Sunday, March 20, 2022

‘कश्मीर फाइल्स’ में छिपे संदेश


इतिहास की विसंगतियाँ, विडंबनाएं और कटुताएं केवल किताबों में ही नहीं रहतीं। वे लोक-साहित्य, संगीत और सांस्कृतिक रीति-रिवाजों में भी संचित होती हैं। यह सामाजिक जिम्मेदारी है कि वह उनसे सबक सीखकर एक बेहतर समाज बनाने की ओर आगे बढ़े, पर अतीत की अनुगूँज को नकारा नहीं जा सकता। विवेक अग्निहोत्री की फिल्म ‘द कश्मीर फाइल्स’ ने राष्ट्रीय-बहस के जो दरवाजे खोले हैं, उसके सकारात्मक और नकारात्मक प्रभाव दोनों हैं। इस फिल्म में अतीत की भयावहता के कुछ प्रसंग हैं, जो हमें विचलित करते हैं। पर इससे जुड़े कुछ सवाल हैं, जिनसे फिल्म की उपादेयता या निरर्थकता साबित होगी।

क्या यह झूठ है?

क्या हम इन घटनाओं से अपरिचित थे? फिल्म में जो दिखाया गया है, क्या वह झूठ या अतिरंजित है? जब यह हो रहा था, तब देश क्या कर रहा था? इस उत्पीड़न को क्या नाम देंगे? नरमेध, जनसंहार या मामूली हिंसा, जो इन परिस्थितियों में हो जाती है? उनके पलायन को क्या कहेंगे, जगमोहन की साजिश, पंडितों का प्रवास या एक कौम का जातीय सफाया ‘एथिनिक क्लींजिंग’? फिल्म को लेकर कई तरह का प्रतिक्रियाएं हैं, जिनके मंतव्यों को भी पढ़ना होगा। देखना होगा कि फिल्म को बनाने के पीछे इरादा क्या है। अलबत्ता इस मामले को देश की राजनीति के चश्मे से देखने पर हम मूल विषय से भटक जाएंगे। मसलन कहा जाता है कि दिल्ली में वीपी सिंह के नेतृत्व में राष्ट्रीय मोर्चा की जो सरकार थी, उसे भारतीय जनता पार्टी का समर्थन प्राप्त था। समर्थन तो वाम मोर्चा का भी प्राप्त था। इससे साबित क्या हुआ? पंडितों की हत्याएं इस सरकार के आगमन के पहले से चल रही थीं और उनका पलायन इस सरकार के गिरने के बाद भी जारी रहा। कश्मीर में जेहादियों का असर बढ़ने के कारणों को हमें कहीं और खोजना होगा।

बहरहाल फिल्म व्यावसायिक रूप से सफल है, क्योंकि उसे जनता का समर्थन मिला है। पर जैसे नारे सिनेमाघरों में सुनाई पड़ रहे हैं, क्या वे चिंता का विषय नहीं हैंदूसरी तरफ कश्मीरी पंडितों की बदहाली के लिए भारत के मुसलमान दोषी नहीं हैं। सच यह भी है कि इस फिल्म के बनने के साथ ही इसका विरोध शुरू हो गया था। यह सफलता इसके विरोध की प्रतिक्रिया को भी दर्शा रही है। हमारी कथित प्रगतिशील राजनीति जमीनी सच्चाई को देख पाती, तो बहुत सी घटनाएं होती ही नहीं। सवाल है कि यह फिल्म नफरत फैला रही है या इसके पीछे राष्ट्रवादी चेतना की अभिव्यक्ति है? इसका जवाब बरसों बाद मिलेगा।

झकझोरने वाली फिल्म

तमाम सवाल हैं और उनके संतुलित, वस्तुनिष्ठ और ईमानदार जवाब देना बहुत कठिन काम है। फिल्म न तो पूरी तरह डॉक्यूमेंट्री है और न काल्पनिक कथाचित्र। इस पृष्ठभूमि पर पहले भी फिल्में आईं हैं, पर ज्यादातर में भयावहता और कटुता से बचने की कोशिश की गई है, पर इस फिल्म का ट्रीटमेंट फर्क है। यह भी नैरेटिव है, जो काफी लोगों को विचलित कर रहा है। इसे पूरी तरह डॉक्यूमेंट्री के रूप में नहीं बनाया गया है, बल्कि एक कहानी बुनी गई है, जिसके साथ वास्तविक प्रसंगों को जोड़ा गया है। शिल्प और कला की दृष्टि से फिल्म कैसी बनी है, यह एक अलग विषय है, पर इसमें दो राय नहीं कि इसने काफी बड़े तबके को झकझोर कर रख दिया है।

राजनीतिक उद्देश्य?

क्या इसे राजनीतिक इरादे से बनाया गया है? फिल्म 11 मार्च, 2022 को रिलीज हुई। पाँच राज्यों में चुनाव परिणाम आने के बाद। अब कहा जा रहा है कि इसका लक्ष्य गुजरात के चुनाव हैं। इतना तय है कि इस फिल्म का सामाजिक जीवन पर भारी असर होगा, जो सिनेमाघरों में दिखाई पड़ रहा है। कश्मीर का मसला मोदी सरकार बनने के बाद खड़ा नहीं हुआ है। ‘कश्मीर फाइल्स’ को बनाने के पीछे राजनीति है, तो उसके विरोध के पीछे भी राजनीति है। आप वक्तव्यों को पढ़ें। नेशनल कॉन्फ्रेंस के नेता मुस्तफा कमाल ने शुक्रवार को कहा कि कश्मीरी पंडितों के साथ जो हुआ, वह उनकी अपनी मर्जी से हुआ। नेशनल कॉन्फ्रेंस के नेता फारूक अब्दुल्ला उसके लिए जिम्मेदार नहीं थे। राज्य में जगमोहन की सरकार थी। फारूक अब्दुल्ला वास्तव में जिम्मेदार नहीं थे, पर इसे जगमोहन की योजना बताना भी गलत है। पंडितों की हत्याएं जगमोहन के आने के काफी पहले से शुरू हो गईं थीं। दूसरे उनके राज्यपाल बनने के अगले दिन से ही भारी पलायन शुरू हो गया। इसके पीछे पाकिस्तान-समर्थित जेहादी ग्रुप थे, जो आज भी वहाँ सक्रिय हैं। कौन छोड़ता है अपना घर? यह कोई एक-दो दिन या एक-दो साल का घटनाक्रम नहीं था।

पाकिस्तानी योजना

काफी लोग मानते हैं कि कश्मीरी पंडित का पलायन 19 जनवरी 1990 से शुरू हुआ, जब जेहादी संगठनों ने उन्हें घाटी छोड़ने का आदेश दिया। पर यह कहानी इसके पहले शुरू हो गई थी। 14 सितंबर, 1989 को चरमपंथियों ने भारतीय जनता पार्टी के राज्य सचिव टिक्का लाल टपलू की हत्या की। जम्मू-कश्मीर लिबरेशन फ़्रंट के नेता मक़बूल बट को मौत की सज़ा सुनाने वाले सेवानिवृत्त सत्र न्यायाधीश नीलकंठ गंजू की हत्या उसके डेढ़ महीने बाद हुई। यह क्रम चलता रहा। विडंबना है कि इस त्रासदी का जिक्र करने वाले लोग साम्प्रदायिक कहलाए। आज भी जो बातें कही जा रहीं है उनमें एक यह कि मरने वालों में मुसलमानों की संख्या हजारों में है। यह सच है, पर उन्हें किसने मारा? पंडितों ने तो नहीं मारा। तकरीबन चार लाख पंडित बेघरबार हुए या मारे गए। पंडितों को जितनी शिकायत आतंकवादियों से है उतनी भारतीय राज-व्यवस्था से भी है।

क्यों हुआ पलायन?

पत्रकार राहुल पंडिता की पुस्तक ‘अवर मून हैज़ ब्लड क्लॉट्स’ (हमारे चाँद पर खून के थक्के हैं) पर आधारित फिल्म ‘शिकारा’ 2020 में प्रदर्शित हुई। जब वह फिल्म प्रदर्शित हुई, तब उसकी कलात्मकता की बहुत से लोगों ने तारीफ की वहीं, बड़ी संख्या में ऐसे लोग भी थे, जिन्होंने कहा कि फिल्म ने पंडितों के साथ न्याय नहीं किया। राहुल पंडिता ने माना कि फिल्म निर्माता ने उन प्रसंगों को दबाकर पेश किया, जो विचलित करते थे। उन्होंने माना कि फिल्म पूरी तरह किताब पर आधारित नहीं थी, बल्कि काल्पनिक कथाचित्र था। राहुल पंडिता की किताब 2013 में प्रकाशित हुई, उस त्रासदी के 22 साल बाद। उसके दो दशक पहले आतंकवादियों ने राहुल के भाई और दो अन्य पंडितों को बस से उतारा और गोली मार दी। इसके बाद उनका परिवार घाटी छोड़कर चला गया। वॉलस्ट्रीट जर्नल की वैबसाइट पर प्रकाशित इंटरव्यू में राहुल पंडिता ने कहा, कश्मीरी पंडित क्रूर जातीय सफाए (क्लींजिंग) के शिकार बन गए। कौन था इसके पीछे, उन्होंने ऐसा क्यों किया, उसके लिए अलग से बहस की जरूरत है।

जारी आतंकवाद

ऐसा नहीं कि कश्मीरी पंडितों को 1989-90 में ही घाटी छोड़ने का हुक्म हुआ और उसके बाद सब ठीक हो गया। मार्च 2013 में गृह राज्यमंत्री आरपीएन सिंह ने संसद में स्वीकार किया कि घाटी में रहने वाले पंडितों को एक पत्र मिला है कि वे कश्मीर छोड़कर चले जाएं। आज भी कभी बिहारी कामगारों की हत्या होती है, कभी किसी हिन्दू अध्यापक की। मुसलमानों की हत्याएं भी होती हैं। उनकी हत्या करने वाले उनके ही धर्म के कट्टरपंथी जेहादी ग्रुप है। ये हत्याएं या तो इसलिए होती हैं, क्योंकि ये लोग उनके जेहादी आदेशों को मानने में कच्चे रह जाते हैं या उन्हें भारत का मुखबिर माना जाता है। अफगानिस्तान या पाकिस्तान में भी तो मुसलमानों को मुसलमानों ने मारा है। इसके लिए जिम्मेदार कौन है?

1947 का हमला

कश्मीर के भयावह सच 1947 के कबायली हमलों में छिपे हैं, जब हजारों लोग मारे गए। अस्पतालों में मरीजों की हत्याएं हुई नर्सों से बलात्कार हुए। इन बातों के दस्तावेजी विवरण मौजूद हैं। भारत सरकार ने 22 अक्तूबर 2020 को कश्मीर का ‘काला दिन’ मनाने की घोषणा की थी और तबसे हर साल ‘काला दिन’ मनाया जा रहा है। यह 1947 के हमले की याद में मनाया जाता है। वस्तुतः उस हमले पर भी फिल्म बननी चाहिए। पाकिस्तान सरकार हर साल 5 फरवरी को कश्मीर एकजुटता दिवस मनाती है। यह चलन 2004 से शुरू हुआ है। उस दिन पूरे पाकिस्तान में छुट्टी रहती है। इसका उद्देश्य जनता के मन में लगातार कश्मीर के सवाल को सुलगाए रखना है। हमें भी कश्मीर को याद रखना चाहिए। ‘कश्मीर फाइल्स’ इतिहास के पन्ने का सूक्ष्म प्रसंग है। विस्तार में जाएंगे, तो हजारों साल पीछे जाना होगा। पर महत्वपूर्ण है वर्तमान और भविष्य, जिसे सँवारने की जिम्मेदारी हमारी है। विचार उन्हें भी करना है, जो समझते हैं कि कश्मीर की हिंसा के पीछे कोई न्यायपूर्ण लड़ाई है। क्या यह फिल्म उन खतरों की ओर संकेत कर रही है, जो हमें अतीत से मिले हैं? धैर्य, शांति और समझदारी से विचार कीजिए।  

 

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