Monday, January 11, 2021

नेपाल में कम्युनिस्ट पार्टी विभाजन की ओर


नेपाल की सत्तारूढ़ कम्युनिस्ट पार्टी के भीतर पिछले कुछ महीनों से चला आ रहा टकराव अब खुलकर सामने आ गया है। संसद भंग करके नए चुनावों की तारीखों की घोषणा होने के बाद दो तरह की गतिविधियाँ तेज हो गई हैं। पहली पहल चीनी कम्युनिस्ट पार्टी की ओर से हुई है, जिसके तहत एक टीम ने नेपाल जाकर सम्बद्ध पक्षों से मुलाकात की है। दूसरी तरफ पार्टी के दोनों धड़ों ने अपनी भावी रणनीति को लेकर विचार-विमर्श शुरू कर दिया है। नेपाल की राजनीति में इस समय तीन प्रमुख दल हैं। नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी, नेपाली कांग्रेस और जनता समाजवादी पार्टी।

नेपाली संसद में कुल 275 सदस्य होते हैं। राष्ट्रपति कार्यालय की तरफ से दी गई जानकारी के मुताबिक 30 अप्रैल को पहले चरण के मतदान होंगे और दूसरे चरण का मतदान 10 मई को होगा। भारत और नेपाल के बीच पिछले कुछ वक्त से तनाव जारी था। पिछले कुछ महीनों से पार्टी दो खेमों में बंटी हुई है। एक खेमे की कमान 68 वर्षीय केपीएस ओली के हाथ में है तो दूसरे खेमे का नेतृत्व पार्टी के कार्यकारी अध्यक्ष व पूर्व प्रधानमंत्री पुष्प दहल कमल 'प्रचंड' कर रहे हैं।

देउबा का महत्व बढ़ा

प्रधानमंत्री केपीएस ओली की इस सिलसिले में नेपाली कांग्रेस के नेता शेर बहादुर देउबा से मुलाकात के काफी महत्वपूर्ण माना जा रहा है। तीसरी बड़ी पार्टी जनता समाजवादी पार्टी के साथ भी ओली संपर्क स्थापित कर रहे हैं। दूसरी तरफ कम्युनिस्ट पार्टी के नेता पुष्प कमल दहल और माधव कुमार नेपाल संसद भंग करने के फैसले के खिलाफ आंदोलन चला रहे हैं।

हालांकि सड़कों पर नेपाली कांग्रेस भी सरकार विरोधी अभियान चला रही है, पर उसका आंदोलन प्रचंड के गुट के साथ मिलकर नहीं चल रहा है। बल्कि इस समय ओली के निकटतम राजनीतिक सहयोगी के रूप में देउबा नजर आ रहे हैं। पिछले आठ महीनों में उनकी कई बार ओली से मुलाकातें हुई हैं। इस दौरान एक जगह ओली से पूछा गया कि यदि सदन को बहाल करना पड़ा, तो क्या होगा, उन्होंने कहा देउबा के नेतृत्व में एक गठबंधन की सरकार बनेगी। हम अगले चुनाव होने तक रोटेशन के आधार पर नेपाली कांग्रेस के साथ सरकार का नेतृत्व करेंगे। दूसरी तरफ देउबा की पार्टी के भीतर इस विषय पर मतभेद हैं। उनकी ही पार्टी के रामचंद्र पौडेल और कुछ अन्य सहयोगी देउबा से सहमत नहीं हैं।

सदन भंग करने के फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई है, इसलिए उसके निर्णय का इंतजार करना होगा। नेपाल के संविधान में चुने हुए सदन को भंग करने की व्यवस्था नहीं है। वह तभी भंग हो सकता है, जब संसद में किसी पक्ष का बहुमत नहीं हो। सांविधानिक विशेषज्ञों का कहना है कि सदन को भंग करने का अधिकार संविधान ने प्रधानमंत्री को नहीं दिया है, भले ही उनके पास बहुमत हो। इस समय तो कहना मुश्किल है कि बहुमत उनके साथ है भी या नहीं।

गत 20 दिसंबर को संसद भंग होने के बाद से देउबा का महत्व बढ़ गया है। यदि सुप्रीम कोर्ट से संसद की बहाली हो भी गई, तब संभावना इस बात की है कि ओली समर्थक गुट देउबा को प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठाकर उनका समर्थन कर देगा। दूसरी तरफ यदि चुनाव हुए, तो कम्युनिस्ट पार्टी टूट सकती है। ऐसी स्थिति में कांग्रेस की स्थिति बेहतर हो जाएगी। ओली खुद को स्थापित नहीं कर पाए, तो वे प्रचंड को भी कुर्सी पर बैठने नहीं देंगे। 

कम्युनिस्ट एकाधिकार टूटेगा

नेपाली कम्युनिस्ट पार्टी का इस समय देश पर एकछत्र शासन है। संसद में उसके पास दो तिहाई से ज्यादा का बहुमत है और सात में से छह राज्यों की विधान सभाओं में उसे दो तिहाई से ज्यादा की बढ़त हासिल है। पार्टी यदि विभाजित हुई, तो पूरे देश की राजनीति विभाजित होगी। नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी का गठन 2018 में ओली के नेतृत्व वाली नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी (एकीकृत माले) और पुष्प दहल कमल प्रचंड के नेतृत्व वाली नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी सेंटर) के विलय से हुआ था। ओली और प्रचंड दोनों संयुक्त रूप से पार्टी के अध्यक्ष बनाए गए थे।

पिछले कुछ समय से प्रचंड का दबाव था कि ओली अपने पदों से इस्तीफा दें। पार्टी का औपचारिक विभाजन नहीं हुआ है, पर दो धड़े साफ उभरकर सामने आ चुके हैं। प्रचंड के गुट ने ओली को पद से हटाकर उनकी जगह माधव कुमार नेपाल को संयुक्त अध्यक्ष घोषित किया है। अलबत्ता इस समय विभाजन दोनों पार्टियों की पिछले धड़ों के आधार पर नहीं है। प्रचंड को दो पूर्व प्रधानमंत्रियों माधव नेपाल और झालानाथ खनाल का समर्थन हासिल है, जो एकीकृत माले से जुड़े रहे हैं। दूसरी तरफ ओली को राम बहादुर थापा का समर्थन हासिल है, जो पुराने माओवादी नेता हैं।

नेपाल का कम्युनिस्ट आंदोलन भी चीन के कम्युनिस्ट आंदोलन से नहीं निकला है। नेपाल की कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना 1949 में कोलकाता में हुई थी। उसके गठन में भारत के कम्युनिस्ट नेताओं का हाथ था। इस पार्टी में एक तबका रूसी प्रभाव में भी था। बहरहाल देश में राजतंत्र के खिलाफ चले आंदोलन में कम्युनिस्ट पार्टी ने नेपाली कांग्रेस का साथ दिया था। प्रकारांतर से चीनी प्रभाव वाले नेता भी इस आंदोलन में शामिल हुए। भारत के नक्सलवादी आंदोलन का प्रभाव भी नेपाल पर पड़ा। सन 1974 में एक माओवादी गुट का जन्म देश में हो गया था। उधर कम्युनिस्ट पार्टी (माले) की स्थापना 1978 में हुई।

नब्बे का दशक आते-आते माले ज्यादा बड़े संगठन के रूप में उभर कर सामने आई। इसमें कुछ और समूहों के जुड़े जाने के बाद यह एकीकृत माले हो गई। सन 1994 में इस पार्टी ने मनमोहन अधिकारी के नेतृत्व में सरकार भी बनाई। बाद में इस पार्टी में भी टूट हुई। उधर माओवादियों के समूह भी बनते-टूटते रहे। इन गुटों के बीच एकता कायम हुई और सीपीएन-यूनिटी सेंटर नाम से एक समूह उभरा। इसके राजनीतिक फ्रंट के नेता थे बाबूराम भट्टराई।

देर-सबेर नेपाली कम्युनिस्ट पार्टियों ने संसदीय राजनीति के रास्ते को स्वीकार किया और अब उससे जुड़े निहितार्थों से जूझ रही हैं। सन 2007 के जनांदोलन की परिणति सन 2015 की संविधान निर्माण प्रक्रिया में हुई और 2017 में कम्युनिस्ट पार्टियों ने मिलकर चुनाव लड़ा। उसमें भारी सफलता पाने के बाद 2018 में विलय कर लिया। पर यह विलय बहुत सोच-समझकर नहीं हुआ था। पार्टी के भीतर वैचारिक मसलों पर व्यक्तिगत राग-द्वेष हावी हैं।

चीन किसके साथ?

क्या इस राजनीतिक संकट का समाधान चीन कर पाएगा?  पार्टी का विभाजन हुआ, तो चीनी कम्युनिस्ट पार्टी किसका समर्थन करेगी? ऐसे सवाल बहुत से लोगों के मन में है। हाल में चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के अंतरराष्ट्रीय विभाग के उपाध्यक्ष ग्वो येझू के नेतृत्व में एक उच्चस्तरीय टीम हालात का जायजा लेकर गई है। चीन के सीधे हस्तक्षेप ने काफी चौंकाया भी है, क्योंकि नेपाली संप्रभुता की दुहाई देने वालों को इससे धक्का लगा है।

ओली में चीन की कम्युनिस्ट पार्टी (सीसीपी) को एक उपयोगी सहयोगी और अधीन रहने वाला मिल गया। उनके कार्यकाल के दौरान सीसीपी और नेपाल की कम्युनिस्ट पार्टी ने अपने रिश्तों को संस्थागत स्वरूप प्रदान किया। राजनीतिक और सैन्य प्रतिनिधिमंडल एक दूसरे के साथ कार्यक्रमों का आदान प्रदान बढ़ा रहे हैं और गत वर्ष हवाई मार्ग से नेपाल आने वाले चीनी पर्यटकों ने विमान से नेपाल पहुंचने वाले भारतीय पर्यटकों को भी पछाड़ दिया। इससे चीन का आत्मविश्वास बढ़ा है।

नेपाल के लेखक कनक मणि दीक्षित ने ट्वीट कर चीनी कम्युनिस्ट पार्टी की उच्चस्तरीय टीम के आने की आलोचना की है। उन्होंने अपने ट्वीट में लिखा है, 'यह सरासर ग़लत है। चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के उप-मंत्री ग्वो येझू के नेपाल आने को लेकर ऐसा लग रहा है कि उन्हें प्रचंड ने आमंत्रित किया है। जब सुप्रीम कोर्ट पूरे विवाद पर सुनवाई कर रहा है ऐसे में इस तरह का दौरा निराश करने वाला है।'

चीनी प्रतिक्रिया के विपरीत भारत ने शुरू में औपचारिक रूप से कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की। भारतीय सूत्रों ने कहा है कि नेपाल को लोकतांत्रिक तरीके से अपनी समस्या का समाधान निकालना चाहिए। भारत के पास नेपाल की आंतरिक राजनीति का ज्यादा अनुभव है। शायद चीन इसीलिए सशंकित भी रहता है। नवंबर के अंतिम सप्ताह में भारत के विदेश सचिव हर्षवर्धन श्रृंगला ने नेपाल का दौरा किया था। उस यात्रा के दो दिन बाद ही चीन के रक्षामंत्री का भी अचानक एक दौरा हुआ।

इस बीच खबर है कि नेपाली विदेशमंत्री प्रदीप ग्यावली भारत और नेपाल के बीच बने संयुक्त आयोग की बैठक में भाग लेने के लिए जनवरी में भारत आएंगे। अभी इसकी तारीख तय नहीं है। यह यात्रा औपचारिक है, पर संभव है कि इस दौरान कुछ महत्वपूर्ण बातें हों। इतना जरबर लगता है कि पार्टी में विभाजन अब बस औपचारिक रह गया है। चूंकि भारत और चीन दोनों की नेपाल में गहरी रुचि है इसलिए मामले के उलझने के खतरे हैं। बहरहाल पहले हमें सुप्रीम कोर्ट के फैसले का इंतजार करना होगा।

हरिभूमि में प्रकाशित

 

 

 

1 comment:

  1. चीन का साथ यानि अपने घर की शांति भंग करने का निमंत्रण


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