Friday, May 25, 2012

आग सिर्फ पेट्रोल में नहीं लगी है

हिन्दू में सुरेन्द्र का कार्टून
भारत में पेट्रोल की कीमत राजनीति का विषय है। बड़ी से बड़ी राजनीतिक ताकत भी पेट्रोलियम के नाम से काँपती है। इस बार पेट्रोल की कीमतों में एक मुश्त सबसे भारी वृद्धि हुई है। इसके सारे राजनीतिक पहलू एक साथ आपके सामने हैं। सबसे बड़ी बात यह है कि कोई एक राजनीतिक पार्टी ऐसी नहीं है जिसने इस वृद्धि की तारीफ की हो। और जिस सरकार ने यह वृद्धि की है वह भी हाथ झाड़कर दूर खड़ी है कि यह तो कम्पनियों का मामला है। इसमें हमारा हाथ नहीं है। जून 2010 से पेट्रोल की कीमतें फिर से बाजार की कीमतॆं से जोड़ दी गई हैं। बाजार बढ़ेगा तो बढ़ेंगी और घटेगा तो घटेंगी। इतनी साफ बात होती तो आज जो पतेथर की तरह लग रही है वह वद्धि न होती, क्योंकि जून 2010 से अबतक छोटी-छोटी अनेक वृद्धियाँ कई बार हो जातीं और उपभोक्ता को नहीं लगता कि एक मुश्त इतना बड़ा इज़ाफा हुआ है।

पेट्रोल की कीमतों का फैसला पिछले साल मई के बाद नवम्बर में हुआ और फिर कमी भी हुई। पाँच राज्यों में विधानसभा चुनाव के कारण फिर दाम नहीं बढ़े। संसद के सत्र के पहले या उसके दौरान भी नहीं बढ़े। सत्र के आखिरी दिन की दोपहर इसकी घोषणा हुई। इसका मतलब क्या है? यही कि भले ही यह कम्पनियों का फैसला है, उन्हें इसकी अनुमति सरकार ही देती है। सरकार इन कम्पनियों को बीच-बीच में दाम बढ़ाने की अनुमति देती तो एक-एक दो-दो करके दाम बढ़ते रहते और एक मुश्त 7.54 रु की वृद्धि का फैसला नहीं करना पड़ता। भले ही डीज़ल, घरेलू गैस और मिट्टी तेल के दाम नहीं बढ़े हैं, पर अब वे बढ़ेंगे। इसका राजनीतिक लाभ मिला हो या न मिला हो नुकसान ज़रूर सरकार को उठाना होगा।

पेट्रोल की कीमतों का अर्थशास्त्र बड़ा जटिल है। अभी तक अंतरराष्ट्रीय बाजार में कीमतें बढ़ने का सर हमारे बाड़ार पर होता। इस बार ऐसा नहीं है। बल्कि इन दिनों कीमतें कम करने की कबायद चल रही है। इन दिनों हम डॉलर के मुकाबले रुपए की कीमत गिरने के कारण ऐसा देख रहे हैं। हमें डॉलर की ज़रूरत आमतौर पर तेल के लिए है, क्योंकि हमारे आयात का सबसे बड़ा हिस्सा पेट्रोलियम का है। चूंकि हमारी अर्थ-व्यवस्था निर्यातोन्मुखी नहीं है, इसलिए हमें इसका नुकसान है। हम निर्यातक होते तो हमें इसका फायदा मिलता। चीन अपने येन की कीमत नीची रखकर अपना माल सस्ता बेचता है। हमारे पास निर्यात के लिए सॉफ्टवेयर है। उसकी भी माँग उतनी तेज नहीं है, क्योंकि उसके ज्यादातर खरीदार मंदी के शिकार हैं। आलू, चीनी, चावल और कोयले वगैरह के निर्यात से कोई बड़ी भरपाई नहीं होती।

इन दिनों एक ओर डॉलर की कीमत बढ़ रही है, वहीं सेंसेक्स गिर रहा है। इसकी वजह यह है कि विदेशी संस्थागत निवेशक कमाई करके अपना पैसा ले जा रहे हैं। शेयर बाजार में विदेशी निवेश एक सीमा तक ही अच्छा है। यूरो ज़ोन और अमेरिका में आर्थिक संकट के कारण विदेशी निवेशक अपने डॉलर निकाल रहा है। साथ में अपने शेयर बेच रहा है। इससे शेयरों की कीमत गिर रही है। देशी निवेशक ने ज्यादा पैसा लगाकर शेयर खरीदे थे। उसका फायदा विदेशी निवेशक ले गया और हमें गरीब बना गया। हमें विदेशी मुद्रा चाहिए भी तो औद्योगिक निवेश के रूप में चाहिए शेयर बाजार में नहीं। भारत में विदेशी मुद्रा का काफी निवेश भारतीय पूँजीपतियों ने ही किया है, जो मॉरीशस वगैरह के रास्ते आते हैं। यह एक तरीके से धोखाधड़ी है।

पेट्रोल की कीमतों में वृद्धि हमारी अर्थव्यवस्था की कलई खोलती है। इसके पीछे फिलहाल सबसे बड़ा कारण डॉलर के बरक्स रुपए की कीमत है। तेल कम्पनियों को भुगतान डॉलर में करना होता है। वे बाजार से डॉलर खरीदती हैं, जिसके कारण डॉलर की माँग बढ़ती है। दूसरी ओर विदेशी संस्थागत निवेशक अपना डॉलर ले जा रहे हैं। अमेरिकी सरकार का दबाव है कि वे अमेरिका के सरकारी बॉण्ड्स में निवेश करें। यूरो के मुकाबले डॉलर की कीमत बढ़ने के कारण दुनियाभर के निवेशक डॉलर खरीद रहे हैं। इससे उसकी माँग और कीमत बढञी है। सोने के आयात का भुगतान हमें डॉलर में करना होता है। सरकार कोशिश कर रही है कि हम सोने का आयात कम करें, पर हम सांस्कृतिक रूप से सोने के दीवाने हैं और हमारी दीवानगी हमें महंगाई के रूप में घेर लेती है। हमारे पास निर्यात करके डॉलर कमाने का कोई रास्ता नहीं है।

विदेशी निवेश को बढ़ाने की सरकारी योजनाएं उल्टी पड़ रहीं हैं। दिसम्बर के महीने में खुदरा बाजार में विदेशी निवेश की कोशिशों को राजनीतिक रूप से जबर्दस्त प्रतिरोध का सामना करना पड़ा। अब लगता नहीं कि सरकार इसे आसानी से खोल पाएगी। वोडाफोन पर टैक्स लगाने की कोशिश सुप्रीम कोर्ट में विफल होने के बाद सरकार कानूनी बदलाव करने की कोशिश कर रही है। पर उसमें भी सफलता मिलने की सम्भावना नज़र नहीं आती। बैंकिंग और इंश्योरेंस में विदेशी निवेश बढ़ाने की कोशिशें नाकाम रही हैं। बजट में राजकोषीय घाटे का खतरा अलग खड़ा है। नरेगा और भोजन के अधिकार की लोकलुभावन योजनाओं के लिए सरकार के पास पैसा नहीं है। वह पेट्रोलियम की सब्सिडी कम करना चाहती है, पर डीजल, गैस और केरोसीन की कीमतों का नियंत्रण अब भी उसके अधीन है। यह सब्सिडी सरकार के गले की हड्डी है।

हालांकि संकट आर्थिक है, पर उसके पीछे सबसे बड़ी वजह राजनीतिक है। खुदरा बाजार खोलने का फैसला तृणमूल कांग्रेस के दबाव में वापस हुआ। यूपीए के दो घटक टीएमसी और डीएमके लगातार नाराज़ हैं। कांग्रेस अब समाजवादी पार्टी को करीब लाना चाहती है। आंध्र प्रदेश में पार्टी संकट में है। अगले साल कुछ महत्वपूर्ण राज्यों के चुनाव हो रहे हैं, जिनमें गुजरात, राजस्थान, मध्य प्रदेश, कर्नाटक, हिमाचल और दिल्ली शामिल हैं। 2014 के लोक सभा चुनाव के पहले यह सबसे खतरनाक लड़ाई है। उसके पहले राष्ट्रपति चुनाव में कांग्रेस के अंतर्विरोध बुरी तरह खुल रहे हैं। ऐसे में पेट्रोल की कीमतों का बढ़ना पार्टी के लिए अशुभ संकेत है। दिक्कत यह है कि इससे बचा भी नहीं जा सकता।

पिछले साल अन्ना-आंदोलन को ठीक से टैकल न कर पाने की गलती इस साल सरकार के लिए भारी पड़ रही है। जनता बुरी तरह नाराज़ है। कांग्रेस के लिए संतोष की बात सिर्फ इतनी है कि उसकी प्रतिस्पर्धी भाजपा के अस्तबल में जबर्दस्त लतिहाव चल रहा है। मुम्बई में चल रही कार्यकारिणी की बैठक में नीति के स्तर पर कोई बड़ा फैसला होने की आशा नहीं है। बीजेपी के पास भी अगले विधान सभा चुनावों की योजना नहीं है। कर्नाटक में पिछली बार येदुरप्पा विजय का कारण बने थे। सम्भव है इस बार वे पराजय का कारण बनें। पर क्या इसका फायदा कांग्रेस को मिलेगा? या देवेगौड़ा की पार्टी को? नरेन्द्र मोदी अब दिल्ली की ओर कूच करना चाहते हैं। उन्हें रोकने की इच्छा जितनी कांग्रेस को है उतनी ही भाजपा के शिखर नेतृत्व को भी है।

सन 2009 के चुनाव के बाद लगता था कि भारत अब आर्थिक सुधार के रास्ते पर चलेगा। 2008 की आर्थिक मंदी का हमने सामना कर लिया था। 8000 पर जा पहुँचा सेंसेक्स फिर से 19000 के आसपास पहुँचने लगा था। लगता था कि कॉमनवैल्थ गेम्स के सहारे हम नई अर्थव्यवस्था और नए देश को दुनिया के सामने शोकेस करेंगे। पर हुआ इसके उलट। अचानक घोटालों की आँधी चलने लगी। जिनपर भरोसा था वे दगाबाज़ साबित हुए। अमेरिका से शुरू हुई आर्थिक मंदी यूरोप जा पहुँची। यूरो और डॉलर का संग्राम शुरू हो गया। और फिलहाल यह खत्म होता नज़र नहीं आता। हालांकि भारतीय अर्थव्यवस्था विकास कर रही है, पर राजनीतिक संशयों के मेघ घबराहट पैदा कर रहे हैं। देश को इन्फ्रास्ट्रक्चर और निर्माण के क्षेत्र में विस्तार और निवेश की ज़रूरत है। विदेशी निवेशकों के मन में भरोसा पैदा करने के लिए राजनीतिक दृढ़ता चाहिए। हाल में अंतरराष्ट्रीय रेटिंग कम्पनियों ने हमारी वित्तीय संस्थाओं की रेटिंग कम की है। यह परेशानी का कारण है। आने वाला वक्त जोखिम भरा है जिसमें हमारी असल परीक्षा होगी।
जनवाणी में प्रकाशित

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