Monday, April 6, 2020

इस संकट का सूत्रधार चीन


पिछले तीन महीनों में दुनिया की राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक व्यवस्था में भारी फेरबदल हो गया है। इसके पीछे सबसे बड़ा कारण कोविड-19 नाम की बीमारी है, जिसकी शुरुआत चीन से हुई थी। अमेरिका, इटली और यूरोप के तमाम देशों के साथ भारत और तमाम विकासशील देशों में लॉकआउट चल रहा है। अर्थव्यवस्था रसातल में पहुँच रही है, गरीबों का जीवन प्रभावित हो रहा है। हजारों लोग मौत के मुँह में जा चुके हैं और लाखों बीमार हैं। कौन है इसका जिम्मेदार? किसे इसका दोष दें? पहली नजर में चीन।
हालांकि दावा किया जा रहा है कि चीन से यह बीमारी अब खत्म हो चुकी है, पर इस बीमारी की वजह से उसकी साख मिट्टी में मिल गई है। सवाल यह है कि क्या इस बीमारी का प्रभाव उसकी औद्योगिक बुनियाद पर पड़ेगा? दुनिया का नेतृत्व करने के उसके हौसलों को धक्का लगेगा? पहली नजर में उसकी छवि एक गैर-जिम्मेदार देश के रूप में बनकर उभरी है। पर क्या इसकी कीमत उससे वसूली जा सकेगी?  शायद भौतिक रूप में इसकी भरपाई न हो पाए, पर चीन के वैश्विक प्रभाव में अब भारी गिरावट देखने को मिलेगा। चीन ने सुरक्षा परिषद से लेकर विश्व स्वास्थ्य संगठन तक अपने रसूख का इस्तेमाल करके जो दबदबा बना लिया है उसकी हवा निकलना जरूर सुनिश्चित लगता है।

चीन की व्यवस्था पारदर्शी होती तो शायद कोरोनावायरस के बारे में समय से दुनिया जान जाती और उसका प्रसार इस कदर नहीं हुआ होता। इतना ही नहीं इससे जुड़ी कई उल्टी सीधी बातें भी हवा में नहीं होतीं। कोविड-19 को लेकर विश्व स्वास्थ्य संगठन ने फरवरी में एक नए सूचना प्लेटफॉर्म डब्लूएचओ इनफॉर्मेशन नेटवर्क फॉर एपिडेमिक्स (एपी-विन) का उद्घाटन किया। इस मौके पर डब्लूएचओ के डायरेक्टर जनरल टेड्रॉस गैब्रेसस ने कहा, बीमारी के साथ-साथ दुनिया में गलत सूचनाओं की महामारी भी फैल रही है। हम केवल पैंडेमिक (महामारी) से नहीं इंफोडेमिक से भी लड़ रहे हैं।
डब्लूएचओ पर सवाल
सोशल मीडिया ने इस विषय पर संदेहों को और ज्यादा बढ़ा दिया है। इस परिघटना के बीच से आने वाले समय की राजनीति की आहट भी मिल रही है। सबसे बड़ी बात है कि दुनिया का चीन पर विश्वास कम हो रहा है। इतना ही नहीं इंफोडेमिक से लड़ने का दावा करने वाले डब्लूएचओ के टेड्रॉस महाशय खुद विवाद का विषय बन गए हैं। इथोपिया मूल का यह राजनेता इस हद तक चीन परस्त क्यों बना, यह छानबीन का विषय है। इस बाढ़ का पानी उतरने के बाद तमाम सच्चाइयाँ सामने आएंगी। इन दिनों अमेरिका और चीन के आर्थिक-राजनीतिक वर्चस्व के सवाल उठ रहे हैं। ये सवाल संयुक्त राष्ट्र की संस्थाओं तक जा रहे हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन पर सीधे आरोप लग रहे हैं कि उसने न केवल चीन में पैदा हो रहे संकट की अनदेखी की, बल्कि जैसा चीन ने कहा, वैसा दोहरा दिया।
हालांकि चीन में कोरोना वायरस के मामले नवम्बर में शुरू हो गए थे, पर चीन कहता रहा कि वे मनुष्य से मनुष्य में संक्रमण के कारण नहीं हैं। डब्लूएचओ ने इसकी स्वतंत्र जाँच कराने के बजाय जैसा चीन ने कहा वैसा मान लिया। उसने चीन सरकार को न तो नाराज करना चाहा और न वहां कोई जांच दल भेजा। 14 जनवरी को डब्लूएचओ ने ट्वीट किया कि चीन सरकार के अनुसार मनुष्य में संक्रमण नहीं है। इसके एक हफ्ते बाद चीन ने मान लिया कि मनुष्य से मनुष्य में संक्रमण है, तो डब्लूएचओ ने भी मान लिया। चीन के साथ उसकी एक संयुक्त टीम फरवरी के मध्य में वुहान गई और उसने जो रिपोर्ट दी वह भी चीन सरकार के विवरणों से भरी थी। इतना ही नहीं इस टीम ने चीन की तारीफों के पुल बाँधे।   
फरवरी में चीन गई डब्लूएचओ टीम के प्रमुख ब्रूस एलवार्ड ने बीजिंग की प्रेस कांफ्रेंस में कहा, चीन ने महामारियों के इतिहास की सबसे महत्वपूर्ण लड़ाई में विजय हासिल की है। यदि मुझे कोविड-19 बीमारी लगे, तो मैं अपना इलाज चीन में कराना चाहूँगा। दूसरी तरफ वॉल स्ट्रीट जरनल में प्रकाशित एक लेख में बार्ड कॉलेज के प्रोफेसर वॉल्टर रसेल मीड ने चाइना इज द रियल सिक मैन ऑफ एशिया शीर्षक आलेख में कहा कि इस संकट के दौरान चीन का प्रबंधन निहायत घटिया रहा है और वैश्विक कम्पनियों को अपनी सप्लाई चेन को चीन-मुक्त (डीसिनिसाइज) करना चाहिए। अमेरिका ही नहीं यूरोप के तमाम देशों में अब माँग हो रही है कि चीनी उत्पादों का बहिष्कार होना चाहिए।
चीनी सामान का बहिष्कार
कुछ पश्चिमी देशों ने चीन से आने वाले सर्जिकल मास्क की सप्लाई रोकी भी है। बहरहाल वॉल स्ट्रीट जरनल के आलेख के वाक्यांश सिक मैन ऑफ एशिया ने चीन को इतना आहत किया कि उसने वॉल स्ट्रीट जरनल के तीन रिपोर्टरों को देश से निकाल बाहर किया। अब पश्चिमी मीडिया को चीन के दोष नजर आने लगे हैं। अब तक की महामारियों के प्राचीन किस्से खोद कर निकाले जा रहे हैं। यह साबित किया जा रहा है कि ज्यादातर महामारियाँ किसी न किसी न किसी रूप में चीन से जन्मीं। इसबार भी कहा जा रहा है कि चीन में हुई मौतों का तादाद कहीं ज्यादा है। चूंकि वहाँ की व्यवस्था अपारदर्शी है, इसलिए सच क्या है, इसका पता लगाना बेहद मुश्किल है।
चीनी विफलता के साथ-साथ पश्चिमी देशों की अकुशलता भी सामने आ रही है। उन्होंने या तो वायरस के खतरे को मामूली माना या उनकी स्वास्थ्य प्रणाली इतनी अकुशल है कि बीमारी से निपटने में नाकामयाब रही। इटली, स्पेन, फ्रांस, ब्रिटेन और जर्मनी जैसे देश भी बुरी तरह इसके लपेटे में हैं। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने अपने ही स्वास्थ्य सलाहकारों की अनदेखी करके पेशबंदी नहीं की और अब पूरा देश घबराया हुआ है। बहरहाल ट्रंप ने विश्व स्वास्थ्य संगठन पर कोरोना वायरस को लेकर चीन की तरफदारी का आरोप लगाया है। अमेरिकी सीनेटर  मार्को रूबियो और कांग्रेस सदस्य माइकल मैकॉल कहा कि डब्ल्यूएचओ के निदेशक टेड्रॉस एडेनॉम गैब्रेसस की निष्ठा और चीन के साथ उनके संबंधों को लेकर अतीत में भी बातें उठी हैं।
एक और अमेरिकी सांसद ग्रेग स्टीव का कहना ही कि डब्ल्यूएचओ चीन का मुखपत्र बन गया है। ट्रंप ने कहा है कि इस महामारी पर नियंत्रण पाने के बाद डब्ल्यूएचओ और चीन दोनों को ही इसके नतीजों का सामना करना होगा। पर चीन इस बात को स्वीकार नहीं करता। उसके विदेश विभाग के प्रवक्ता झाओ लिजियन ने ट्विटर पर कुछ सामग्री पोस्ट की है, जिसके अनुसार अमेरिकी सेना ने इस वायरस की ईजाद की है। ऐसा ही आरोप ईरान ने लगाया है।
क्या यह जैविक हथियार था?
अमेरिकी की एक कंपनी ने चीन सरकार पर 20 ट्रिलियन डॉलर हरजाने का मुकदमा ठोका है। इस कंपनी का आरोप है कि चीन ने इस वायरस का प्रसार एक जैविक हथियार के रूप में किया है। टेक्सास की कंपनी बज फोटोज, वकील लैरी क्लेमैन और संस्था फ्रीडम वाच ने मिलकर चीन सरकार, चीनी सेना, वुहान इंस्टीट्यूट ऑफ वायरॉलॉजी, वुहान इंस्टीट्यूट के डायरेक्टर शी झेंग्ली और चीनी सेना के मेजर जनरल छन वेई पर यह मुकदमा किया है। मुकदमा करने वालों का कहना है कि चीनी प्रशासन एक जैविक हथियार तैयार कर रहा था, जिसकी वजह से यह वायरस फैला है। उन्होंने 20 ​ट्रिलियन डॉलर का हर्जाना मांगा है, जो चीन के सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी से भी ज्यादा है।
अमेरिकी कंपनी ने कहा है कि चीन में एक माइक्रोबायोलॉजी लैब वुहान में है जो नोवेल कोरोना जैसे वायरस पर काम कर सकती है। बहुत मुमकिन है कि वुहान इंस्टीट्यूट ऑफ वायरॉलॉजी से लीक हुआ हो। चीन ने वायरस के बारे में सूचनाओं को राष्ट्रीय सुरक्षा प्रोटोकॉल का बहाना बनाकर छिपाया। अमेरिकी ने इस सिलसिले में चीन के साथ रूस और ईरान को भी जोड़ा है। अमेरिका के अनुसार इन देशों ने सही जानकारी दी होती तो कोरोना को फैलने से रोका जा सकता था। अमेरिकी विदेश मंत्री माइक पॉम्पियो ने इन तीनों देशों पर कोरोना को लेकर 'दुष्प्रचार' फैलाने का भी आरोप लगाया है।
अमेरिकी पत्रकारों का कहना था कि यदि चीन ने तीन हफ्ते पहले कदम उठाए होते, तो बीमारी फैल नहीं पाती। उन्हीं दिनों ताइवान सरकार ने आरोप लगाया कि विश्व स्वास्थ्य संगठन चीन की चापलूसी कर रहा है। हमने दिसम्बर में ही डब्लूएचओ को संकेत दे दिया था कि कुछ गलत होने जा रहा है, पर हमारी अनदेखी की गई। डब्लूएचओ केवल चीन को मान्यता देता है, ताइवान को नहीं।
ताइवान का कहना था कि हमें चीन स्थित अपने सूत्रों से खबर मिली थी कि इस बीमारी से जुड़े डॉक्टर भी बीमार हो रहे हैं। इससे लगता है कि यह बीमारी मनुष्यों से मनुष्यों में संक्रमित हो रही है। इस बात की सूचना हमने 31 दिसम्बर को डब्लूएचओ से सम्बद्ध इंटरनेशनल हैल्थ रेग्युलेशन (आईएचआर) और चीनी अधिकारियों दोनों को दी। ताइवान का कहना है कि आईएचआर की आंतरिक वैबसाइट में महामारियों से जुड़ी सभी देशों की सूचनाओं को दर्शाया जाता है, पर हमारी सूचनाएं उसमें नहीं दिखाई जाती हैं।
तथ्य छिपाने की कोशिश
चीन ने शुरू में तथ्यों को छिपाने की कोशिश की। दिसंबर के अंत में जब वुहान में वायरस के पहले मामले सामने आए थे, तो ह्विसिल ब्लोवर डॉक्टर ली वेन लियांग ने अपने सहकर्मियों और अन्य लोगों को चीनी सोशल मीडिया ऐप वीचैट पर बताया कि देश में सार्स जैसे वायरस का पता चला है। उनकी बात सुनने के बजाय पुलिस ने वेन लियांग को डराना-धमकाना शुरू कर दिया। कोरोना की चपेट में आने से फरवरी में उसकी मौत भी हो गई थी। बाद में चीन सरकार ने माना कि इस मामले में हमसे गलती हुई।
अब यह महामारी भविष्य में अंतरराष्ट्रीय सम्बंधों को एकबार फिर से परिभाषित करेगी। नवम्बर 2002 में चीन के ग्वांगदोंग प्रांत में सार्स वायरस ने इसी किस्म का हमला किया था। तब भी चीन ने विश्व समुदाय से तमाम बातें छिपीं। उसने यह बताने में देर की कि किस तरह सार्स महामारी सब जगह फैल सकती है। चीनी अर्थव्यवस्था के उठान का वह समय था। सन 2001 में चीन विश्व व्यापार संगठन का सदस्य बना था। सन 2008 में वहाँ ओलिम्पिक खेल होने वाले थे। चीन उसका निर्वाह कर ले गया, पर क्या अब वह हालात को संभाल पाएगा?
ऐसे मौके पर जब पश्चिमी देशों की अर्थव्यवस्थाएं किसी न किसी रूप में संकट का सामना कर रही हैं, चीन का उदय अवश्यंभावी लगता है। हालांकि उसकी अर्थव्यवस्था में भी पिछले कुछ वर्षों में सुस्ती आई है, पर अपने मजबूत आर्थिक आधार के सहारे उसने दुनिया का नेतृत्व करने का अपना इरादा स्पष्ट कर दिया है। कोरोना वायरस के प्रकरण ने एक तरफ उसके इन इरादों को और स्पष्ट किया है, वहीं उसके अंतर्विरोधों को भी व्यक्त किया है। चीन के इन हौसलों को अमेरिका में सन 2008 के लीमैन संकट और बीजिंग ओलिम्पिक की सफलता से बढ़ावा मिला था।
चीनी शक्ति का प्रदर्शन
चीन के वर्तमान राष्ट्रपति शी चिनफिंग 2008 में देश के उप राष्ट्रपति थे। उन्होंने तभी तय कर लिया कि हमें अब खुलकर अपनी ताकत का प्रदर्शन करना चाहिए। हाल के वर्षों पर गौर करें, तो पाएंगे कि चीन ने बात-बात पर अमेरिका को धता बताना शुरू कर दिया है। उसकी वन बेल्ट, वन रोड पहल को यूरोप के अनेक देशों का समर्थन मिला है, जिनमें इटली भी शामिल है, जो इस वक्त कोरोनावायरस का जबर्दस्त शिकार है। सार्वजनिक सेवाओं के लिए उसने पूँजी के भारी निवेश के जो कार्यक्रम तैयार किए हैं, उनसे अफ्रीका, लैटिन अमेरिका और एशिया के देश खासे प्रभावित हुए हैं।
सन 2011-12 में वे चीन के शीर्ष नेता बन गए और उन्होंने दो बड़े कार्यक्रम घोषित किए, जो चीन के इरादों को व्यक्त करते हैं। पहला वन बेल्ट, वन रोड और दूसरा एशिया इंफ्रास्ट्रक्चर इनवेस्टमेंट बैंक की स्थापना। इसमें शामिल होने के लिए भी दुनिया के देशों की कतार लगी है। चीन ने वैश्विक विकास के लिए पूँजी उपलब्ध कराने और फिर उसके सहारे अपना वर्चस्व कायम करने का निश्चय किया है। इसके साथ-साथ उसने अंतरराष्ट्रीय संगठनों पर भी अपना प्रभाव बढ़ाना शुरू कर दिया है।
अमेरिकी संसद में प्रस्ताव लाया जा रहा है कि आवश्यक औषधियों का उत्पादन अमेरिका में वापस लाया जाए। इस वक्त अमेरिका में 97 फीसदी एंटीबायटिक्स दवाएं चीन से आती हैं। इसके अलावा तमाम चिकित्सकीय सामग्री चीन से आ रही है। कोरोनावायरस के दौर में इसकी सप्लाई और ज्यादा बढ़ गई है। न्यूयॉर्क टाइम्स की खबर है कि रविवार 29 मार्च को न्यूयॉर्क के हवाई अड्डे पर एक परिवहन विमान चीन से 80 टन चिकित्सकीय सामग्री लेकर आया। इसमें सर्जिकल ग्लव्स, मास्क, गाउन और अन्य वस्तुएं हैं। ऐसी ही एक फ्लाइट उसके अगले दिन शिकागो और उसके अगले दिन उहायो पहुँची। अमेरिका में इन चीजों की भारी कमी है और चीन में इन दिनों इन चीजों का धड़ा-धड़ उत्पादन हो रहा है। चीनी कारखानों में भी अमेरिकी पैसा लगा है, बल्कि जिस कम्पनी से यह मेडिकल सामग्री खरीद गई है, उससे राष्ट्रपति ट्रंप के दामाद जैरेड कुशनर के हित जुड़े हैं।
चीनी अरबपति जैक मा ने दुनियाभर के देशों को मेडिकल सामग्री देने का वायदा किया है। चीनी अर्थव्यवस्था को खड़ा करने में अमेरिका की बड़ी भूमिका है और आज उसके भी अंतर्विरोध नजर आ रहे हैं। चीन में कोरोनावायरस के प्रसार के बाद अंदेशा था कि अमेरिका और यूरोप को मिलने वाली सामग्री की सप्लाई में रुकावट आएगी। फिलहाल चीन का दावा है कि हमारे उद्योग फिर से चल निकले हैं। दुनिया अभी इस बीमारी से जूझ ही रही है और पता नहीं उसे इससे बाहर निकलने में कितना समय लगेगा, पर यकीनन तमाम बातें बदल चुकी होंगी। निश्चित रूप से चीन की साख को जबर्दस्त धक्का लग चुका है।
वैश्विक संगठनों में पैठ
पिछले कुछ वर्षों में अर्जित अपनी आर्थिक शक्ति के सहारे चीन ने अंतरराष्ट्रीय संगठनों में कितनी पैठ बनाई है, इसका पता विश्व स्वास्थ्य संगठन यानी डब्लूएचओ की गतिविधियों से लगता है। अब एक और जगह उसकी ताकत देखने का अवसर आ सकता है। इन दिनों यह माँग की जा रही है कि संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद को चाहिए कि वह कोविड-19 को वैश्विक सुरक्षा के लिए खतरा घोषित करे। ऐसी घोषणा होने पर तमाम देश अंतरराष्ट्रीय निर्णयों को लागू करने को बाध्य होंगे, जैसा कि संयुक्त राष्ट्र चार्टर में कहा गया है।
मार्च के चौथे सप्ताह में सुरक्षा परिषद के अस्थायी सदस्य एस्तोनिया ने कोरोना वायरस के कारण उत्पन्न हुए संकट को लेकर विशेष बैठक बुलाने की माँग की, जिसमें चीन और रूस ने अड़ंगा लगा दिया। गत 31 मार्च तक चीन रोटेशन व्यवस्था के तहत सुरक्षा परिषद का अध्यक्ष था। बैठक बुलाने का अधिकार उसके पास था। चीन की अड़ंगेबाजी के कारण 12 मार्च के बाद परिषद की बैठक नहीं हुई। गुरुवार 26 मार्च को वर्चुअल तरीके से परिषद की बैठक होनी थी, जिसे अंतिम समय में टाल दिया गया। चीनी राजदूत झांग जुन का कहना था कि कोविड-19 एजेंडा में नहीं है। प्रस्ताव की शब्दावली पर भी चीन को आपत्ति थी। अमेरिका सहित कुछ देश चाहते हैं कि कोरोनावायरस का केंद्र चीन में होने की बात रिकॉर्ड में दर्ज की जाए। उसके साथ ही इस बात को भी दर्ज किया जाए कि 2003 में सार्स वायरस का केंद्र भी चीन में था। कहानी अभी जारी है। बहुत सी बातें अभी अंधेरे में हैं।

डब्लूएचओ की चीन-परस्ती
कोविड-19 को लेकर विश्व स्वास्थ्य संगठन ने फरवरी में एक नए सूचना प्लेटफॉर्म डब्लूएचओ इनफॉर्मेशन नेटवर्क फॉर एपिडेमिक्स (एपी-विन) का उद्घाटन किया। इस मौके पर डब्लूएचओ के डायरेक्टर जनरल टेड्रॉस गैब्रेसस ने कहा, बीमारी के साथ-साथ दुनिया में गलत सूचनाओं की महामारी भी फैल रही है। हम केवल पैंडेमिक (महामारी) से नहीं इंफोडेमिक से भी लड़ रहे हैं। इस प्लेटफॉर्म से विश्व स्वास्थ्य संगठन ने अपनी सदाशयता का परिचय देने की कोशिश जरूर की है, पर व्यवहार में उसने सही सूचनाओं को सामने आने से रोकने में मदद भी की है। सारी दुनिया मान रही थी कि यह बीमारी मनुष्य से मनुष्य में संक्रमण से फैल रही है। ऐसे में 14 जनवरी को डब्लूएचओ ने ट्वीट किया कि चीनी अधिकारियों ने प्राथमिक जाँच में पाया है कि कोरोना वायरस के मनुष्यों से मनुष्यों में संक्रमण के निश्चित प्रमाण नहीं मिले हैं।
इसके काफी पहले 31 दिसम्बर, 2019 को वुहान के केंद्रीय चिकित्सालय में काम करने वाले 34 वर्षीय डॉक्टर ली वेनलियांग ने चीन के सोशल मीडिया माइक्रो मैसेंजर वीचैट पर सहयोगी चिकित्सकों के नाम संदेश भेजा कि वुहान में मनुष्य से मनुष्य में संक्रमित होने वाली एक बीमारी फैल रही है। इसका परिणाम बहुत भयानक होगा। जैसे ही उनके संदेश की जानकारी सरकारी अधिकारियों को मिली उन्होंने डॉक्टर ली को घेर लिया और उनपर अफवाहें फैलाने का आरोप लगाया। दुर्भाग्य से युवा डॉ ली खुद इस बीमारी के शिकार हो गए और उनकी मृत्यु हो गई। मृत्यु से पहले उन्होंने अमेरिकी अखबार न्यूयॉर्क टाइम्स को बताया कि यदि यह जानकारी पहले से सबको दे दी जाती, तो इसे फैलने से रोका जा सकता था। डॉ ली से न्यूयॉर्क टाइम्स के प्रतिनिधि के साथ काम कर रहे एक टाइम्स रिसर्चर ने 31 जनवरी और 1 फरवरी को वीचैट पर की थी। जिस वक्त यह बात हुई, वे मृत्युशैया पर थे।


किसी की नहीं सुनी
विस्मय इस बात पर है कि इंफोडेमिक की बात करने वाले डब्लूएचओ के डायरेक्टर जनरल टेड्रॉस फिर भी चीन की प्रशंसा करते रहे। हैरत की बात है कि संयुक्त राष्ट्र से जुड़ी संस्था ने बीमारियों को छिपाने के मामले में चीन के इतिहास को जानते हुए भी एक बार भी अपने संदेह को व्यक्त नहीं किया, बल्कि चीन की तारीफ के पुल बाँधते रहे।
ताइवान सरकार ने औपचारिक रूप से डब्लूएचओ को जानकारी दी, तो उसे स्वीकार नहीं किया गया, क्योंकि उसे संयुक्त राष्ट्र की मान्यता नहीं है, पर बीमारी की जानकारी को राजनीतिक कारणों से अस्वीकार करना क्या अमानवीय कृत्य नहीं है? इतना ही नहीं, जब संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में जब एस्तोनिया ने इस मामले को मानवजाति पर आए संकट के रूप में उठाना चाहा, तो चीन ने उसे उठाने नहीं दिया। एक तरफ डब्लूएचओ ने इसे पैंडेमिक घोषित किया है, जिसका अर्थ होता है वैश्विक महामारी। यह किसी एक क्षेत्र में व्याप्त बीमारी नहीं है, बल्कि मानवजाति के लिए खतरा बनकर आई बीमारी है। ऐसे में तथ्यों की अनदेखी इस विश्व संस्था के प्रति विश्वास पैदा नहीं करती है।
डब्लूएचओ के नए सूचना प्लेटफॉर्म का उद्देश्य भले ही इंफोडेमिक यानी गलत सूचनाओं से लड़ना बताया गया है, पर सच यह है कि इस विषय में तमाम गलतफहमियाँ अब भी कायम हैं। यह वायरस मनुष्य के शरीर में कैसे पहुँचा, यह शरीर के बाहर कितने समय तक सक्रिय रह सकता है, कितने तापमान तक यह जीवित रहता है जैसे अनेक प्रश्नों पर विशेषज्ञों के बीच भी सहमति नहीं है।


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