब तक का सबसे स्पष्ट वर्णन किया गया है.

आम बोलचाल की भाषा में लिखे गए, इस दस्तावेज़ में ट्रंप और उनकी टीम की खास शैली झलकती है. शुरुआत से ही, यह दस्तावेज़ रणनीति के वास्तविक अर्थ को परिभाषित करता है.

2021 में अपना पद संभालने के बाद जो बाइडेन ने कहा था, ‘अमेरिका इज़ बैक, हमारी विदेश-नीति के केंद्र में डिप्लोमेसी की वापसी हो रही है।’ वह मानवीय और उदार-अमेरिका था. ट्रंप उस उदार-अमेरिका को तमाम समस्याओं की जड़ मानते हैं.

'अमेरिका फर्स्ट'

यह ऐसा दस्तावेज है जो प्रत्येक राष्ट्रपति के कार्यकाल में उनकी विदेश नीति के दृष्टिकोण को रेखांकित करता है. ट्रंप के दूसरे कार्यकाल की राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीति, उनकी 2017 की पहली नीति की तुलना में उनके 'अमेरिका फर्स्ट' के विचार से ज्यादा मेल खाती है.

इसमें उस खेमे का विचार स्पष्ट दिखाई पड़ता है, जो अमेरिका के अत्यधिक विस्तार के परिणामों से चिंतित हैं. उसे लगता है कि अमेरिका ने अपने प्रभाव को बढ़ाने के चक्कर में अपनी ताकत को खोना शुरू कर दिया है.

 

यह दृष्टिकोण अमेरिका की उस अंतरराष्ट्रीयवादी छवि को खारिज करता है, जिसमें माना गया था कि वैश्विक व्यवस्था को बनाए रखने के लिए अमेरिका ‘कोई भी कीमत चुकाने और कोई भी बोझ उठाने’ को तैयार है.

नया विचार पूछता है कि ‘पूरी दुनिया पर स्थायी अमेरिकी-प्रभुत्व क्या हमारे  सर्वोत्तम हित में है?’ जवाब है कि पहला मुद्दा हमारा अपना क्षेत्र है—पश्चिमी गोलार्ध—जो अब ‘मुनरो सिद्धांत के ट्रंप-निहितार्थ (कॉरोलरी)’ के रूप में सामने आया है.

विदेश-नीति और संसाधन

यों तो अमेरिका में राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीति के दस्तावेज़ हमेशा नीति निर्धारण का आधार नहीं बनते. अलबत्ता इसकी इस बात को माना जा सकता है कि विदेश-नीति संसाधनों और विश्व-व्यवस्था में संरचनात्मक परिवर्तनों से बँधी होती है, जिसकी अनदेखी नहीं की जा सकती.

ट्रंप की प्रस्तावित गोल्डन डोम मिसाइल रक्षा परियोजना भी इसी तरह अमेरिका के रक्षा बजट और रक्षा औद्योगिक आधार पर अतिरिक्त दबाव डालेगी, वह भी घरेलू रक्षा के लिए, न कि शक्ति प्रदर्शन के नाम पर.

प्रशासन ने अमेरिका की सॉफ्ट पावर के माध्यमों और विदेशी विकास सहायता (यूएसएड) में भारी कटौती की है. लंबे समय से चल रहे वॉयस ऑफ अमेरिका को बंद कर दिया है. सरकारी सहायता प्राप्त प्रयोगशालाओं और विश्वविद्यालयों में अनुसंधान एवं विकास के लिए धन में कटौती की है.

कई मामलों में यह दस्तावेज़ भी भ्रम से घिरा है. एक जगह यह कहता है कि अमेरिका दुनिया पर प्रभुत्व नहीं चाहता, वहीं दूसरी तरफ यह प्रौद्योगिकी और वित्त में अपना वर्चस्व बनाए रखने और यहाँ तक ​​कि आर्टिफीशियल इंटेलिजेंस और महत्वपूर्ण खनिजों के वैश्विक मानकों को नियंत्रित करने की बात करता है.

भारत के लिए संदेश

भारत की दृष्टि से, एनएसएस 2025 अपनी विदेश-नीति पर पुनर्विचार का अवसर है. भारत को एक ऐसी दुनिया के लिए तैयार रहना होगा जिसमें वाशिंगटन चुनींदा भूमिका निभाएगा. जहाँ उसके मुख्य हित दाँव पर होंगे वहाँ वह सक्रिय होगा, लेकिन शेषनाग की तरह दुनिया को उठाकर नहीं रखेगा.

इस दस्तावेज में भारत की भूमिका तो है, लेकिन उस तरह से नहीं जैसा कि बहुत से लोग सामरिक-दृष्टि से उम्मीद करते हैं. मसलन इसमें न तो हिंद-प्रशांत क्षेत्र की रणनीति है और न एशियाई आधार-स्तंभ (एशियन पिवट) के रूप में भारत की भूमिका.

दस्तावेज़ में कहा गया है, वॉशिंगटन का इरादा ‘भारत के साथ कारोबारी (और अन्य) संबंधों को बेहतर बनाना’ है ताकि नई दिल्ली को और गहराई से शामिल किया जा सके. इसके लिए हिंद-प्रशांत सुरक्षा में योगदान करना होगा, जिसमें क्वॉड भी शामिल है. और ‘किसी भी प्रतिस्पर्धी राष्ट्र के वर्चस्व’ को रोकने के लिए ‘अपने सहयोगियों और साझेदारों को अपने साथ जोड़ने का काम किया जा सके’.

चीन से आर्थिक-प्रतिस्पर्धा

इससे यह निष्कर्ष निकालना मुश्किल नहीं है कि अमेरिका अपने साझेदारों से चीन की औद्योगिक और तकनीकी पहुँच को सीमित करने के अपने व्यापक प्रयास में समर्थन की अपेक्षा करता है. कोई भी अमेरिकी रणनीति जो दुनिया को गुटों में बाँटने का प्रयास करेगी, भारत उसमें शामिल होने से बचेगा.

इलेक्ट्रॉनिक्स और फार्मास्युटिकल्स से लेकर बैटरी और सौर उपकरणों तक, भारतीय उत्पादक चीन से प्राप्त होने वाली सामग्री पर काफी निर्भर है. दक्षिण-पूर्व एशिया और खाड़ी देशों के माध्यम से होने वाला परोक्ष-प्रवाह भारत के उपभोग और विनिर्माण में सहायक है.

अमेरिकी दस्तावेज़ इस निर्भरता को पूरी तरह से स्वीकार नहीं करता. इसमें माना गया है कि भारत को अमेरिकी प्राथमिकताओं के अनुरूप ढलना होगा, जबकि भारत को अभी पर्याप्त मात्रा, गति और किफायती लागत पर वैकल्पिक आपूर्ति की ज़रूरत है.

समाधानकर्त्ता अमेरिका!

दस्तावेज़ में अमेरिका को वैश्विक समस्याओं के समाधानकर्त्ता के रूप में पेश किया गया है. इसमें भारत-पाकिस्तान, इसराइल और ईरान, तथा कंबोडिया और थाईलैंड के बीच टकरावों को गिनाया गया है.

भारत कम से कम अपने मामले में इस बात से सहमत नहीं है. भारत ने हमेशा साफ कहा है कि पाकिस्तान के साथ हमारे रिश्ते पूरी तरह से द्विपक्षीय हैं और बाहरी मध्यस्थता से मुक्त है. जब अमेरिकी ‘शांति समझौतों’ की चर्चा में भारत का नाम आता है, तो भारत को अपनी राजनयिक-सीमाओं पर दृढ़ता से कायम रहना होगा.

ग्लोबल साउथ

दस्तावेज़ में ग्लोबल साउथशब्द का जिक्र नहीं है, जबकि पिछली सरकार के कार्यकाल में, ग्लोबल साउथ को ऐसे समूह के रूप में दिखाया गया था, जिसे आकर्षित करने की कोशिश की जानी है.

नए एनएसएस में, इसे मध्यम-आय और निम्न-आय वाली अर्थव्यवस्थाओं का नाम दिया गया है. ऐसे देश जहाँ चीन और अमेरिका के औद्योगिक-प्रभाव की प्रतिस्पर्धा है.

भारत जैसे देश के लिए यह बेहद महत्वपूर्ण है, जिसने ग्लोबल साउथ की आवाज़ के रूप में खुद को प्रस्तुत करने में भारी निवेश किया है. अमेरिका की दिलचस्पी विकासशील देशों के खनिजों, सप्लाई चेन बाज़ार तक है.

भारत को अफ्रीका, दक्षिण-पूर्व एशिया और पश्चिम एशिया के कुछ हिस्सों में अमेरिका के साथ तालमेल बिठाने के बजाय समानांतर रूप से काम करना होगा. अफ्रीका में यह मतभेद और स्पष्ट होगा.

अफ्रीका में भारत के हित व्यापक हैं, जो प्रवासी भारतीयों के संबंधों, राजनीतिक साझेदारियों और समुद्री हितों से जुड़े हैं. वाशिंगटन का संसाधन-केंद्रित दृष्टिकोण भारत के व्यापक एजेंडा के साथ मेल नहीं खाएगा.

अमेरिकी हित

नई रणनीति के तहत अब अमेरिका को मध्य और दक्षिण अमेरिका में लचीली और सहयोगी सरकारों की ज़रूरत है, ताकि प्रवासियों और नशीले पदार्थों के प्रवाह को रोका जा सके, और शत्रुतापूर्ण शक्तियों को राजनीतिक क्षेत्र और रणनीतिक संपत्तियों, जैसे बंदरगाह और खनन से बाहर रखा जा सके.

अमेरिका ने क्षेत्रीय पुलिसवाले की भूमिका बताने वाले मुनरो-सिद्धांत को लंबे समय तक बिसराने के बाद अब इस इलाके पर ज्यादा ध्यान देने का विचार व्यक्त किया है.

वेनेजुएला के उदाहरण से स्पष्ट है कि इस सिद्धांत का महाद्वीप पर सीधा प्रभाव पड़ रहा है. इसका वैश्विक प्रभाव भी पड़ेगा, क्योंकि ट्रंप-निष्कर्ष को लागू करने के लिए अन्य क्षेत्रों—हिंद-प्रशांत, यूरोप और पश्चिम एशिया—में राजनीतिक और सैनिक दोनों संसाधनों का पुनर्वितरण करना होगा.

महाशक्ति-प्रतिस्पर्धा

दूसरा विचार है, महाशक्ति-प्रतिस्पर्धा की अनदेखी करें. दस्तावेज़ के लगभग दो-तिहाई हिस्से में जाकर चीन का नाम पहली बार लिया गया है. राष्ट्रपति बाइडेन की राष्ट्रीय रक्षा नीति (एनएसएस) में चीन प्रमुखता से शामिल था.

ट्रंप की नई रणनीति में हिंद-प्रशांत क्षेत्र में शक्ति संतुलन को बिगाड़ने के चीन के प्रयासों का कोई सीधा ज़िक्र नहीं है, केवल ताइवान के सेमीकंडक्टर और पहले द्वीपसमूह तक सुनिश्चित पहुँच खोने के जोखिम के बारे में अप्रत्यक्ष चेतावनी दी गई है.

ऐसा करते हुए चीन की अनेक गतिविधियों को फिलहाल नजरंदाज़ किया गया है. रूस को ऐसे मुद्दे के रूप में देखा है, जिससे यूरोपीय देशों के अस्तित्व को खतरा है.

ट्रंप-निष्कर्ष है कि अमेरिका ऐसे किसी संघर्ष में भागीदार नहीं है, बल्कि मध्यस्थ है. यूरोपीय देश ‘अपनी रक्षा की प्राथमिक जिम्मेदारी’ लें, नेटो के निरंतर विस्तार की अपेक्षा को त्याग दें, और रक्षा खर्च में भारी वृद्धि के नए मानक को पूरा करें.

2017 में, रूस का ज़िक्र 25 बार हुआ, हमेशा नकारात्मक रूप में, और 11 बार चीन के साथ. इन दोनों देशों को अमेरिका के दुश्मन के रूप में माना गया. इसबार रूस का ज़िक्र 10 बार और चीन का 21 बार किया गया है, और दोनों के प्रति कोई स्पष्ट कटुता नहीं है.

सभ्यतागत-राष्ट्रवाद

एनएसएस उदार सार्वभौमिकता के स्थान पर सभ्यतागत-राष्ट्रवाद का पक्षधर है, जिसकी वकालत भारत की वर्तमान राजनीति समेत यूरोप में बढ़ते राष्ट्रवाद के समर्थक कर रहे हैं. एनएसएस का कहना है कि ‘राष्ट्रों को अपने मार्ग चुनने का संप्रभु अधिकार है; अमेरिका उन्हें बदलने का समर्थन नहीं करता.’

यह रुख चीन, भारत और रूस सहित कई देशों की प्राथमिकताओं के अनुरूप है, जिन्होंने अपनी आंतरिक राजनीतिक व्यवस्थाओं में अमेरिकी हस्तक्षेप का विरोध किया है.

इसी के तहत ट्रांस-अटलांटिक यानी कि यूरोप से रिश्ते भी आते हैं. इसमें ‘यूरोप के सभ्यतागत आत्मविश्वास और पश्चिमी पहचान’ की बहाली पर ज़ोर दिया गया है.

राष्ट्र-राज्य की संप्रभुता

दस्तावेज़ में उन अंतरराष्ट्रीय नियमों की आलोचना की गई है, जो ‘राजनीतिक स्वतंत्रता और संप्रभुता को कमजोर करते हैं’, उन व्यवस्थाओं को लेकर चेतावनी दी गई है, जो ‘राजनीतिक विरोध को दबाती हैं’ और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को कम करती हैं.

दस्तावेज़ कहता है, ‘विश्व की मूलभूत राजनीतिक इकाई राष्ट्र-राज्य है और रहेगी. यह स्वाभाविक और न्यायसंगत है कि सभी राष्ट्र अपने हितों को सर्वोपरि रखें और अपनी संप्रभुता की रक्षा करें. विश्व तभी सबसे अच्छे ढंग से कार्य करता है जब राष्ट्र अपने हितों को प्राथमिकता देते हैं…हम राष्ट्रों के संप्रभु अधिकारों के लिए खड़े हैं, और देशों की संप्रभुता को कमजोर करने वाले अंतरराष्ट्रीय संगठनों के हस्तक्षेपों के खिलाफ हैं.

आवाज़ द वॉयस में प्रकाशित

No comments:

Post a Comment