Sunday, July 26, 2015

भूमि अधिग्रहण कानून की अटकती-भटकती गाड़ी

पिछले एक साल की सकारात्मक संसदीय सरगर्मी के बाद गाड़ी अचानक ढलान पर उतर गई है। भूमि अधिग्रहण कानून में संशोधन के विधेयक सहित 64 विधेयक संसद में विभिन्न स्तरों पर लटके पड़े हैं। आर्थिक सुधारों से जुड़े तमाम विधायी काम अभी अधूरे पड़े हैं और सन 2010 के बाद से अर्थ-व्यवस्था की गाड़ी कभी अटकती है और कभी झटकती है। 
फिलहाल भूमि अधिग्रहण विधेयक एनडीए सरकार के गले की हड्डी बना है। राहुल गांधी ने एक ‘इंच जमीन भी नहीं’ कहकर ताल ठोक दी है। शायद इसी वजह से केंद्रीय मंत्रिमंडल अपनी तरफ से विधेयक में कुछ परिवर्तनों की घोषणा करने पर विचार करने लगा है। हालांकि इस बात की आधिकारिक रूप से पुष्टि नहीं हुई है, पर लगता है कि सरकार इस कानून के सामाजिक प्रभाव को लेकर नए उपबंध जोड़ने को तैयार है। इन्हें इस विधेयक में इसके पहले पूरी तरह हटा दिया गया था। पर क्या इतनी बात से मामला बन जाएगा?


मॉनसून सत्र में नहीं?
यह बात तब उठी है जब सर्वदलीय बैठक में समाजवादी पार्टी के नेता रामगोपाल यादव ने कहा कि दोनों पक्षों के बीच सहमति नहीं बन पा रही है तो सरकार को विपक्ष को साथ बैठकर सहमति के सूत्रों को तैयार करना चाहिए। उनकी बात से नरेंद्र मोदी ने सहमति व्यक्त की है। इस बात का एक राजनीतिक निहितार्थ भी है। पिछले कुछ समय से समाजवादी पार्टी और भाजपा के बीच तालमेल दिखाई पड़ रहा है।

बहरहाल भूमि अधिग्रहण विधेयक पर विचार कर रही संसद की संयुक्त समिति को आम सहमति बनाने के लिए एक हफ्ते का समय और मिल गया है। उसका समय दूसरी बार बढ़ाया गया है। सन 2013 के इस कानून के तहत निजी परियोजनाओं के लिए 80 फीसदी भूस्वामियों की और पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप के लिए 70 फीसदी की सहमति जरूरी है। संसद में पेश विधेयक में पाँच क्षेत्रों को से शर्त से बाहर रखा गया है। ये हैं रक्षा, ग्रामीण इंफ्रास्ट्रक्चर, सस्ते आवास, औद्योगिक गलियारे और इंफ्रास्ट्रक्चर परियोजनाएं, जिनमें ऐसी पीपीपी परियोजनाएं भी शामिल हैं, जिसके लिए जमीन सरकार के पास है। यूपीए के कानून में सामाजिक प्रभाव आकलन की बात भी है।

संयुक्त समिति को अपनी रपट दाखिल करने के लिए अगस्त के पहले हफ्ते तक का समय मिलने से यह मसला कुछ समय के लिए टल सकता है और नेपथ्य में विचार विमर्श का मौका भी मिल सकता है। इसका एक मतलब यह भी है कि यह मामला मॉनसून सत्र में तय नहीं होगा। यानी इससे जुड़ा अध्यादेश चौथी बार जारी होगा। सरकार भी चाहेगी कि फिलहाल यह मसला टले, क्योंकि बिहार में सितंबर-अक्तूबर में विधानसभा चुनाव होंगे। इन चुनावों तक इसे पीछे रखने में ही समझदारी है।  सवाल है कि इसका फाइनल निपटारा कैसे होगा?

राज्यों के कानून?
इस बीच एक सुझाव आया है कि राज्यों को इस सिलसिले में कानून बनाने दिया जाए। राज्यों के कानून होना व्यावहारिक रूप से आकर्षक है। हाल में नीति आयोग की बैठक में शामिल मुख्यमंत्रियों ने इस आशय का सुझाव दिया था। प्रधानमंत्री मोदी ने नीति आयोग गवर्निंग काउंसिल की बैठक में राज्यों के मुख्यमंत्रियों से इसपर चर्चा की थी। इस बैठक में वित्तमंत्री अरुण जेटली ने कहा कि कुछ राज्य अपने कानून बनाने पर गंभीर हैं। वे केंद्रीय विधेयक पर आम सहमति बनाने के लिए लंबे समय तक इंतजार नहीं करना चाहते। वाणिज्य मंत्री निर्मला सीतारमन ने कहा कि कुछ राज्यों को लगता है कि उनके लिए विधेयक जरूरी है तो ‘प्रतिस्पर्धी संघवाद’ की भावना का आदर करते हुए इसे पास किया जाना चाहिए। यह तर्क राज्यों के अपने कानून की तरफ ले जाता है।

नीति आयोग की बैठक में 16 राज्यों के मुख्यमंत्री शामिल हुए थे। इनमें से कुछ का कहना है कि भूमि अधिग्रहण में विलंब से राज्‍य के विकास में रुकावटें आई हैं। पर बैठक में कांग्रेस शासित नौ राज्यों के अलावा पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु, उत्‍तर प्रदेश और ओडिशा के मुख्यमंत्री शामिल नहीं हुए थे। राज्यों पर इस मामले को छोड़ दिया जाए तो यह बात संघीय-भावना के अनुरूप होगी। पर उसके लिए सभी राज्यों के मुख्यमंत्रियों को एक-दूसरे से सहमत होना होगा।

राज्यों की अलग-अलग आवाज़ें
सिद्धांततः जमीन राज्य का मसला है। पर इसे समवर्ती विषय बनाने के भी कुछ कारण हैं। सार्वजनिक हित की तमाम परियोजनाएं केंद्र के अधीन चलती हैं। राज्य के कानून बनने से हर राज्य अपनी जरूरत के हिसाब से फैसले करेगा। यदि राज्यों के कानून बन सकें तो केंद्र सरकार ‘किसान-समर्थक’ या ‘किसान-विरोधी’ लांछन से बचेगी। बहुत से मसलों को लेकर राज्यों की अलग-अलग राय है। मसलन तमिलनाडु और पंजाब सामाजिक प्रभाव आकलन को बरकरार रखना चाहते हैं, जबकि महाराष्ट्र और कुछ दूसरे राज्य उसे हटाना चाहते हैं।

राज्य अपने-अपने प्रयोग करेंगे तो परिणाम सामने आएंगे। पूँजी को आकर्षित करने के लिए वे एक-दूसरे से प्रतियोगिता करेंगे। अनुभव ही उनके मददगार होंगे। मसलन अब शायद ममता बनर्जी समझने लगी हैं कि सिंगुर में छोटी कार परियोजना के खिलाफ उनका आंदोलन रोजगार तैयार करने और पूँजी को आकर्षित करने के लिहाज से उल्टा पड़ा था। राज्यों को आपसी प्रतियोगिता होगी तो जिन राज्यों का प्रशासन कुशल है वे अपने आप दूसरों के लिए नजीर बनेंगे।

उनकी मानें तो...
यूपीए सरकार जब कानून बना रही थी तब उसके भीतर भी इसे लेकर कई तरह की राय थी। सरकार के मंत्रिसमूह ने जो सिफारिशें की थीं, उन्हें सोनिया गांधी की अध्यक्षता में बनी राष्ट्रीय सलाहकार परिषद ने स्वीकार नहीं किया। एक मीडिया रिपोर्ट के अनुसार जब यह कानून बन रहा था तब हरियाणा और केरल की सरकारों ने पीपीपी आधार पर चलाई जा रही परियोजनाओं के लिए किए जाने वाले अधिग्रहण के लिए 80 फीसदी भूस्वामियों की सहमति की शर्त को हटाने का आग्रह किया था। असम, हरियाणा और हिमाचल प्रदेश की सरकारों ने कहा था कि प्रभावित परिवारों की परिभाषा बहुत ज्यादा व्यापक है।

इसी तरह सामाजिक प्रभाव आकलन को लेकर कर्नाटक, केरल, महाराष्ट्र और मणिपुर की माँग थी कि यह काम केवल बड़ी परियोजनाओं के लिए किया जाना चाहिए। ये सभी राज्य सरकारें कांग्रेसी थीं। ज़ाहिर है कि राजनीतिक कारणों से उन्होंने अपने स्वर धीमे किए।

...पर इसमें भी पेच है

राज्यों को अपने-अपने कानून बनाने का मौका देना आकर्षक है। राय व्यावहारिक भी है। पर इसकी कानूनी स्थिति पर भी विचार करना होगा। सन 2013 का केंद्रीय कानून ने सन 1894 के जिस कानून की जगह ली वह केंद्रीय कानून था। हमारे संविधान के अनुच्छेद 254 के अनुसार देश में किसी विषय पर केंद्र और राज्य के दो कानून होने और उनमें टकराव होने पर केंद्रीय कानून ही लागू होता है। इसके अलावा 2013 के कानून में यह व्यवस्था है कि यदि इस सिलसिले में राज्य के कानून हैं तब भूमि अधिग्रहण के एवज में मुआवजा और अन्य प्राप्तियाँ केंद्रीय कानून से कम नहीं होंगी। बेशक राज्यों के कानून को लागू कराने के कानूनी रास्ते भी होंगे, पर उसके लिए राजनीतिक आमराय बनानी होगी। पर मसला तो राजनीतिक है, कानूनी नहीं।

राष्ट्रीय सहारा हस्तक्षेप में प्रकाशित 

1 comment:

  1. दिनांक 27/07/2015 को आप की इस रचना का लिंक होगा...
    चर्चा मंच[कुलदीप ठाकुर द्वारा प्रस्तुत चर्चा] पर...
    आप भी आयेगा....

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