जिस वक्त आप ये पंक्तियाँ पढ़ रहे हैं उस वक्त तक अफगानिस्तान में पाकिस्तान के रास्ते नेटो सेना की रसद सप्लाई पर लगी रोक हट चुकी होगी या हटाने की घोषणा हो चुकी होगी। या उसका रास्ता साफ हो चुका होगा। शिकागो में नेटो का शिखर सम्मेलन शुरू हो गया है जिसमें पाकिस्तान के राष्ट्रपति आसिफ अली जरदारी शिरकत कर रहे हैं। विदेश मंत्री हिना रब्बानी खर उनके साथ हैं। पाकिस्तानी राजनीति अमेरिका के साथ रिश्तों को आज भी ठीक से परिभाषित नहीं कर पाई है, पर किसी में हिम्मत नहीं है कि अमेरिका के रिश्ते पूरी तरह तोड़ सके। पिछले साल नवंबर में नेटो सेना के हैलिकॉप्टरों ने कबायली इलाके मोहमंद एजेंसी में पाकिस्तानी फौजी चौकियों पर हमला किया था, जिसमें 24 सैनिक मारे गए थे। पाकिस्तानी सरकार ने उस हमले का कड़ा विरोध किया था और नेटो सेना की सप्लाई पर रोक लगा दी थी। इन दिनों नेटो के सैकड़ों वाहन पाकिस्तान के विभिन्न इलाकों में अफगानिस्तान जाने का इंतजार कर रहे हैं। समझौते की घोषणा होते ही वे चल पड़ेंगे। हालांकि अमेरिका और पाकिस्तान के बीच रिश्तों में पड़ी खटास का यह दौर फिलहाल खत्म हो जाएगा, पर दोनों देशों के बीच गहरा अविश्वास घर कर चुका है और लम्बे समय तक इसके दूर होने की आशा नहीं है।
पहले कयास लगाए जा रहे थे कि नेटो सम्मेलन में पाकिस्तान को बुलाया नहीं जाएगा। लेकिन पिछले हफ्ते नेटो के महासचिव ने राष्ट्रपति जरदारी को फोन पर सम्मेलन में भाग लेने के लिए आमंत्रित किया। उसके पहले पाकिस्तान से खबरें आने लगीं थी कि सप्लाई पर लगी रोक हटने वाली है। आर्थिक और राजनीतिक संकटों से घिरी पाकिस्तान सरकार के लिए यह राहत की बात है और परेशानी की भी। देश का कट्टरपंथी तबका अब सवाल करेगा कि सप्लाई शुरू क्यों की जा रहा है। उनके विचार से इस समझौते का सबसे कड़वा पहलू यह है कि अमेरिका इस मामले पर किसी प्रकार की माफी माँगने नहीं जा रहा है। दूसरे वह पाकिस्तान को इस सुविधा की मुँहमाँगी कीमत भी देने नहीं जा रहा है। अमेरिका ने पिछले साल उसे मिलनी वाली 70 करोड़ डॉलर की सहायता रोकी थी। इस साल यदि नेटो सप्लाई मार्ग नहीं खोला गया तो 65 करोड़ डॉलर की सहायता रोक दी जाएगी।
दो रोज पहले शुक्रवार को अमेरिकी कांग्रेस ने डैना रोराबेचर के एक बिल को अस्वीकार कर दिया, जिसमें पाकिस्तानी आईएसआई या उसके सहयोग से मारे गए हरेक अमेरिकी नागरिक के लिए पाँच करोड़ डॉलर पाकिस्तानी सहायता में से काटने की बात कही गई थी। हालांकि यह बिल अस्वीकार हो गया, पर पाकिस्तान को लेकर अमेरिका में अविश्वास का माहौल है। और इतना ही गहरा अविश्वास पाकिस्तान में अमेरिका के प्रति पैदा हो गया है। इतिहास को देखें तो पाकिस्तान अपनी अस्मिता, राष्ट्रीय सम्प्रभुता और राष्ट्रीय हितों की बात जब करता है तब उसका आशय इनकी कीमत से होता है। पाकिस्तानी पत्रकार नजम सेठी के अनुसार पाकिस्तान आतंकवाद के खिलाफ अपनी लड़ाई के लिए सन 2001 से 2011 के बीच 20 अरब डॉलर अमेरिका से ले चुका है। इसमें से 14 अरब डॉलर फौजी शासनकाल में लिया गया।
पिछले साल 4 जनवरी को पंजाब के गवर्नर सलमान तासीर की हत्या के बाद से पाकिस्तान में अचानक कट्टरपंथी भावनाएं भड़कने लगी हैं। सलमान तासीर के हत्यारे मुमताज कादरी को देखते ही देखते हीरो का दर्जा मिल गया। उसके फौरन बाद रेमंड डेविस वाला मामला हुआ। रेमंड डेविस सीआईए का कार्यकर्ता था। उसने दो पाकिस्तानियों की गोली मारकर हत्या कर दी। उसके बाद उसकी गिरफ्तारी हुई। अमेरिकी सरकार उसे किसी तरीके से राजनयिक का दर्जा दिलाकर और सरकार पर दबाव बनाकर रिहा कराने में सफल हुई। पीड़ित पाकिस्तानी परिवारों को उसने मुआवजा दिलाकर पीछा छुड़ा लिया, पर पूरे देश ने इसे अपमान समझा। इससे बड़ा अपमान मई के महीने एबटाबाद में हुआ जहाँ अमेरिकी सेना ने सीधे कार्रवाई करके ओसामा बिन लादेन की हत्या कर दी। अब अविश्वास दोनों तरफ बढ़ा। जानकारी यह मिली कि लादेन यहाँ पिछले पाँच साल से रह रहा था। पाकिस्तानी सेना एक ओर यह कहती है कि हमने अमेरिका को इसकी जानकारी दी वहीं वह सीधी कार्रवाई की आलोचना भी करती है।
पाकिस्तान और अमेरिका के बीच कड़वाहट ही नहीं बढ़ी। पिछले साल पाकिस्तानी सरकार, सेना और न्यायपालिका के बीच लगातार जद्दो-जेहद चली है। अक्टूबर 2011 में मीमोगेट नाम से एक विवाद खड़ा हुआ, जिसमें कहा गया कि अमेरिका में पाकिस्तानी दूतावास से किसी ने अमेरिकी नेतृत्व को संदेश भेजने की कोशिश की कि फौजी तख्ता पलट की संभावना को रोकने में मदद करें। बहरहाल यह मामला रहस्य में है। इसमें पाकिस्तानी राजदूत को पद छोड़ना पड़ा। अब पाकिस्तान का सुप्रीम कोर्ट इस मामले में तफतीश कर रहा है।
अमेरिका का आरोप है कि अफगानिस्तान में सक्रिय तालिबान की जड़ें पाकिस्तान में हैं। वजीरिस्तान के कबायली इलाकों में हक्कानी नेटवर्क सक्रिय है, जो अफगानिस्तान में करज़ाई सरकार की जड़ें जमने नहीं देगा। हाल में काबुल में दो-तीन बार हो चुके सीरियल धमाकों में इस नेटवर्क का हाथ है। अफगानिस्तान में अमेरिका को तकरीबन चार अरब डॉलर हर साल खर्च करना पड़ता है। सन 2010 में अमेरिका ने अफगानिस्तान के लिए जो कार्यक्रम तय किया है उसके अनुसार सन 2014 तक वहाँ से अंतरराष्ट्रीय सेना को हटना है। उसके पहले अफगानिस्तान की सेना को प्रशिक्षण देकर तैयार करने का काम है। हालांकि यह काम चल रहा है। हाल के आतंकी हमलों से निपटने का काम अफगान सेना ने ही किया। पर इस वक्त वहाँ नेटो सेनाएं मौज़ूद हैं। तालिबानी रणनीतिकार इस बात को समझते हैं। वे किसी प्रकार से अपने आप को सक्रिय बनाए रखना चाहते हैं, ताकि विदेशी सेनाओं के हटने के बाद वे सक्रिय हो सकें।
करज़ाई सरकार कुछ अफगान गुटों से बातचीत करके उन्हें अपने साथ लाने की कोशिश कर रही है। ऐसा लगता है कि अंतरराष्ट्रीय आतंक का केन्द्र पाकिस्तान में है। कम से कम सीआईए का निष्कर्ष यही है। अमेरिका चाहता है कि पाकिस्तानी सेना पूरी ताकत से अफगान सीमा पर सक्रिय हक्कानी नेटवर्क का सफाया करे। पाकिस्तान की अपनी मज़बूरियाँ हैं। शिकागो में हो रही नेटो की बैठक में यूरोप के ताजा समीकरणों का असर भी देखने को मिलेगा। फ्रांस के नए राष्ट्रपति की अफगानिस्तान को लेकर धारणा क्या है, यह अभी स्पष्ट नहीं है। नेटो सेना का खर्च ग्रीस भी देता है, जो खुद संकट में आ गया है। यूरोप आर्थिक संकट से घिरा है। अमेरिका खुद परेशानियों के सागर में डूब रहा है। कड़की के इस माहौल में अफगानिस्तान का क्या होगा? नेटो सम्मेलन के ठीक पहले कैम्प डेविड में डी-8 के सम्मेलन की थीम भी आर्थिक थी। शिकागो सम्मेलन में तमाम गैर-नेटो देश भी शामिल हैं। तकरीबन 60 देशों और संगठनों के प्रतिनिधि इस सम्मेलन में शिरकत कर रहे हैं। इनमें जापान भी है। सबकी दिलचस्पी अफगानिस्तान के पुनर्निर्माण में है। पर उससे पहले उसे कबायली अराजकता से निजात दिलानी होगी। पाकिस्तान की आंतरिक समस्याओं का हल भी इस बात में है कि अफगानिस्तान में अमन कायम हो। इसके अलावा पाकिस्तान को भारत के मुकाबले अफगानिस्तान में स्ट्रीटिजिक डैप्थ की तलाश बन्द कर देनी चाहिए। अमेरिका की दिलचस्पी केवल सप्लाई रूट खोलने भर में नहीं है, बल्कि इस इलाके में व्यवस्था कायम करने में है। यह दिलचस्पी भारत की भी है। भारत वहाँ सड़कें तैयार कर रहा है और आधार-ढाँचे से जुड़ी योजनाओं पर काम कर रहा है। चीन की दिलचस्पी भी इसी बात में होगी। अंततः यह इलाका पश्चिम एशिया, मध्य एशिया और यूरोप से चीन और दक्षिण एशिया का सप्लाई रूट साबित होगा। पर उसके पहले पाकिस्तान के वजीरिस्तान में व्यवस्था कायम करने की ज़रूरत है। हाल में वहाँ बन्नू की जेल तोड़कर तालिबानी अपने सैकड़ों कैदियों को छुड़ा ले गए। यह अच्छा संकेत नहीं।
सी एक्सप्रेस में प्रकाशित
पहले कयास लगाए जा रहे थे कि नेटो सम्मेलन में पाकिस्तान को बुलाया नहीं जाएगा। लेकिन पिछले हफ्ते नेटो के महासचिव ने राष्ट्रपति जरदारी को फोन पर सम्मेलन में भाग लेने के लिए आमंत्रित किया। उसके पहले पाकिस्तान से खबरें आने लगीं थी कि सप्लाई पर लगी रोक हटने वाली है। आर्थिक और राजनीतिक संकटों से घिरी पाकिस्तान सरकार के लिए यह राहत की बात है और परेशानी की भी। देश का कट्टरपंथी तबका अब सवाल करेगा कि सप्लाई शुरू क्यों की जा रहा है। उनके विचार से इस समझौते का सबसे कड़वा पहलू यह है कि अमेरिका इस मामले पर किसी प्रकार की माफी माँगने नहीं जा रहा है। दूसरे वह पाकिस्तान को इस सुविधा की मुँहमाँगी कीमत भी देने नहीं जा रहा है। अमेरिका ने पिछले साल उसे मिलनी वाली 70 करोड़ डॉलर की सहायता रोकी थी। इस साल यदि नेटो सप्लाई मार्ग नहीं खोला गया तो 65 करोड़ डॉलर की सहायता रोक दी जाएगी।
दो रोज पहले शुक्रवार को अमेरिकी कांग्रेस ने डैना रोराबेचर के एक बिल को अस्वीकार कर दिया, जिसमें पाकिस्तानी आईएसआई या उसके सहयोग से मारे गए हरेक अमेरिकी नागरिक के लिए पाँच करोड़ डॉलर पाकिस्तानी सहायता में से काटने की बात कही गई थी। हालांकि यह बिल अस्वीकार हो गया, पर पाकिस्तान को लेकर अमेरिका में अविश्वास का माहौल है। और इतना ही गहरा अविश्वास पाकिस्तान में अमेरिका के प्रति पैदा हो गया है। इतिहास को देखें तो पाकिस्तान अपनी अस्मिता, राष्ट्रीय सम्प्रभुता और राष्ट्रीय हितों की बात जब करता है तब उसका आशय इनकी कीमत से होता है। पाकिस्तानी पत्रकार नजम सेठी के अनुसार पाकिस्तान आतंकवाद के खिलाफ अपनी लड़ाई के लिए सन 2001 से 2011 के बीच 20 अरब डॉलर अमेरिका से ले चुका है। इसमें से 14 अरब डॉलर फौजी शासनकाल में लिया गया।
पिछले साल 4 जनवरी को पंजाब के गवर्नर सलमान तासीर की हत्या के बाद से पाकिस्तान में अचानक कट्टरपंथी भावनाएं भड़कने लगी हैं। सलमान तासीर के हत्यारे मुमताज कादरी को देखते ही देखते हीरो का दर्जा मिल गया। उसके फौरन बाद रेमंड डेविस वाला मामला हुआ। रेमंड डेविस सीआईए का कार्यकर्ता था। उसने दो पाकिस्तानियों की गोली मारकर हत्या कर दी। उसके बाद उसकी गिरफ्तारी हुई। अमेरिकी सरकार उसे किसी तरीके से राजनयिक का दर्जा दिलाकर और सरकार पर दबाव बनाकर रिहा कराने में सफल हुई। पीड़ित पाकिस्तानी परिवारों को उसने मुआवजा दिलाकर पीछा छुड़ा लिया, पर पूरे देश ने इसे अपमान समझा। इससे बड़ा अपमान मई के महीने एबटाबाद में हुआ जहाँ अमेरिकी सेना ने सीधे कार्रवाई करके ओसामा बिन लादेन की हत्या कर दी। अब अविश्वास दोनों तरफ बढ़ा। जानकारी यह मिली कि लादेन यहाँ पिछले पाँच साल से रह रहा था। पाकिस्तानी सेना एक ओर यह कहती है कि हमने अमेरिका को इसकी जानकारी दी वहीं वह सीधी कार्रवाई की आलोचना भी करती है।
पाकिस्तान और अमेरिका के बीच कड़वाहट ही नहीं बढ़ी। पिछले साल पाकिस्तानी सरकार, सेना और न्यायपालिका के बीच लगातार जद्दो-जेहद चली है। अक्टूबर 2011 में मीमोगेट नाम से एक विवाद खड़ा हुआ, जिसमें कहा गया कि अमेरिका में पाकिस्तानी दूतावास से किसी ने अमेरिकी नेतृत्व को संदेश भेजने की कोशिश की कि फौजी तख्ता पलट की संभावना को रोकने में मदद करें। बहरहाल यह मामला रहस्य में है। इसमें पाकिस्तानी राजदूत को पद छोड़ना पड़ा। अब पाकिस्तान का सुप्रीम कोर्ट इस मामले में तफतीश कर रहा है।
अमेरिका का आरोप है कि अफगानिस्तान में सक्रिय तालिबान की जड़ें पाकिस्तान में हैं। वजीरिस्तान के कबायली इलाकों में हक्कानी नेटवर्क सक्रिय है, जो अफगानिस्तान में करज़ाई सरकार की जड़ें जमने नहीं देगा। हाल में काबुल में दो-तीन बार हो चुके सीरियल धमाकों में इस नेटवर्क का हाथ है। अफगानिस्तान में अमेरिका को तकरीबन चार अरब डॉलर हर साल खर्च करना पड़ता है। सन 2010 में अमेरिका ने अफगानिस्तान के लिए जो कार्यक्रम तय किया है उसके अनुसार सन 2014 तक वहाँ से अंतरराष्ट्रीय सेना को हटना है। उसके पहले अफगानिस्तान की सेना को प्रशिक्षण देकर तैयार करने का काम है। हालांकि यह काम चल रहा है। हाल के आतंकी हमलों से निपटने का काम अफगान सेना ने ही किया। पर इस वक्त वहाँ नेटो सेनाएं मौज़ूद हैं। तालिबानी रणनीतिकार इस बात को समझते हैं। वे किसी प्रकार से अपने आप को सक्रिय बनाए रखना चाहते हैं, ताकि विदेशी सेनाओं के हटने के बाद वे सक्रिय हो सकें।
करज़ाई सरकार कुछ अफगान गुटों से बातचीत करके उन्हें अपने साथ लाने की कोशिश कर रही है। ऐसा लगता है कि अंतरराष्ट्रीय आतंक का केन्द्र पाकिस्तान में है। कम से कम सीआईए का निष्कर्ष यही है। अमेरिका चाहता है कि पाकिस्तानी सेना पूरी ताकत से अफगान सीमा पर सक्रिय हक्कानी नेटवर्क का सफाया करे। पाकिस्तान की अपनी मज़बूरियाँ हैं। शिकागो में हो रही नेटो की बैठक में यूरोप के ताजा समीकरणों का असर भी देखने को मिलेगा। फ्रांस के नए राष्ट्रपति की अफगानिस्तान को लेकर धारणा क्या है, यह अभी स्पष्ट नहीं है। नेटो सेना का खर्च ग्रीस भी देता है, जो खुद संकट में आ गया है। यूरोप आर्थिक संकट से घिरा है। अमेरिका खुद परेशानियों के सागर में डूब रहा है। कड़की के इस माहौल में अफगानिस्तान का क्या होगा? नेटो सम्मेलन के ठीक पहले कैम्प डेविड में डी-8 के सम्मेलन की थीम भी आर्थिक थी। शिकागो सम्मेलन में तमाम गैर-नेटो देश भी शामिल हैं। तकरीबन 60 देशों और संगठनों के प्रतिनिधि इस सम्मेलन में शिरकत कर रहे हैं। इनमें जापान भी है। सबकी दिलचस्पी अफगानिस्तान के पुनर्निर्माण में है। पर उससे पहले उसे कबायली अराजकता से निजात दिलानी होगी। पाकिस्तान की आंतरिक समस्याओं का हल भी इस बात में है कि अफगानिस्तान में अमन कायम हो। इसके अलावा पाकिस्तान को भारत के मुकाबले अफगानिस्तान में स्ट्रीटिजिक डैप्थ की तलाश बन्द कर देनी चाहिए। अमेरिका की दिलचस्पी केवल सप्लाई रूट खोलने भर में नहीं है, बल्कि इस इलाके में व्यवस्था कायम करने में है। यह दिलचस्पी भारत की भी है। भारत वहाँ सड़कें तैयार कर रहा है और आधार-ढाँचे से जुड़ी योजनाओं पर काम कर रहा है। चीन की दिलचस्पी भी इसी बात में होगी। अंततः यह इलाका पश्चिम एशिया, मध्य एशिया और यूरोप से चीन और दक्षिण एशिया का सप्लाई रूट साबित होगा। पर उसके पहले पाकिस्तान के वजीरिस्तान में व्यवस्था कायम करने की ज़रूरत है। हाल में वहाँ बन्नू की जेल तोड़कर तालिबानी अपने सैकड़ों कैदियों को छुड़ा ले गए। यह अच्छा संकेत नहीं।
सी एक्सप्रेस में प्रकाशित
पाकिस्तानी अखबार एक्सप्रेस ट्रिब्यून में ज़हूर का कार्टून |
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