Friday, April 29, 2016

पाँच साल में एकबार-एकसाथ चुनाव

पिछले छह महीने में कम से कम चार बार यह बात जोरदार ढंग से कही गई है कि देश को एक बार फिर से ‘आम चुनाव’ की अवधारणा पर लौटना चाहिए. पिछले एक महीने में प्रधानमंत्री दो बार यह बात कह चुके हैं. एक संसदीय समिति ने इसका रास्ता बताया है. और एक मंत्रिसमूह ने भी इस पर चर्चा की है. प्रधानमंत्री ने बजट सत्र के पहले आयोजित सर्वदलीय बैठक में अनौपचारिक रूप से यह सुझाव दिया था. मुख्यमंत्रियों और हाइकोर्ट के जजों की कांफ्रेंस में भी उन्होंने इस बात को उठाया.


चुनाव एक साथ कराने के पीछे प्रशासनिक और राजनीतिक दृष्टि काम करती है. इससे समय की बचत होगी, खर्चा भी कम होगा. चुनाव के दौरान लगाई जाने वाली आचार संहिता के कारण सरकारें बड़े फैसले नहीं कर पाती हैं. इस वजह से कई काम रुक जाते हैं. चुनाव एक साथ हों तो केंद्रीय बलों एवं निर्वाचन कर्मियों की तैनाती और बंदोबस्त में होने वाला खर्च कम होगा. पर बात इतनी ही नहीं है. वोटर को भी अतिशय चुनावबाजी से मुक्ति मिलनी चाहिए.

देश में सन 1967 तक कमोबेश एक साथ आम चुनाव हुए. इससे एक प्रकार की राजनीतिक स्थिरता देश में कायम थी. सन 1967 के साथ देश में पहली बार गैर-कांग्रेस सरकारें सामने आईं. इससे स्थिरता का भाव टूटा. यह अच्छा भी था और खराब भी. अच्छा इस लिहाज से कि निरंतर एक पार्टी का प्रभुत्व टूटने लगा. खराब इस लिहाज से कि बड़े वैकल्पिक दल की अनुपस्थिति में राष्ट्रीय राजनीति टूटे पाल की नाव जैसी अस्थिर हो गई. इस दौरान क्षेत्रीय दलों का उदय हुआ. वे शुरू में अस्थिरता के शिकार थे, पर उनमें स्थिरता आ रही है.

चुनाव महत्वपूर्ण लोकतांत्रिक कर्म है. इसकी वजह से राष्ट्रीय महत्व के तमाम प्रश्नों पर बहस होती है. तमाम जानकारियाँ सामने आती हैं. पर बेतहाशा चुनावबाजी के नकारात्मक पहलू भी हैं. हमारे मन पर लगातार चुनाव के जुमले हावी रहते हैं. इससे सामाजिक जीवन में जहर घुलता है. हाल का अनुभव है कि चुनावों के कारण सामाजिक कटुता बढ़ी है. नरेन्द्र मोदी अपने भाषणों की वजह से जीतकर आए हैं. पर हाल में उन्होंने भी कहा कि राजनेताओं के भाषणों पर ध्यान न दें. उनका आशय यह था कि चुनाव के दौर के भाषणों के पीछे संजीदगी नहीं होती.

देश में शायद ही कोई चुनाव हो जब सामाजिक-साम्प्रदायिक विद्वेष की बातें न हों और अनाप-शनाप आरोप प्रत्यारोप न लगे हों. सन 2014 के लोकसभा चुनाव के ठीक पहले जहरीले बयानों का एक दौर भी चला था. चुनाव के दौरान काफी काला धन बाहर आता है. कुछ साल पहले तक बूथ कैप्चरिंग, गुंडागर्दी और हत्याओं की भी चुनावों से घनिष्ठ संगत थी. इसके लिए चुनाव व्यवस्था ही दोषी नहीं है. हमारी सामाजिक विसंगतियों की भी इसमें भूमिका है. चुनाव उसे भड़काते हैं.

देश में हर वक्त कहीं न कहीं चुनाव होते रहते हैं. अभी असम में चुनाव का दौर पूरा हुआ है. बंगाल, तमिलनाडु, पुदुच्चेरी और केरल में चल रहा है. अगले साल गुजरात, हिमाचल प्रदेश, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, पंजाब और गोवा में चुनाव हैं. यह क्रम हर साल चलेगा. देश में 18 राज्य ऐसे हैं जिनमें लोकसभा चुनाव से 6 महीने या एक साल पहले, 6 महीने या एक साल बाद हो रहे हैं. इन्हें ही लोकसभा चुनाव के साथ जोड़ दें तो एक हद तक बड़ा काम एक साथ पूरा किया जा सकता है.

देश में 1952, 1957, 1962 और 1967 तक ये चुनाव कमोबेश एक साथ हुए. हालांकि बीच में एकाध राज्यों में सरकारें गिरीं, पर आम चुनाव एक बड़ी प्रक्रिया के रूप में चलते रहे. सन 1971 में पहली बार लोकसभा चुनाव, विधानसभा के चुनावों से पहले कराए गए. इसके बाद देश में अस्थिर सरकारों का दौर भी चला, जिसके बाद विधानसभाओं के चुनाव भी अलग-अलग वर्षों में होने लगे.

चुनाव के कारण राजनीति हमेशा गरमाई रहती है, जिसकी पहली चोट सामाजिक सद्भाव पर पड़ती है. देश की सामाजिक चूलों को हिला कर रख देना हमारी राजनीतिक प्रक्रिया का महत्वपूर्ण कारक बन गया है. लोकतंत्र के अंतर्विरोधों पर अलग से विचार किया जाना चाहिए, पर हमें यह भी सोचना चाहिए कि आम चुनाव की अपनी मूल स्थापना पर लौटें. ताकि देश के ज्यादा से ज्यादा हिस्से में एक साथ चुनाव हो जाएं. इससे खर्चा बचेगा, प्रशासन को अपना काम करने का मौका मिलेगा. और सामाजिक जीवन को जहरीला बनाने वाली प्रवृत्तियों को खुलकर खेलने का मौका कम मिलेगा.

यह बात देश के नीति-निर्धारकों को भी समझ में आ रही है इसीलिए संसद की एक स्थायी समिति ने इस बात पर विचार करके पिछले साल दिसम्बर में अपनी रपट दी है. वरिष्ठ सांसद ईएम सुदर्शन नचियप्पन की अध्यक्षता में बनी इस समिति ने अलग-अलग इलाकों में जाकर विचार-विमर्श किया. इसकी रपट राष्ट्रीय-विमर्श का प्रस्थान-बिन्दु बन सकती है. समिति ने सुझाव दिया है कि यह काम एक साथ करने के बजाय धीरे-धीरे भी किया जा सकता है.

एक रास्ता है कि 2019 के लोकसभा चुनाव के साथ 12 से 18 राज्यों की विधानसभाओं के चुनाव भी कराए जाएं. यानी जिन राज्यों के चुनाव लोकसभा चुनाव के साल भर पहले या साल भर बाद होने हैं उन्हें तभी करा लिया जाए. इसके लिए कुछ सदनों का कार्यकाल बढ़ाना होगा और कुछ सदनों को समय से पहले भंग करना होगा. इस काम को संविधान सम्मत भी करना होगा, इसलिए इस बात के अनेक पहलुओं का भली भांति अध्ययन करना होगा. इसके अलावा इसके लिए राजनीतिक दलों के बीच सहमति भी बनानी होगी.


देश की राजनीतिक व्यवस्था में स्थिरता आ रही है. सन 1999 के बाद से बनी सभी लोकसभाओं ने अपना कार्यकाल पूरा किया है. सन 2004 में समय से कुछ पहले चुनाव कराए गए थे, पर ऐसा सरकार के निश्चय के कारण हुआ था कोई राजनीतिक दबाव नहीं था. ज्यादातर राज्यों की सरकारें अपना कार्यकाल पूरा कर रहीं हैं. अगले दसेक साल में ज्यादातर राज्य स्थिर हो जाएंगे. इस स्थिरता को कायम रखने की जरूरत है. 
आईनेक्स्ट में प्रकाशित

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