Sunday, April 3, 2016

कांग्रेस पर खतरे का निशान

संसद के बजट सत्र का आधिकारिक रूप से सत्रावसान हो गया है। ऐसा उत्तराखंड में पैदा हुई असाधारण स्थितियों के कारण हुआ है। उत्तराखंड में राजनीतिक स्थितियाँ क्या शक्ल लेंगी, यह अगले हफ्ते पता लगेगा। उधर पाँच राज्यों की विधानसभाओं के चुनाव कल असम में मतदान के साथ शुरू हो रहे हैं। भारतीय जनता पार्टी, कांग्रेस और क्षेत्रीय दलों की राजनीति की रीति-नीति को ये चुनाव तय करेंगे। उत्तराखंड के घटनाक्रम और पाँच राज्यों के चुनाव का सबसे बड़ा असर कांग्रेस पार्टी के भविष्य पर पड़ने वाला है। असम और केरल में कांग्रेस की सरकारें हैं। बंगाल में कांग्रेस वामपंथी दलों के साथ गठबंधन करके एक नया प्रयोग कर रही है और तमिलनाडु में वह डीएमके के साथ अपने परम्परागत गठबंधन को आगे बढ़ाना चाहती है, पर उसमें सफलता मिलती नजर नहीं आती।

केरल में मुख्यमंत्री ऊमन चैंडी समेत चार मंत्रियों पर भ्रष्टाचार के सीधे आरोप हैं। मुख्यमंत्री और प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष के बीच चुनाव को लेकर मतभेद हैं। पार्टी की पराजय सिर पर खड़ी नजर आती है। अरुणाचल गया, उत्तराखंड में बगावत हो गई। मणिपुर में पार्टी के 48 में से 25 विधायकों ने मुख्यमंत्री ओकरम इबोबी सिंह के खिलाफ बगावत का झंडा बुलंद कर दिया है। कर्नाटक में मुख्यमंत्री सिद्धरमैया के खिलाफ बगावत का माहौल बन रहा है।


हिमाचल में भी वीरभद्र सिंह सरकार के खिलाफ बगावत के आसार हैं। करीब दो दर्जन विधायक मुख्यमंत्री के खिलाफ विद्रोह का बिगुल बजा रहे हैं। यों भी यह सरकार चार निर्दलीय विधायकों की मदद से बनी है। बागी विधायकों का आरोप है कि उनकी बात की कहीं कोई सुनवाई नहीं हो रही। इन हालात में मुख्यमंत्री एम वीरभद्र सिंह ने दिल्ली जाकर सोनिया गांधी से मुलाकात की। उधर भाजपा विद्रोह को हवा दे रही है। विधानसभा के चुनाव अगले साल होने हैं, पर बीजेपी नेता प्रेम कुमार धूमल का कहना है,''हिमाचल प्रदेश में नई सरकार 2017 नहीं, 2016 में ही बनेगी।''

सन 2014 में सरकार बनाने के बाद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने घोषणा की थी कि हम हम कांग्रेस मुक्त भारत बनाएंगे। भारतीय जनता पार्टी का लक्ष्य केवल चुनाव जीतना नहीं, कांग्रेस को खत्म करना भी है। बीजेपी अपनी रणनीति पर काम कर रही है। पर कांग्रेस सन 2019 में अपनी वापसी का सपना देख रही है। कैसे होगी उसकी वापसी? उसका सारा जोर भाजपा से लड़ाई करने पर है। पार्टी उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने पिछले साल लम्बी छुट्टी के बाद लौटकर जो रणनीति तैयार की है, उसमें सारा जोर संसद और मीडिया में बीजेपी पर तेज हमले बोलने का है। इसमें उन्हें सफलता मिली भी है, पर पार्टी संगठन लगातार कमजोर होता जा रहा है। पिछले साल बिहार में कांग्रेस पार्टी ने राष्ट्रीय जनता दल और जेडीयू के साथ गठबंधन किया, जिससे उसकी सीटें कुछ बढ़ीं, पर राजनीतिक हैसियत घट गई।

पिछले साल आशा थी कि कांग्रेस पार्टी राहुल गांधी को पूर्ण अध्यक्ष का दर्जा दे देगी। ऐसा नहीं हुआ, पर सोनिया गांधी ने तमाम कामों से हाथ खींच लिए ताकि राहुल खुद फैसले करें। पर अभी तक इस बदलाव का लाभ मिलता नजर नहीं आया है। पिछले साल के अंतिम दिनों में अरुणाचल में पार्टी के भीतर बगावत की खबरें आने के बाद भी केन्द्रीय नेतृत्व बेफिक्र रहा। इसके बाद वहाँ के बागी विधायक करीब तीन हफ्ते तक दिल्ली में पड़े रहे, ताकि राहुल गांधी से उनकी मुलाकात हो जाए। मुलाकात नहीं हुई और बगावत अपनी तार्किक परिणति तक पहुँच गई।

इसके बाद उत्तराखंड में बगावत शुरू हुई। इस मौके पर भी राहुल गांधी की तरफ से पहल नहीं हुई, बल्कि सोनिया गांधी ने हस्तक्षेप किया। एके एंटनी के नेतृत्व में अम्बिका सोनी, गुलाम नबी आजाद, मोती लाल बोरा, कपिल सिब्बल और अहमद पटेल जैसे सीनियर नेताओं ने राष्ट्रपति से मुलाकात की। हालांकि पार्टी में खुलकर कोई यह बात नहीं कहता, पर कुछ वरिष्ठ नेताओं ने पूछा कि राहुल की टीम कहाँ है? पार्टी में धारणा पैदा हो रही है कि सोनिया सुनती हैं, राहुल नहीं सुनते। संकट आने पर अब भी पुरानी टीम ही काम कर रही है, पर कब तक?

लगातार झटके लगने के बाद सोनिया गांधी ने फिर से पार्टी के कार्यों में हस्तक्षेप किया है। उन्होंने हिमाचल, मणिपुर, मेघालय और कर्नाटक के मुख्यमंत्रियों से बातचीत की है। राहुल गांधी ने उत्तराखंड में समय रहते हस्तक्षेप किया होता तो शायद ऐसे हालात पैदा नहीं हुए होते। सोनिया गांधी के बैकअप से पार्टी जरूर चलती रहेगी, पर 2019 के चुनाव तक हालात काफी बिगड़ चुके होंगे। असम के चुनाव को लेकर ओपीनियन पोल कई तरह की बातें कर रहे हैं, पर कोई भी कांग्रेस को साफ-साफ जिता नहीं रहा, बल्कि भाजपा के पीछे ही बता रहा है। ज्यादा से ज्यादा यह हो सकता है कि कांग्रेस बद्रुद्दीन अजमल की पार्टी एआईयूडीएफ की मदद से सरकार बनाए।

केरल पूरी तरह हाथ से बाहर जाता दिखाई पड़ता है।बंगाल में तृणमूल कांग्रेस की सरकार ही बनती दिखाई पड़ रही है। कांग्रेस के साथ मिलकर लड़ने से शायद वाम मोर्चा की स्थिति कुछ बेहतर हो जाए, पर इसमें नुकसान कांग्रेस का ही होगा, क्योंकि उसके वोट अभी तक वाम मोर्चा विरोध के आधार पर आते थे। वाम मोर्चा का घोर विरोधी अब उसे वोट न देकर तृणमूल या किसी दूसरे दल को वोट देगा। बंगाल में भाजपा की स्थिति भी सुधरती नजर नहीं आती है, पर वह अपना वोट बढ़ाती जा रही है। तमिलनाडु और केरल में भी उसकी स्थिति सुधरेगी। इसका दूरगामी लाभ उसे तब मिलेगा जब कांग्रेस सीन से गायब होने लगेगी।

उत्तराखंड का घटनाक्रम और आगामी चुनावों के परिणाम कांग्रेस के लिए खतरे की घंटी बजाने वाले हैं। खासतौर से राहुल गांधी के लिए। पार्टी के भीतर यह बात जोर पकड़ती जा रही है कि सामान्य और पुराने कार्यकर्ता की सुनवाई नहीं हो रही है। राहुल गांधी के राजू, मोहन गोपाल, मोहन प्रकाश, मधुसूदन मिस्त्री या प्रशांत किशोर जैसे बाहर से आए लोगों की ज्यादा सुनते हैं, भीतरी कार्यकर्ताओं की कम। उत्तराखंड में भी विजय बहुगुणा अपने रिश्तों के कारण मुख्यमंत्री बनाए गए थे। अब वे बागी हैं। पर अब उन्हें और दूसरे नेताओं को लगने लगा है कि कांग्रेस के साथ रुकने का मतलब है, घाटे का सौदा। वे कहते हैं कि राहुल गांधी कन्हैया से मिलने को उत्सुक हैं, हमारे लिए उनके पास समय नहीं है। पार्टी का संगठनात्मक ढाँचा बुरी तरह चरमरा गया है। पिछले बीसेक साल से वही नेतृत्व वही नेता। नया नेता है भी और नहीं भी है।

हरिभूमि में प्रकाशित

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