Monday, May 14, 2012

यूरोज़ोन और पूँजीवाद का वैश्विक संकट

यूरोपीय संघ अपने किस्म का सबसे बड़ा राजनीतिक-आर्थिक संगठन है। इरादा यह था कि यूरोप के सभी देश आपसी सहयोग के सहारे आर्थिक विकास करेंगे और एक राजनीतिक व्यवस्था को भी विकसित करेंगे। 27 देशों के इस संगठन की एक संसद है। और एक मुद्रा भी, जिसे 17 देशों ने स्वीकार किया है। दूसरे विवश्वयुद्ध के बाद इन देशों के राजनेताओं ने सपना देखा था कि उनकी मुद्रा यूरो होगी। सन 1992 में मास्ट्रिख्ट संधि के बाद यूरोपीय संघ के भीतर यूरो नाम की मुद्रा पर सहमति हो गई। इसे लागू होते-होते करीब दस साल और लगे। इसमें सारे देश शामिल भी नहीं हैं। यूनाइटेड किंगडम का पाउंड स्टर्लिंग स्वतंत्र मुद्रा बना रहा। मुद्रा की भूमिका केवल विनिमय तक सीमित नहीं है। यह अर्थव्यवस्था को जोड़ती है। अलग-अलग देशों के बजट घाटे, मुद्रास्फीति और ब्याज की दरें इसे प्रभावित करती हैं। समूचे यूरोप की अर्थव्यवस्था एक जैसी नहीं है। दुनिया की अर्थव्यवस्था इन दिनों दो प्रकार के आर्थिक संकटों से घिरी है। एक है आर्थिक मंदी और दूसरा यूरोज़ोन का संकट। दोनों एक-दूसरे से जुड़े हैं।


यूरोज़ोन के ज्यादातर देश इन दिनों कर्ज में डूबे हुए हैं। उनकी आय के मुकाबले खर्च ज्यादा है। यूरोपीय बैंक और यूरोपीय संघ के दबाव के कारण प्रायः सभी देश किफायतशारी यानी ऑस्टैरिटी में लगे हैं। पिछले साल यूरोज़ोन के वित्त मंत्रियों ने मिलकर 500 अरब यूरो का एक स्थायी बेलआउट कोष बनाया है। ग्रीस, आयरलैंड, पुर्तगाल, स्पेन और इटली जैसे देश भुगतान के संकट से घिरे हैं। फ्रांस और इंगलैंड भी आर्थिक मंदी के शिकार हैं। जर्मनी की स्थिति अपेक्षाकृत बेहतर है, पर वह भी धीरे-धीरे शून्य विकास की ओर बढ़ रहा है। दिक्कत यह है कि यूरोप के अलग-अलग इलाके अलग-अलग किस्म की परेशानियों के शिकार हैं। उत्तरी यूरोप में आर्थिक विकास की सम्भावनाएं बेहतर हैं, पर दक्षिणी यूरोप संकट में है। बेरोज़गारी बढ़ रही है। सरकारों ने किफायतशारी का जो रास्ता अपनाया है उससे जनता बुरी तरह परेशान है। इसके कारण फ्रांस के राष्ट्रपति पद के लिए हुए चुनाव में लम्बे अरसे के बाद सोशलिस्ट राष्ट्रपति फ्रांस्वा ओलां जीतकर आए हैं। उधर पिछले रविवार को ग्रीस में हुए चुनाव में त्रिशंकु संसद आई है। 300 के सदन में सत्तारूढ़ पसोका और न्यू डेमोक्रेसी गठबंधन को बहुमत से दो सीटें कम मिली हैं। इस बात की कोशिश हो रही है कि वामपंथी गठबंधन सिरीज़ा और न्यू डेमोक्रेसी का गठबंधन हो सके। पर सिरीज़ा अपेक्षाकृत वामपंथी पार्टी है और इस वक्त चल रही किफायतशारी की विरोधी है। यदि वहाँ सरकार नहीं बन सकी तो फिर चुनाव होंगे।

फ्रांस में पराजित निकोलस सरकोजी हाल के वर्षों में यूरोप में अपदस्थ हुए नौवें शासन-प्रमुख हैं। ब्रिटेन, इटली, ग्रीस, स्पेन, डेनमार्क, लात्विया, आयरलैंड और स्विट्जरलैंड में सत्ता परिवर्तन हो चुके हैं। हाल में हुए ब्रिटेन के स्थानीय चुनाव में लेबर पार्टी फिर से जीत गई है, जो सत्तारूढ़ लिबरल डेमोक्रेट और कंजर्वेटिव गठबंधन को धक्का है। जर्मनी में एंजेला मर्केल की पार्टी सीडीयू के नेतृत्व वाले गठबंधन को श्लेश्विग होल्स्टाइन में जबर्दस्त हार मिली है। यूरोप की इस आर्थिक अराजकता और राजनीतिक असमंजस के बीच बार-बार यह सवाल सामने आ रहा है कि क्या यह पूँजीवाद का संकट है? और क्या अब पूँजीवाद अपनी दिक्कतों का सामना करने में असमर्थ होता जा रहा है?

यह साल अमेरिका में राष्ट्रपति के चुनाव का साल भी है। बराक ओबामा जिन उम्मीदों और हौसलों के साथ जीतकर आए थे, वे पूरी होती नज़र नहीं आ रहीं हैं। पिछले साल सितम्बर के महीने से अमेरिका में एक जन-आंदोलन चल रहा है। इसका नाम है ‘ऑक्यूपाई द वॉल स्ट्रीट।‘ यह आंदोलन न्यूयॉर्क तक सीमित नहीं है। वॉशिंगटन, लॉस एंजेलस, सैन फ्रांसिस्को, बोस्टन, शिकागो, अलबर्क, टैम्पा, शार्लेट, मिज़ूरी, डेनवर, पोर्टलैंड और मेन जैसे शहरों में इस आंदोलन का विस्तार हो चुका है। इसमें शामिल लोगों की तादाद बढ़ती जा रही है। आंदोलन के मूल में यह गहरी धारणा है कि राजनीति और पैसे वालों के गठजोड़ से सामान्य नागरिक का जीना हराम है। राजनीतिक व्यवस्था अमीरों के हित में काम कर रही है। सरकार में भारी भ्रष्टाचार है। बड़े कॉरपोरेट हाउस सरकार चला रहे हैं। बैंकों ने जनता को धोखा दिया है। उनके अफसर खुद भारी-भरकम बोनस उठा रहे हैं और हमारी बचत का पैसा हड़प कर गए हैं। बढ़ती बेरोजगारी और घटती सुविधाओं के खिलाफ जनता की बेचैनी इसमें व्यक्त हो रही है।

इस वैश्विक घटनाक्रम को किसी एक वैश्विक सूत्र से समझने की घड़ी अभी नहीं आई है, पर पूँजी के अंतर्विरोध उभरने लगे हैं। अभी तक पूँजीवाद अपने अंतर्विरोधों को सुलझाने में कामयाब है। कम्युनिस्ट शब्दावली इसे वर्ग-युद्ध के रूप में समझाने का प्रयास कर रही है और नव-उदारवाद इसे सामान्य अंतर्विरोध मानता है। पर इसमें दो राय नहीं कि पूँजी के वैश्वीकरण की आड़ में वैश्विक कॉरपोरेट-कम्युनिटी, प्राइवेट बैंकिंग सिस्टम और प्राकृतिक साधनों के दोहन में लगे अंतरराष्ट्रीय कार्टल मिल-जुलकर काम कर रहे हैं। सरकारों पर भ्रष्ट तत्वों की मदद करने का आरोप सिर्फ भारत में ही नहीं लग रहा। पिछले चार साल से मंदी से निपटने के नाम पर सरकारें जो पैकेज दे रही हैं उनसे आर्थिक गतिविधियाँ बढ़ नहीं रहीं हैं। इन पैकेजों का नीतिगत फैसला अलग-अलग देश खुद नहीं करते बल्कि जी-20 या इसी किस्म के अंतरराष्ट्रीय मंच पर करते हैं। अर्थ-व्यवस्था की शक्ल वैश्विक हो गई है इसलिए ऐसे फैसले स्वाभाविक भी हैं। पर लगता है कि झपटमार बेकाबू हैं।

अमेरिका के बाद यूरोप की बैंकिंग व्यवस्था के अंतर्विरोध खुलने लगे हैं। यूरोपीय यूनियन ने आर्थिक संकट के लिए जिम्मेदार सरकारों के खिलाफ सख्ती शुरू कर दी है। इसका असर सीधे जनता पर पड़ा है। जनता हैरान है। सरकारें अपने खर्च कम करने के लिए कल्याण कार्यों से हाथ खींच रहीं हैं। बैंकों और निजी कम्पनियों को बचाने के लिए बेल आउट पैकेज तैयार हो रहे हैं। यूरोप में आर्थिक संकट के कारण लाखों लोग बेरोज़गार हो गए हैं। आयरलैंड की अर्थव्यवस्था बहुत मजबूत मानी जाती थी, वहाँ बेरोजगारी अचानक बढ़ गई है। बैंकों के बेल आउट पैकेज के खिलाफ डबलिन में एक व्यक्ति ने सीमेंट से भरा ट्रक संसद भवन पर झोंक दिया। यूनान के डॉक्टरों और रेल कर्मचारियों ने हड़ताल कर दी। एथेंस की सड़कों पर प्रदर्शनकारियों और पुलिस के बीच खूनी मुठभेड़ें होने लगी हैं। स्पेन के कामगारों ने रेलगाड़ियों और बसों का चक्का जाम कर दिया। ब्रसेल्स में लाखों लोग विरोध प्रदर्शन में शामिल हो रहे हैं। स्लोवेनिया में हड़ताल के कारण सार्वजनिक सेवाएं ठप पड़ी हैं। विरोध प्रदर्शन फ्रांस, आइसलैंड और इंग्लैंड तक पहुँच गए हैं।
यूरोप के दस-बारह देश मंदी में फँसे हैं। इटली, स्पेन, बेल्जियम, आयरलैंड, ग्रीस, स्लोवानिया, नीदरलैंड, ब्रिटेन, डेनमार्क व चेक गणराज्य। इस साल जर्मनी के भी मंदी का शिकार होने का अंदेशा है। बेरोजगारी भयावह रूप से बढ़ गई है। जीवन स्तर गिर रहा है। ग्रीस और स्पेन में 25 वर्ष तक की आयु के 51 फीसदी युवा बेरोजगार हैं। इटली और पुर्तगाल में 36, आयरलैंड में 30 और फ्रांस में 20 फीसदी से ज्यादा। ग्रीस बहुत जल्द यूरोज़ोन से बाहर निकलने वाला है। इस मंगलवार को शपथ लेने के बाद फ्रांस्वा ओलां अपने प्रधानमंत्री की घोषणा करेंगे साथ ही अर्थव्यवस्था की दिशा में अपने इरादे साफ करेंगे। यूरोप की राजनीति में उनका सामना जर्मनी से है। फिलहाल यह संकट सुलझने के बजाय बढ़ने के आसार ही हैं। बेलआउट पैकेज देकर अभी जिन कम्पनियों और बैंकों को बचाया गया है वे दो साल या तीन साल बाद कर्जों को किस तरह वापस करेंगे,किसी को पता नहीं।

इस वक्त दुनिया में चीन, भारत, ब्राजील, धक्षिण अफ्रीका और कुछ अन्य विकासशील देशों की अर्थव्यवस्थाएं विकास कर रही हैं। चीन की सफलता कथा भी कुछ साल के लिए बची है। वहाँ आर्थिक औऱ राजनीतिक संकट पैदा होने की घड़ी है। अमेरिकी अर्थव्यवस्था फिलहाल स्थिर है, पर आर्थिक विकास के केन्द्र अब अमेरिका से बाहर जा रहे हैं। अगला दशक संकट और समाधान का दशक है। पूँजीवाद केवल आर्थिक गतिविधियाँ ही नहीं लाता, वैचारिक सवाल भी लाता है। पूँजी का उद्देश्य सिर्फ मुनाफा है, वह कल्याण नहीं सोचती। इसलिए कल्याणकारी अर्थ व्यवस्था के बारे में सोचने की ज़रूरत भी है। यह काम राजनीति का है।

1 comment:

  1. Anonymous11:06 AM

    mujhe ye baate jayda samjha me nhi aati,aap ke is post ne kuch sahayta jaruru ki ,thanks

    http://blondmedia.blogspot.in/

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