Sunday, September 20, 2020

क्यों नाराज हैं किसान?


पंजाब, हरियाणा और उत्तर प्रदेश समेत देश के कुछ हिस्सों में खेती से जुड़े तीन नए विधेयकों को लेकर विरोध प्रदर्शन हो रहे हैं। किसान इनका विरोध कर रहे हैं, विरोधी दल सरकार पर निशाना साध रहे हैंसरकार कह रही है कि ये विधेयक किसानों के हित में हैं और विरोधी दल किसानों को बजाय उनका हित समझाने के गलत बातें समझा रहे हैं। किसानों की आशंकाओं से जुड़े सवालों के जवाब भी दिए जाने चाहिए। उनकी सबसे बड़ी चिंता है कि सरकारी खरीद बंद हुई, तो वे व्यापारियों के रहमो-करम पर होंगे।

इन कानूनों में कहीं भी सरकारी खरीद बंद करने या न्यूनतम समर्थन मूल्य खत्म करने की बात नहीं है। केवल अंदेशा है कि सरकार उसे खत्म करेगी। इस अंदेशे के पीछे भारतीय खाद्य निगम के पुनर्गठन की योजना है। शांता कुमार समिति का सुझाव है कि केंद्र सरकार अनाज खरीद का जिम्मा राज्य सरकारों पर छोड़े। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 24 घंटे के भीतर दूसरी बार किसानों को भरोसा दिलाने की कोशिश की है कि एमएसपी की व्यवस्था में कोई बदलाव नहीं होने जा रहा है।

यह सच है कि देश का करीब 75 फीसदी छोटा किसान है। उसकी खेती गैर-लाभकारी है। आज नहीं तो कल उसे या उसकी अगली पीढ़ी को विकल्प तैयार करने होंगे। ई-मंडी जैसी व्यवस्थाएं तभी सफल होंगी, जब एपीएमसी जैसी व्यवस्थाओं का वर्चस्व खत्म होगा। पिछले कुछ महीनों में ग्रामीण भारत अर्थव्यवस्था को उबारने वाले रक्षक के रूप में सामने आया है। देशव्यापी लॉकडाउन ने जहां विनिर्माण और सेवा क्षेत्र को बुरी तरह प्रभावित किया था, वहीं अब खरीफ की फसल की अच्छी बुआई और अच्छे मॉनसून ने यह आशा जगा दी है कि ग्रामीण अर्थव्यवस्था उपभोक्ताओं की आय बढ़ाएगी।

जिस समय कृषि क्षेत्र से अच्छी खबरें आ रही हैं, वहाँ चिंता के बादल क्यों घिरें? इस चिंता को दूर करना चाहिए। विशेषज्ञ मानते हैं कि खेती को लेकर यह एक बड़ा सुधार है, इसे व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखना चाहिए। राजनीतिक कारणों से इसका विरोध भी ठीक नहीं। इन सुधारों के सकारात्मक प्रभावों को कुछ राज्य सरकारों ने कम करने की कोशिशें शुरू कर दी हैं। कुछ समय पहले तक कांग्रेस जिन सुधारों का समर्थन करती थी, आज उनका विरोध कर रही है।

कांग्रेस पार्टी ने 2019 के अपने चुनाव घोषणापत्र में कृषि उत्पाद बाजार समिति (एपीएमसी) अधिनियम और आवश्यक वस्तु कानून को खत्म करने का वायदा किया था। इस समय वह दोनों बातों का विरोध कर रही है। यदि नए विधेयक काले कानून हैं, तो कांग्रेस ने क्या सोचकर उनका वायदा किया था? पहले इस बात को समझें कि देश में कृषि उत्पादों का खुला बाजार नहीं है। उसमें कई प्रकार के प्रतिबंध हैं। दूसरे किसानों, व्यापारियों और सरकार के बीच जो वर्तमान बाजार व्यवस्था है, वह लम्बे समय तक चलने वाली नहीं है। आज जब ई-कारोबार और वैश्विक बाजार की बातें हो रहीं हैं, तब पुरानी व्यवस्थाओं को बदलना ही है। यह रूपांतरण कैसे होगा, इसे समझने की जरूरत है।

कृषक उपज व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन और सरलीकरण) विधेयक-2020 में एक ऐसा इकोसिस्टम बनाने का प्रावधान है जहां किसानों और व्यापारियों को मंडी से बाहर फ़सल बेचने की आज़ादी होगी। कृषक (सशक्तिकरण व संरक्षण) क़ीमत आश्वासन और कृषि सेवा पर क़रार विधेयक-2020 कृषि उत्पादों की बिक्री, फ़ार्म सेवाओं,कृषि बिजनेस फ़र्मों, प्रोसेसर्स, थोक विक्रेताओं, बड़े खुदरा विक्रेताओं और निर्यातकों के साथ किसानों को जोड़ने के लिए सशक्त करता है। अनुबंधित किसानों को गुणवत्ता वाले बीजों, तकनीक और फ़सल स्वास्थ्य की निगरानी, ऋण की सुविधा और फ़सल बीमा की सुविधा उपलब्ध कराई जाएगी। तीसरे, आवश्यक वस्तु (संशोधन) विधेयक-2020 के तहत अनाज, दलहन, तिलहन, खाद्य तेल, प्‍याज़ आलू को आवश्यक वस्तुओं की सूची से हटाने का प्रावधान है। माना जा रहा है कि इस विधेयक के प्रावधानों से किसानों को सही मूल्य मिल सकेगा क्योंकि बाज़ार में स्पर्धा बढ़ेगी।

इन विधेयकों का विरोध पंजाब और हरियाणा में ज्यादा है। इसके विपरीत महाराष्ट्र में इनका स्वागत किया गया है। स्वाभिमानी पक्ष के राजू शेट्टी और शेतकरी संघटना के अनिल घनवट ने इन कानूनों को किसानों की वित्तीय स्वतंत्रता की दिशा में पहला कदम बताया है। चार साल पहले, महाराष्ट्र ने फल और सब्जी के किसानों को मंडियों के बाहर अपनी फसल को बेचने की अनुमति दी थी। इससे कोई खास फर्क नहीं पड़ा क्योंकि ज्यादातर किसानों ने एपीएमसी को बिक्री के प्राथमिक मंच के रूप में जारी रखा। नीति आयोग के सदस्य रमेश चंद के अनुसार पंजाब और हरियाणा के किसान इन सुधारों को सही तरीके से नहीं समझ रहे हैं। इन बदलावों से न तो एमएसपी खत्म होगा और न ही इससे देश के कृषि क्षेत्र का निगमीकरण होगा जो किसानों के दो सबसे बड़े डर हैं।

पंजाब और हरियाणा में भी मुख्य विरोध पहले कानून यानी एपीएमसी मंडियों के बाहर खरीद-फरोख्त की अनुमति दिए जाने पर है। शेष दो कानूनों, मसलन खाद्य सामग्री के स्टॉक की सीमा और फसल की बुवाई के पहले फसल के खरीदार के साथ कॉन्ट्रैक्ट करने को लेकर आपत्तियाँ बहुत ज्यादा नहीं हैं। सरकार का कहना है कि हमने एपीएमसी मंडियों के बाहर भी कारोबार के क्षेत्र बनाए हैं। ये बाजार के अतिरिक्त चैनल बनेंगे। इससे मंडियों को अपनी कार्यशैली सुधारने के लिए दबाव भी पड़ेगा। किसान भी इन मंडियों की इजारेदारी कम करना चाहेंगे।

कहा जा रहा है कि मंडी-व्यवस्था बंद हुई, तो किसानों के अलावा शहरी कमीशन एजेंटों, आढ़तियों, मंडी मज़दूरों और भूमिहीन खेत मज़दूरों पर असर पड़ेगा। कृषि क्षेत्र कॉरपोरेट घरानों के हाथों में चला जाएगा। इसमें कीमत तय करने की कोई प्रणाली तय नहीं है। निजी कंपनियां किसानों का शोषण करेंगी और किसान मजदूर बन जाएगा। किसानों को बाज़ार में अच्छा दाम मिल ही रहा होता तो वे बाहर क्यों जाते? आज भी जिन उत्पादों पर किसानों को एमएसपी नहीं मिलती, उन्हें वे कम दाम पर बेचने को मजबूर हैं। छोटे किसान एक ज़िले से दूसरे ज़िले में नहीं जाते, उनके दूसरे राज्य में जाने का सवाल ही नहीं उठता। ऐसे सवालों पर सरकार को जवाब देना चाहिए और यह भी बताना चाहिए कि वह इन परिस्थितियों में किसानों के हितों की रक्षा किस प्रकार करेगी। जबतक खेती के रूपांतरण का संधिकाल है, किसानों के हितों की रक्षा का जिम्मा सरकार के कंधों पर है।

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