Wednesday, February 14, 2024

पाकिस्तान का राजनीतिक-घटनाक्रम और भारत


पाकिस्तान में पिछले हफ्ते हुए चुनाव के बाद आए परिणामों ने किसी एक पार्टी की सरकार का रास्ता नहीं खोला है और घूम-फिरकर गठबंधन सरकार बन रही है, जो सेना के सहारे काम करेगी. इस चुनाव ने इस बात की ओर इशारा किया है कि भले ही इमरान खान को फौरी तौर पर हाशिए पर डाल दिया गया है, पर वे उन्हें हमेशा के लिए राजनीति से बाहर नहीं किया जा सकता. उनकी वापसी भी संभव है. 

बहरहाल अब राष्ट्रपति की जिम्मेदारी है कि मतदान के बाद 21 दिन के भीतर यानी 29 फरवरी तक वे क़ौमी असेंबली का इजलास बुलाएं. पहले भी तीन बार प्रधानमंत्री पद पर काम कर चुके नवाज़ शरीफ ने बजाय खुद प्रधानमंत्री बनने के अपने भाई शहबाज़ शरीफ का नाम इस पद के लिए आगे बढ़ाया है. शहबाज़ शरीफ अभी तक बहुत प्रभावशाली नहीं रहे हैं. नवाज़ शरीफ भी बने, तो वे उतने प्रभावशाली नहीं होंगे, जितने कभी होते थे.

नवाज़ शरीफ की पार्टी पाकिस्तान मुस्लिम लीग (नून) को चुनाव में वैसी सफलता नहीं मिली, जिसका दावा उनकी तरफ से किया गया था. अलबत्ता उनकी पार्टी संभवतः पंजाब में अपनी सरकार बना लेगी.

इस चुनाव को लेकर कई तरह की शिकायतें हैं. मतदान के दिन इंटरनेट पर रोक लगने से पूरी व्यवस्था ठप हो गई. उसके बाद सोशल मीडिया के प्लेटफॉर्मों को ठप किए जाने की खबरें मिलीं. कार्यकर्ताओं की गिरफ्तारी और बैलट पेपरों के साथ गड़बड़ी की शिकायतें भी हैं.

इन बातों को लेकर अमेरिका, ब्रिटेन और यूरोपियन यूनियन न केवल विरोध व्यक्त किया है, बल्कि इन गड़बड़ियों की जाँच कराने की माँग भी की है. सवाल है कि यह जाँच कौन करेगा? ये सारे सवाल पाकिस्तान के बुनियादी लोकतंत्र से जुड़े हैं. सवाल यह भी है कि भारत-पाक रिश्तों के संदर्भ में इस घटनाक्रम का मतलब क्या है?

फौज का वर्चस्व

केंद्रीय सत्ता पर राजनीतिक दलों के कमजोर होने का मतलब है सेना का पूर्ण नियंत्रण. राजनीतिक-आर्थिक स्थिरता के लिहाज से यह एक मायने में मज़बूरी है. हालांकि जनता का फैसला एक तरह से सेना की राजनीतिक भूमिका के खिलाफ है, फिर भी आज के हालात में पाकिस्तान में सरकारी व्यवस्था तभी चलेगी,  जब सेना और नागरिक सरकार एक पेज पर हों.

इसका मतलब यह भी है कि पेचीदगियाँ बनी रहेंगी, क्योंकि नागरिक-प्रशासन के हित जरूरी नहीं कि एक जैसे हों. सेना की कोशिश होगी कि आर्थिक-संसाधनों का ज्यादा बड़ा हिस्सा उसे मिले, जबकि आम नागरिक की बदहाली को देखते हुए ज़रूरतें कुछ और हैं.

इमरान का भविष्य

लगता यह भी है कि इमरान खान अभी जेल में ही रहेंगे और उनके तेवरों में भी बदलाव नहीं आएगा. पिछले साल राष्ट्रीय-संसद भंग होने के पहले तक एक संभावना थी कि वे बड़ी ताकत बनकर उभरेंगे, पर हुआ इसका उल्टा और वे व्यवस्था की जंजीरों में जकड़ गए. एक वक्त ऐसा भी लगा कि उनका अब कोई भविष्य नहीं है, पर चुनाव के इन परिणामों ने उनकी सार्थकता को बनाए रखा है.

पिछले हफ्ते हुए चुनाव के ठीक पहले लगता था कि सब कुछ खानापूरी है. इमरान खान की पार्टी खत्म हो चुकी है. सेना की सहायता से अब नवाज़ शरीफ की पार्टी विजेता बनकर आएगी. यह बात पूरी तरह सही साबित नहीं हुई.  

इमरान की पार्टी तहरीके इंसाफ हालांकि चुनाव में थी ही नहीं, फिर भी अनौपचारिक रूप से उसका नंबर एक बनकर उभरना बड़ी बात है. इतनी बड़ी संख्या में निर्दलीय उम्मीदवारों का जीतकर आना इमरान की लोकप्रियता को साबित करता है.

क्या कहते हैं परिणाम

पाकिस्तान की नेशनल असेंबली में 336 सीटें हैं, पर चुनाव 266 सीटों का होता है. 60 सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित हैं, जिनका चयन पार्टियों को प्राप्त आनुपातिक मतों के आधार पर होता है. शेष 10 सीटें धार्मिक अल्पसंख्यकों के लिए आरक्षित हैं.

इसबार 265 सीटों के लिए चुनाव हुए हैं, जिनमें से 264 के परिणामों की घोषणा हुई है. चूंकि इमरान समर्थक सभी सांसद निर्दलीय हैं, इसलिए महिला और अल्पसंख्यक आरक्षण का लाभ उन्हें नहीं मिलेगा. उधर पीएमएल का दावा है कि करीब दो दर्जन निर्दलीय सदस्य उनके साथ जुड़ने वाले हैं. छह सदस्यों के शामिल होने की खबरें भी आई हैं. फिलहाल असमंजस की स्थिति है.  

जेल में कैद इमरान खान ने चुनाव में बैट के बगैर सैकड़ा पीट दिया है. निर्दलीयों को 102 सीटें मिली हैं. इनमें से 97 इमरान खान समर्थक और 5 अन्य निर्दलीय हैं. इमरान समर्थकों को तकनीकी कारणों से पार्टी की चुनाव-चिह्न बैट नहीं दिया गया. नवाज़ शरीफ की पार्टी पीएमएल-एन को 76 और भुट्टो-ज़रदारी परिवार की पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी को 54 सीटें मिली हैं. 32 सीटों पर अन्य उम्मीदवारों को जीत मिली है (इनमें से 17 पर एमक्यूएम के उम्मीदवार जीते हैं).

जनता की नाराज़गी

इमरान खान को आपराधिक मामलों में जेल में डालना भी समझ में आता है, पर यह बात समझ में नहीं आती कि केवल इतनी बात पर कि उनकी पार्टी में आंतरिक चुनाव नहीं हुए थे, उनका चुनाव चिह्न छीन लिया गया और पार्टी के रूप में उन्हें चुनाव लड़ने से वंचित कर दिया गया.

साइफर केस और तोशाखाने में मिली सज़ाएं भी समझ में आती हैं, पर इद्दत के मामले में सज़ा मिलना समझ में नहीं आता. हमें यह अन्याय लगता है, तो पाकिस्तानी जनता को भी लगता होगा. उसने सरकारी नाइंसाफी का जवाब बैलट से दिया है.  

लोकतंत्र का भविष्य

अब ज्यादा बड़ा सवाल है कि पाकिस्तान का लोकतंत्र किस दिशा में जाएगा. इमरान खान पाकिस्तानी जनता के एक बड़े तबके को यह समझाने में कामयाब हुए है कि मुख्यधारा के राजनीतिक दल और सेना बेईमान है और विदेशी-ताकतों के साथ उनका गठजोड़ है. यों भी देश की जनता के मन में पहले से लोकतंत्र और राजनीति को लेकर कड़वाहट है.

यह कड़वाहट पैदा करने में सेना की भूमिका भी है. जनता को यह भी समझना होगा कि नागरिक-प्रशासन के अंतर्विरोध होते हैं, जिन्हें समझना और उनका समाधान करना आसान नहीं है. इमरान ने जनता के विरोध को भड़काने में सफलता तो हासिल कर ली है, पर देश को रास्ते पर ले जाने की योजना उनके पास भी नहीं पड है. वे केवल भावनाओं को भड़काकर काम निकालना चाहते हैं.

बावजूद इसके इमरान की यह सफलता कई मायनों में अधूरी है. एक, उनके उम्मीदवारों को पूर्ण बहुमत नहीं मिला है, जिसके कारण वे नवाज़ शरीफ को प्रधानमंत्री बनने से रोक नहीं पाएंगे. दूसरे, इन निर्दलीय उम्मीदवारों को पार्टी के साथ अपनी संबद्धता को भी स्थापित करना है.

इस चुनाव के दौरान जो सबसे बड़ी बात साबित हुई है, वह यह कि सेना उतनी ताकतवर नहीं है, जितना समझा जाता है. इमरान खान ने बार-बार खुलेआम सेना की निंदा करके उसकी ताकत को चुनौती दी है. उन्हें कैद ज़रूर कर लिया गया है, पर उनका मुँह बंद नहीं किया जा सका है.

भारत का नज़रिया

भारत की नज़रों से देखें, तब भी असमंजस नज़र आएगा. दोनों देशों के रिश्तों में लगातार बिगाड़ में सेना की बड़ी भूमिका है. कम से कम नवाज़ शरीफ के पिछले कार्यकाल में सेना ने ऐसे मौकों पर अड़ंगा लगाया, जब बात आगे बढ़ रही थी. यह सवाल अब फिर उठेगा कि भारत को किससे बात करनी चाहिए, सेना से या नागरिक सरकार से?

भारतीय व्यवस्था नागरिक सरकार की अनदेखी नहीं कर सकती है और भारत से रिश्तों के फैसले वहाँ की सेना करती है. ऐसा इसलिए, क्योंकि पाकिस्तानी व्यवस्था को येन-केन प्रकारेण टू नेशन थ्योरी को सही साबित करना है.

पाकिस्तान में एक पूरा प्रतिष्ठान भारत-विरोध के नाम पर खड़ा है. उसका मूल स्वर है ‘कश्मीर बनेगा पाकिस्तान.’ कश्मीर के मामले पर पूरा देश बेहद ऊँचे तापमान पर गर्म रहता है. दोनों देशों के रिश्तों की गाड़ी ऊबड़-खाबड़ रास्तों पर चलती है. किसी भी क्षण जबर्दस्त झटका लगता है और सब कुछ बिखर जाता है. फिर भी एक आस बँधी रहती है कि शायद अब कुछ सकारात्मक हो.

उलट-पुलट का दौर

यह तस्वीर तीन साल पहले फरवरी-मार्च 2021 में हमने देखी, जब रिश्ते सुधरते दिखाई पड़े और फिर सब कुछ बदल गया. फरवरी 2021 में दोनों देशों ने नियंत्रण रेखा पर गोलाबारी रोकने का फैसला किया था. तब लगा कि शायद अब बातचीत की ज़मीन तैयार होगी.

इसके बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री इमरान खान और नरेंद्र मोदी के बयानों से लगा कि रिश्ते सुधार की दिशा में बढ़ रहे हैं. 23 मार्च को ‘पाकिस्तान दिवस’ पर नरेंद्र मोदी ने इमरान खान को बधाई का पत्र भेजा कि पाकिस्तान के साथ भारत दोस्ताना रिश्ते चाहता है. साथ ही यह भी कि दोस्ती के लिए आतंक मुक्त माहौल जरूरी है.

जवाब में इमरान खान की चिट्ठी आई, 'हमें भरोसा है कि दक्षिण एशिया में शांति और स्थिरता के लिए दोनों देश सभी मुद्दों को सुलझा लेंगे, खासकर जम्मू-कश्मीर को सुलझाने लायक बातचीत के लिए सही माहौल बनना जरूरी है.' दोनों पत्रों में रस्मी बातें थीं, पर दोनों ने अपनी सैद्धांतिक शर्तों को भी लिख दिया था. फिर भी लगा कि माहौल ठीक हो रहा है.

उसके बाद 31 मार्च को जब खबर मिली कि पाकिस्तान की इकोनॉमिक कोऑर्डिनेशन काउंसिल (ईसीसी) ने भारत से चीनी और कपास मँगाने का फैसला किया है, तो लगा कि रिश्तों को बेहतर बनाने का जो ज़िक्र एक महीने से चल रहा है, यह उसका पहला कदम है. एक नई बात यह भी थी कि रिश्ते बेहतर बनाने की पहल सेना की तरफ से हो रही थी.

तेज यू-टर्न

खबरें हवा में थीं कि यूएई की सरकार ने बीच में पड़कर माहौल को बदला है. तीन महीनों से दोनों देशों के बीच बैक-चैनल बात चल रही है वगैरह. यूएई के अमेरिका स्थित राजदूत ने ऐसा दावा भी किया.

आंशिक-व्यापार शुरू करने के ऐलान पर प्रतिक्रियाएं आई नहीं थीं कि पाकिस्तानी  कैबिनेट ने इस फैसले को रोक दिया और कहा कि जब तक भारत 5 अगस्त, 2019 के फैसले को रद्द करके जम्मू-कश्मीर में 370 की वापसी नहीं करेगा, तब तक कारोबार नहीं होगा.

इतने तेज यू-टर्न की उम्मीद किसी को नहीं थी, पर भारत-पाक रिश्तों में ऐसा ही होता रहा है. 9 अगस्त, 2019 को जब भारत ने जम्मू कश्मीर से अनुच्छेद 370 और 35ए को निष्प्रभावी किया तब पाकिस्तान ने भारत स्थित अपने उच्चायुक्त को वापस बुला लिया और साथ ही व्यापारिक संबंध भी समाप्त करने की घोषणा की थी.

क्या बर्फ पिघलेगी?

तब से स्थिति जस की तस है. अब जब वहाँ नई सरकार बनने जा रही है, तब सवाल मन में आता है कि क्या कारोबारी रिश्ते फिर से जुड़ेंगे और क्या दोनों देशों के उच्चायुक्तों की बहाली होगी? क्या खेल के मैदान, सिनेमा और संगीत के हमारे परंपरागत रिश्ते फिर से कायम होंगे?

सच यह है कि दोनों देशों के बीच जबर्दस्त अबोला है, पर दूसरा सच यह भी है कि अनौपचारिक सतह पर कहीं न कहीं बात चलती रहती है. किसी भी वक्त कुछ भी नाटकीय हो सकता है.

आवाज़ द वॉयस में प्रकाशित

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