रांची के दैनिक प्रभात खबर की
स्थापना करने वाले पत्रकारों के मन में जोशो-खरोश कितना था, इसका आज अनुमान भर
लगाया जा सकता है। कारोबारी चुनौतियाँ इस अखबार को खत्म कर देतीं, क्योंकि सिर्फ
जोशो-खरोश किसी कारोबार को बनाकर नहीं रखता। अखबार को पूँजी चाहिए। बहरहाल प्रभात
खबर का भाग्य अच्छा था और उसे चलाने वाले कृत-संकल्प संचालक और काबिल सम्पादक मिले। मेरे
विचार से हरिवंश उस परम्परा के आखिरी बचे चिरागों में से एक हैं, जिनके सहारे
हिन्दी पत्रकारिता की राह रोशन हो रही है। वे एक अंतर्विरोध को सुलझाने की कोशिश
कर रहे हैं। क्या है वह अंतर्विरोध?
हरिवंश ने इस अंतर्विरोध का जिक्र
14 अगस्त के अपने आलेख में किया है, जिसकी इन पंक्तियों पर गौर किया जाना चाहिएः- ‘एक 20 पेज के सभी रंगीन पेजों के अखबार की लागत कीमत 15 रुपए है.
हॉकरों-एजेंटों का कमीशन अलग। पाठकों को ऊपर से पुरस्कार चाहिए। कहा भी जा रहा है
कि अखबार उद्योग पाठकों को पढ़ने का पैसा दे रहे हैं। इस पर समाज की मांग कि
सात्विक अखबार निकले,
पवित्र पत्रकारिता हो।
अखबार उपभोक्तावादी समाज,
गिफ्ट के लोभी और मुफ्त
अखबार चाहनेवाले पाठकों के लिए लड़े? अखबारों की इकोनॉमी, विज्ञापनदाताओं के कब्जे में रहे, पर अखबार समाज के लिए लड़े, यह कामना? क्या इन अंतरविरोधी चीजों पर चर्चा
नहीं होनी चाहिए। पाठकों और समाज को इस दोहरे चिंतन पर नहीं सोचना चाहिए। साधन
यानी पूंजी पवित्रता से आएगी, बिना दबाव बनाए या बड़े सूद या बड़ा रिटर्न (सूद) की
अपेक्षा के, तब शायद साधन यानी
पत्रकारिता भी पवित्र होगी। साधन और साध्य के सवाल को अनदेखा कर सही पत्रकारिता
संभव है?’
वास्तव में सम्भव नहीं है, पर जब तक वैश्विक पूँजी की व्यवस्था है और पत्रकारिता का निर्वहन इन्हीं सांसारिक नियमों के अंतर्गत होना है तब तक हमें इसी सीमा रेखा के भीतर सोचना होगा। यदि कोई संसार को बदल सकता है तो बदलने की कोशिश करे, पर मैं वस्तुगत संसार के भीतर रह कर पत्रकारिता को उसकी धुरी से जोड़े रखने का सुझाव दूँगा। वास्तव में गुणात्मक रूप से आला दर्जे की पत्रकारिता का न तो पूँजीवादी व्यवस्था से टकराव है और न मार्केट से कोई रंजिश है। हम सीधे-सीधे अपने पाठक से जुड़े हैं। जब तक हमें उसपर भरोसा है और हम उससे संवाद की स्थिति में हैं, घबराने की ज़रूरत नहीं है। मेरी परेशानी यह है कि हम पाठक का साथ छोड़कर प्रचारकों के साथ जा रहे हैं। ये प्रचारक राजनैतिक हैं और बाजारू भी। जिन रेफ्रीजरेटरों, टेलीविजनों, मोबाइल फोनों वगैरह की गुणवत्ता पर, उनकी सर्विसिंग आदि पर हमें सवाल खड़े करने चाहिए, वे भी हमें एडवर्टोरियल लिखने को मजबूर कर रहे हैं। इसका मतलब है कि यह बाजार की व्यवस्था नहीं है। पेड न्यूज़ दूसरे किस्म का एडवर्टोरियल है। हमारा काम था इनके झूठ का पर्दाफाश करना। पर हम तो झूठ को चॉकलेट टॉपिंग्स के साथ परस रहे हैं।
यह पत्रकारिता बिजनेस के लिहाज से भी गलत है और अंततः अपराध है। जैसाकि ब्रिटिश समाज आज न्यूज़ ऑफ द वर्ल्ड के दफ्तर को अपराध स्थल कहता है। सच यह है कि हमारा पाठक अभी उतना जागरूक नहीं है। उसे जागरूक बनाने की ज़रूरत है। बाजार की व्यवस्था है अण्णा का आंदोलन जिसे कवर करने को समूचा मीडिया टूट पड़ा है। हो सकता है आंदोलन गलत हो, पर मीडिया को वहाँ जनता नज़र आती है। कुछ लोगों को लगता है कि अण्णा के आंदोलन को मीडिया ने खड़ा किया। ऐसा नहीं है, मीडिया ने वहाँ अपॉरच्युनिटी देखी है। यही अपॉरच्युनिटी जनता की तमाम खबरों में है। आप उन्हें सामने तो लाइए। इसमें थोड़ा श्रम लगता है और कौशल की ज़रूरत है। पर यह शुरुआत है।
प्रभात खबर ने 14 अगस्त 2011 को अपना अट्ठाइसवाँ स्थापना दिवस मनाया। इस मौके पर एक गोष्ठी की गई, जिसका विषय था, ‘क्षेत्रीय पत्रकारिताः आविष्कारों की ज़रूरत।’ इस गोष्ठी में हिन्दी, बांग्ला, मराठी, उर्दू और अंग्रेजी से जुड़े पत्रकार थे। गोष्ठी इस अर्थ में सफल थी कि उसमें पत्रकारिता में क्रमशः आती गिरावट, कारोबार के बढ़ते दबाव और दूसरी तरह की चुनौतियों की चर्चा हुई, पर उन दो प्रमुख बातों पर चर्चा नहीं हो पाई, जो प्रभात खबर ने उठाई हैं। पहली पूँजी और पत्रकारिता का रिश्ता क्या हो? और दूसरी यह कि किन अभिनव आविष्कारों की ज़रूरत है? मेरे विचार से दोनों बातें काफी हद तक जुड़ी हैं।
अभिनव आविष्कार का एक छोटा सा कोना साधन-बगैर हासिल करना सम्भव है। वह है पत्रकार की मूल्यबद्धता। व्यक्तिगत ईमानदारी के लिए नैतिक पूँजी चाहिए। वह हिन्दी पत्रकार के पास है। पर नैतिक रूप से धनी होने के लिए व्यक्ति को आर्थिक रूप से एक हद तक तो स्वतंत्र होना चाहिए। इसकी कमी है तो उसका दोष पत्रकार को नहीं देना चाहिए, क्योंकि अखबार के कारोबार को मुनाफे में तब्दील करने वालों के लिए यह कोई सवाल नहीं है। अभिनव आविष्कार के लिए भी साधन चाहिए। हिन्दी बिजनेस ने अभी इस बारे में नहीं सोचा। क्रेडिबल होने के लिए भी पूँजी चाहिए। इसके बारे में भी नहीं सोचा। हिन्दी के पत्रकार को अपने लिए मार्केट से पूँजी एकत्र करने की खुली व्यवस्था नहीं होनी चाहिए। उसके आर्थिक हितों को देखने का काम उस पूँजी का है, जो इस कारोबार में मुनाफा देख रही है। इस अर्थ में हिन्दी मीडिया के पास क्वालिटी कैपिटल नहीं है। कैपिटल में भी फर्क होता है। इंग्लैंड में ‘न्यूज़ ऑफ द वर्ल्ड’ के बन्द होने के बाद अखबारों के कारोबारी पहलू पर और बारीकी से बात होने लगी है।
वास्तव में सम्भव नहीं है, पर जब तक वैश्विक पूँजी की व्यवस्था है और पत्रकारिता का निर्वहन इन्हीं सांसारिक नियमों के अंतर्गत होना है तब तक हमें इसी सीमा रेखा के भीतर सोचना होगा। यदि कोई संसार को बदल सकता है तो बदलने की कोशिश करे, पर मैं वस्तुगत संसार के भीतर रह कर पत्रकारिता को उसकी धुरी से जोड़े रखने का सुझाव दूँगा। वास्तव में गुणात्मक रूप से आला दर्जे की पत्रकारिता का न तो पूँजीवादी व्यवस्था से टकराव है और न मार्केट से कोई रंजिश है। हम सीधे-सीधे अपने पाठक से जुड़े हैं। जब तक हमें उसपर भरोसा है और हम उससे संवाद की स्थिति में हैं, घबराने की ज़रूरत नहीं है। मेरी परेशानी यह है कि हम पाठक का साथ छोड़कर प्रचारकों के साथ जा रहे हैं। ये प्रचारक राजनैतिक हैं और बाजारू भी। जिन रेफ्रीजरेटरों, टेलीविजनों, मोबाइल फोनों वगैरह की गुणवत्ता पर, उनकी सर्विसिंग आदि पर हमें सवाल खड़े करने चाहिए, वे भी हमें एडवर्टोरियल लिखने को मजबूर कर रहे हैं। इसका मतलब है कि यह बाजार की व्यवस्था नहीं है। पेड न्यूज़ दूसरे किस्म का एडवर्टोरियल है। हमारा काम था इनके झूठ का पर्दाफाश करना। पर हम तो झूठ को चॉकलेट टॉपिंग्स के साथ परस रहे हैं।
यह पत्रकारिता बिजनेस के लिहाज से भी गलत है और अंततः अपराध है। जैसाकि ब्रिटिश समाज आज न्यूज़ ऑफ द वर्ल्ड के दफ्तर को अपराध स्थल कहता है। सच यह है कि हमारा पाठक अभी उतना जागरूक नहीं है। उसे जागरूक बनाने की ज़रूरत है। बाजार की व्यवस्था है अण्णा का आंदोलन जिसे कवर करने को समूचा मीडिया टूट पड़ा है। हो सकता है आंदोलन गलत हो, पर मीडिया को वहाँ जनता नज़र आती है। कुछ लोगों को लगता है कि अण्णा के आंदोलन को मीडिया ने खड़ा किया। ऐसा नहीं है, मीडिया ने वहाँ अपॉरच्युनिटी देखी है। यही अपॉरच्युनिटी जनता की तमाम खबरों में है। आप उन्हें सामने तो लाइए। इसमें थोड़ा श्रम लगता है और कौशल की ज़रूरत है। पर यह शुरुआत है।
प्रभात खबर ने 14 अगस्त 2011 को अपना अट्ठाइसवाँ स्थापना दिवस मनाया। इस मौके पर एक गोष्ठी की गई, जिसका विषय था, ‘क्षेत्रीय पत्रकारिताः आविष्कारों की ज़रूरत।’ इस गोष्ठी में हिन्दी, बांग्ला, मराठी, उर्दू और अंग्रेजी से जुड़े पत्रकार थे। गोष्ठी इस अर्थ में सफल थी कि उसमें पत्रकारिता में क्रमशः आती गिरावट, कारोबार के बढ़ते दबाव और दूसरी तरह की चुनौतियों की चर्चा हुई, पर उन दो प्रमुख बातों पर चर्चा नहीं हो पाई, जो प्रभात खबर ने उठाई हैं। पहली पूँजी और पत्रकारिता का रिश्ता क्या हो? और दूसरी यह कि किन अभिनव आविष्कारों की ज़रूरत है? मेरे विचार से दोनों बातें काफी हद तक जुड़ी हैं।
अभिनव आविष्कार का एक छोटा सा कोना साधन-बगैर हासिल करना सम्भव है। वह है पत्रकार की मूल्यबद्धता। व्यक्तिगत ईमानदारी के लिए नैतिक पूँजी चाहिए। वह हिन्दी पत्रकार के पास है। पर नैतिक रूप से धनी होने के लिए व्यक्ति को आर्थिक रूप से एक हद तक तो स्वतंत्र होना चाहिए। इसकी कमी है तो उसका दोष पत्रकार को नहीं देना चाहिए, क्योंकि अखबार के कारोबार को मुनाफे में तब्दील करने वालों के लिए यह कोई सवाल नहीं है। अभिनव आविष्कार के लिए भी साधन चाहिए। हिन्दी बिजनेस ने अभी इस बारे में नहीं सोचा। क्रेडिबल होने के लिए भी पूँजी चाहिए। इसके बारे में भी नहीं सोचा। हिन्दी के पत्रकार को अपने लिए मार्केट से पूँजी एकत्र करने की खुली व्यवस्था नहीं होनी चाहिए। उसके आर्थिक हितों को देखने का काम उस पूँजी का है, जो इस कारोबार में मुनाफा देख रही है। इस अर्थ में हिन्दी मीडिया के पास क्वालिटी कैपिटल नहीं है। कैपिटल में भी फर्क होता है। इंग्लैंड में ‘न्यूज़ ऑफ द वर्ल्ड’ के बन्द होने के बाद अखबारों के कारोबारी पहलू पर और बारीकी से बात होने लगी है।
मेरा सुझाव है कि पत्रकारों को बिजनेस की शिक्षा दी जानी
चाहिए। उन्हें बैलेंस-शीट पढ़ना आना चाहिए। उन्हें इक्विटी और एफडीआई की बारीकियों
को समझना चाहिए। इसमें एक सुझाव यह भी है कि मैनेजरों को क्रेडिबिलिटी और
पत्रकारिता की नैतिक मर्यादाओं की जानकारी भी दी जानी चाहिए। यह क्रेडिबिलिटी
विज्ञापन विभाग को स्पेस सेलिंग में मदद कर सकती है। बिजनेस का उद्देश्य
डिसक्रेडिटेड सामग्री परोसना नहीं है। पूँजी, राजव्यवस्था और नियामक व्यवस्थाओं की
कमी दोष पैदा करती है। आर्थिक प्रश्नों की उपेक्षा करके और घाटा सहते हुए
प्रभावशाली पत्रकारिता तभी सम्भव है, जब कहीं से पूँजी की अजस्र धारा बहती हो। ऐसी
धारा तभी बहती है, जब कोई किसी उद्देश्य के लिए अखबार निकालता हो। व्यापार के लिए
नहीं। पर यह उद्देश्य क्या जनसेवा है? एक अरसे तक कुछ बड़े
हाउस थोड़ा घाटा सह कर अखबार निकालते रहते थे, क्योंकि वह उनकी सामाजिक हैसियत
बनाए रखने में मददगार होता था। यह परोक्ष मुनाफा था। इसमें सरकारों की भी भूमिका
थी। पर सरकारी विज्ञापन का अपना हिडन एजेंडा है। यह बात सरकार के प्रति अखबार के
दृष्टिकोण के अलावा विज्ञापन जारी करने वाले अफसर के साथ रिश्तों पर भी निर्भर
करती है। सरकार बड़ी विज्ञापनदाता है। बड़ी संख्या में मुख्यमंत्री मीडिया-कांशस
है।
नेशनल, रिटेल और क्लैसिफाइड विज्ञापनों के अपने-अपने नियम
हैं। विज्ञापन टीम की रचना, उसके आकार और अखबार के पर्सेप्शन पर भी काफी कुछ
निर्भर करता है। मुझे कतई संदेह नहीं कि नवभारत टाइम्स की भाषा नीति का उसके रिटेल
विज्ञापन से रिश्ता है। विज्ञापनदाता का पर्सेप्शन मार्केटिंग टीमों पर हावी रहता
है। रीडरशिप रिसर्च उसी के हिसाब से बदली जाती है। जैसे हमारे सेफोलॉजिस्ट चुनाव
के वक्त एक्ज़िट पोल रिज़ल्ट बदलते हैं।
हमारी पत्रकारिता का विकास पूँजीवाद के विकास के समानांतर
नहीं हुआ, जैसा पश्चिमी समाज में हुआ। पश्चिमी पत्रकारिता के वे द्वंद सौ साल पहले
निपट गए। जोज़फ पुलिट्ज़र अपने अखबार के मालिक भी थे और पत्रकारिता विभाग के
प्रमुख भी थे। ऐसा व्यक्ति ही प्रभावशाली फैसला कर सकता है। जिस व्यवस्था में
बिजनेस हैड और सम्पादकीय हैड नाम से तो प्रफेशनल हों, पर वे अपने मन की बात
एक-दूसरे से न कर पाते हों, वहाँ फैसले भ्रामक होते हैं। हमारा बिजनेस अभी उस हद
तक पारदर्शी नहीं है, जितना होना चाहिए।
समाज की माँग है कि अखबार सात्विक निकले। उसे निकालने के
लिए कीमत समाज को देनी चाहिए। मसलन बिना विज्ञापन का 16 पेज का अखबार 16 रुपए में।
हो सकता है उसमें कैटरीना कैफ की उतनी शानदार तस्वीर न हो जितनी शानदार तस्वीर
विज्ञापन के सहारे दो रुपए में निकलने वाले अखबार में हो। सम्पादकीय नीति हो कि
चने खाकर हम जनता के हक में लड़ेंगे। इन आदर्शों पर जीने वालों को हम खोज भी लाएं, पर वस्गतुत परिस्थितियों को हम नहीं बदल सकते। आज की सरकारें अंग्रेजों की तरह उदार
नहीं हैं। उनसे निपटना सरल नहीं है। आज के माफिया, सीधे गोली मारते हैं।
कॉरपोरेट पत्रकारिता का फॉर्मूला एक समझदार सम्पादक के नेतृत्व में बने तो अपेक्षाकृत संतुलित होगा। इससे साख भी बनी रहती है। पर मीडिया हाउसों को तिकड़मी लोगों की तलाश है। ऐसे लोग जो रेलवे रिजर्वेशन से लेकर बेटे के एडमीशन, पासपोर्ट, पैन कार्ड, सेल्स टैक्स एक्साइज़ ड्यूटी, रामलीला के पंडाल में बेहतर सीट, क्रिकेट मैच के पास आदि-आदि सम्पूर्ण प्रकार की सेवाएं ऑफर करते हों। उसके लेखन, विचार, विज़न, साख वगैरह से मीडिया हाउस का कोई वास्ता नहीं। अखबार का पर्सेप्शन रीडरशिप सर्वे से बनता है तो उसमें भी मैनीपुलेशन सम्भव है। पर महत्वपूर्ण है विज्ञापन का टार्गेट। यहाँ से कारोबार के बुनियादी सवाल खड़े होने शुरू होते हैं। कारोबार के लिहाज से क्या ज़रूरी है, साख या बिजनेस?वास्तव में यह आधुनिक प्रफेशनलिज्म नहीं है, पर तमाम मध्ययुगीन प्रवृत्तियाँ आधुनिक जीवन के साथ जुड़ी हैं।
कॉरपोरेट पत्रकारिता का फॉर्मूला एक समझदार सम्पादक के नेतृत्व में बने तो अपेक्षाकृत संतुलित होगा। इससे साख भी बनी रहती है। पर मीडिया हाउसों को तिकड़मी लोगों की तलाश है। ऐसे लोग जो रेलवे रिजर्वेशन से लेकर बेटे के एडमीशन, पासपोर्ट, पैन कार्ड, सेल्स टैक्स एक्साइज़ ड्यूटी, रामलीला के पंडाल में बेहतर सीट, क्रिकेट मैच के पास आदि-आदि सम्पूर्ण प्रकार की सेवाएं ऑफर करते हों। उसके लेखन, विचार, विज़न, साख वगैरह से मीडिया हाउस का कोई वास्ता नहीं। अखबार का पर्सेप्शन रीडरशिप सर्वे से बनता है तो उसमें भी मैनीपुलेशन सम्भव है। पर महत्वपूर्ण है विज्ञापन का टार्गेट। यहाँ से कारोबार के बुनियादी सवाल खड़े होने शुरू होते हैं। कारोबार के लिहाज से क्या ज़रूरी है, साख या बिजनेस?वास्तव में यह आधुनिक प्रफेशनलिज्म नहीं है, पर तमाम मध्ययुगीन प्रवृत्तियाँ आधुनिक जीवन के साथ जुड़ी हैं।
साख दीर्घकालीन पूँजी है और बिजनेस तात्कालिक। इसे टैक्टिकल
और स्ट्रेटेजिक कह सकते हैं। इसे देखने के लिए गुणी बिजनेस मैनेजर की ज़रूरत होगी।
यह साख कोक या पेप्सी के उस गोपनीय फॉर्मूले पर निर्भर नहीं है, जिसका पता सिर्फ
एक या दो लोगों को है। अखबार की साख हर रोज सैकड़ों लोगों की टीम को बनानी होती है। उन्हें मोटीवेट करने के साथ-साथ लगातार अपने
लक्ष्यों से जोड़े रखने का काम ही असली हुनर है। इसे ठीक से कर सकें तो पत्रकारिता
के तमाम नैतिक मूल्यों की रक्षा सम्भव है। नई पत्रकारिता सामाजिक प्रश्नों को भी उठा सकती है
और एक सीमा तक राज-व्यवस्था से दूरी बनाते हुए काम कर सकती है। राज-व्यवस्था को भी अपनी साख चाहिए। उसे खतरा अपने राजनैतिक दुश्मनों
से होता है। हम उनके संग्राम में शामिल होकर दोस्त या दुश्मन क्यों बनें?
पर पत्रकारिता में शॉर्ट कट भी हैं। पूरी नेटवर्किंग के साथ
काम करने वाले सम्पादक हैं। उनका हर जगह जन सम्पर्क है। इस प्रजाति के सम्पादक के
पास सुबह से शाम तक खबर, विचार, विश्लेषण वगैरह के लिए वक्त नहीं है। मौका लगने पर
वह कश्मीर से कन्याकुमारी तक के किसी भी सवाल पर ठोस राय व्यक्त कर सकता है।
दो-चार ऐसे लेखकों के नाम ड्रॉप कर सकता है, जो कभी पैदा ही नहीं हुए। अपने पांडित्य को
प्रकट करने के लिए टीवी पर दिखाई पड़ता है। बदले में चैनल प्रमुख का कॉलम अखबार
में छापता है। सासंदों के इंटरव्यू छापता है, बदले में सरकारी पारितोषिक पाता है।
ऑफिस में काम करने वाले काम करते हैं, सम्पादक पावरहाउसों पर नज़र रखता है। वह
सरकारी सरकारी संतरी से मंत्री तक सम्पर्क कराने का पैकेज लेकर प्रबंधन के पास
जाता है तो उसे क्यों नहीं कोई गले से लगा लेगा। यह एक व्यावसायिक कौशल है। इस कौशल से जन्म लेने
वाली पत्रकारिता कितनी साखदार होगी, इसके बैरोमीटर ईज़ाद करने की ज़रूरत है। जन
सम्पर्क के लिए व्यावसायिक एजेंसियाँ उपलब्ध हैं, जिनकी फीस देकर काम कराए जा सकते
हैं। पर लॉबीइंग की नीरा राडिया शैली के मार्फत जो थोड़ी बातें सामने आ पाईं, उनसे
अनुमान लगाया जा सकता है कि इतने पत्रकार इन नेटवर्क्स में क्यों हैं। और वे गहरी
और संजीदा बातें करने के बजाय ऐसी छिछली बातें क्यों करते हैं।
सच यह है कि साख पहला बिजनेस गोल है। पर हू केयर्स। मीडिया-ओनरशिप के बारे में भारत के पहले प्रेस कमीशन ने
ध्यान खींचा था। मीडिया ‘सूचना’ का कारोबार
करता है। लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं का कच्चा माल है, सूचना। यह हवा की खुली तरंगों
की तरह विचरण करती है। उसे अपने-अपने ढंग से रंग-रोगन कर हम बेचते हैं। पर पाठक
उसके अंदरूनी पेच नहीं जानता। और जब उसे पता लगता है तो उसका मोहभंग होता है। इसे
क्रेडिबिलिटी लॉस कहते हैं। इसकी शिक्षा बिजनेस स्कूलों में नहीं दी जाती।
पत्रकारीय मर्यादाओं की शिक्षा अखबार से जुड़े मैनेजरों को भी दी जानी चाहिए।
उन्हें पता होना चाहिए कि क्यों यह कारोबार कुछ फर्क है, और क्यों इस कारोबार की
अंतर्धारा कुछ नैतिक बातों की माँग करती है। यह छपा हुआ कागज बेचने का व्यवसाय नहीं है। यह भरोसा बेचने का कारोबार है। उसे पूरा करना व्यावसायिक रूप से
ज़रूरी है। यह शिक्षा अब दोतरफा हो गई। पत्रकारों को बिजनेस के लक्ष्यों से नहीं
भागना चाहिए और बिजनेस को इस कर्म के मूल्यों को समझना चाहिए।
पर असली शिक्षा पत्रकारों की है। हमने जल्दबाज़ी में
पत्रकारों को भर्ती कर लिया, पर उन्हें लिखने, पेश करने और मर्म समझने के सूत्र
समझाए ही नहीं। केवल पत्रकारीय महाविद्यालयों का प्रशिक्षण काफी नहीं। असली
प्रशिक्षण तो इन-हाउस होता है। यह ट्रेनिंग अखबार की गुणवत्ता को निर्धारित करती
है। तथ्यों, सूचनाओं और जानकारियों की त्रुटियां, दोहर या तोड़-मरोड़ अखबार का
जितना अहित करती है, उतना अहित कोई नहीं कर सकता। इस मामले में चेन्नई के दैनिक
हिन्दू का उदाहरण देना बेहतर होगा, जिसके पास एक रीडर्से एडीटर है, जो खुद अपनी
गलतियाँ पहले बताता है। यह बात साख बढ़ाने का काम करती है। और इसका असर दो दिन में
पता नहीं लगता। अलबत्ता हिन्दू की साख के बारे में दो राय नहीं।
पिछले दसेक साल में हिन्दी अखबारों
ने कवरेज को रोचक बनाया है। उनके पन्ने रंगीन हो गए हैं, डिजाइनर बढ़े हैं,
इंफोग्राफ्स का इस्तेमाल बढ़ा है, फोटोग्राफ्स की संख्या बढ़ी है। टेक्स्ट कम हुआ
है। इसका फायदा भी मिला है और नुकसान भी हुआ है। फायदा देखने का है। डिज़ाइन का
मूल उद्देश्य विज़ुअल्स को आकर्षक बनाने से ज्यादा विषय को समझ में आने लायक बनाना
था। किसी बात को टेक्स्ट में लिखने के बजाय इंफोग्राफ के रूप में पेश करने से उसे
समझना भी आसान हो जाता है और भाषा के भारी बोझिल नैरेशन से बचा भी जा सकता है। ऐसा
हुआ या नहीं इसे देखे बगैर उत्साह में हमने नेट से उठाकर निरर्थक विजुअल्स को
लगाना शुरू कर दिया। खबर का एलीमेंट घटता गया। अक्सर वैल्यू एडीशन ने मुख्य खबर की
जगह ले ली। यह अव्यावसायिकता, अधकचरी ट्रेनिंग और दृष्टिहीन पत्रकारिता है।
दरअसल पत्रकारिता में इनोवेशन और
आविष्कार इस मामले में करने की ज़रूरत है। सामाजिक सरोकारों को ठीक
तरीके से रिसर्च करके और अच्छे ढंग से इलस्ट्रेशंस के साथ पेश किया जाए तो वे
प्रासंगिक हैं। जिन वैश्विक संदर्भों और विषयों की हमें ज़रूरत है उन्हें लाना ही
चाहिए। मेरे विचार से अंतरराष्ट्रीय राजनीति को पूरे विस्तार के साथ हमें कवर करना
चाहिए, क्योंकि हमारा देश वैश्विक धाराओं के साथ तेजी से जुड़ रहा है। पर इस मामले
में भी हिन्दी के अखबार फैशन शो, रैम्प में चलती लड़कियां और किसी दूसरे तरीके के
ग्लैमरस चित्रों को छापना पसंद करते हैं।
समूचे हिन्दी क्षेत्र में
सांस्कृतिक विविधताएं हैं। इनका परिचय देने के लिए सीरीज़ बनाई जा सकती हैं। इन
इलाकों में तमाम नौजवान कुछ ऐसे काम कर रहे हैं, जो दूसरों के लिए मिसाल बन सकें,
उन्हें ठीक से प्लेस किया जाय तो बेहतरीन रिपोर्ट बनें। हिम्मत कर सकें तो सरकारी
अकुशलता और भ्रष्टाचार पर पड़ताल करके लम्बी रिपोर्ट छापी जा सकतीं हैं, जिनका चलन
अब खत्म हो गया है। हर दफ्तर में इनोवेशन केन्द्रित बैठकें होनी चाहिए, जिनमें
दूसरे अखबारों में हो रहे इनोवेशन पर चर्चा हो। अखबार एक संस्था है, उसकी
परम्पराएं समय के साथ स्थापित होतीं है। सालाना कार्य-समीक्षा से लेकर प्रमोशन की
पद्धति को विकसित करना भी इसका एक हिस्सा है। भाषा से लेकर संवाद संकलन तक की
स्टाइल बुक्स का विकास और उन्हें अद्यतन करना रचनात्मक काम है। युवा पत्रकारों को
अपनी प्रतिभा पहचानने और उसका इस्तेमाल करने का मौका दिया जाए तो चमत्कार कर सकते
हैं। और व्यवसाय इसमें कहीं आड़े नहीं आता। अच्छी पत्रकारिता और अच्छे कारोबार में दुश्मनी नहीं है।
प्रभात खबर को श्रेय जाता है कि
उसने सीमित साधनों के बावजूद बड़े प्रतिद्वंदियों से न सिर्फ मोर्चा लिया, बल्कि
उन्हें पीछे छोड़ दिया। यह सब उसकी आंतरिक शक्ति के कारण सम्भव हुआ। इस अखबार ने
क्षेत्रीय पत्रकारिता के नवोन्मेष पर नज़र डाली है तो यह भी एक बड़ा कदम है। उसने
बांग्ला, उर्दू, अंग्रेजी और मराठी के पत्रकारों से मशवरा किया है तो यह भी
महत्वपूर्ण है। जीवंत संस्थाएं इसी तरह बढ़ती हैं और उनके कदमों के निशान दूर तक दिखाई पड़ते हैं।
दूसरे भाग में पढ़ें गोष्ठी में आए पत्रकारों की राय का विवरण ।
अखबारों के पत्रकारों तथा पत्रकारिता पर आप का विषलेशण बहुत गहरा है और विभिन्न पहलुओं को छूता है. धन्यवाद.
ReplyDeleteइंटरनेट पर क्मप्यूटर की स्क्रीन पर पढ़ने के लिए कुछ अधिक लम्बा है, अगर इसे दो तीन टुकड़ों में बाँट कर प्रस्तुत किया जाये तो शायद अधिक लोग समझ पायेंगे. :)
patrkaaro par bahut hi achcha vishleshan....aur achchi jaankari bhi....
ReplyDeleteविस्तृत जानकारी देकर आपने बेहद नेक काम किया है। 'प्रभात खबर'की सफलता के लिए उन्हें तथा आपको भी उनकी बात उठाने के लिए मुबारकवाद।
ReplyDeleteबहुत दिनों बाद एक गिरेबाँ में झांकने वाला लेख पढ़ा। पर पढ़ कर तो यही लगता है। बोलना है आसान करना है मुश्किल। अखबारों में खासकर हिन्दी अखबारों से ज्यादा घातक पूंजीवादी चरित्र कहाँ दिखता है। मालिक मुनाफा पीट रहा है। जनता के लिए शो-केसिंग भी अच्छी कर दी गई है। वह भी थोड़ा हरा-हरा देखकर बहुत-बहुत प्रफुल्लित है। बचता है श्रमिक माफ कीजिएगा श्रमजीवी पत्रकार कीमत उसको चुकानी पड़ती है।
ReplyDeleteऐसा लगता है कि मूल्य, नैतिकता, ईमानदारी outdated हो गए हैं. पत्रकारिता के अंतर्निहित दवंधों का इतना सटीक चित्रण करने के लिए बहुत बहुत बधाई.
ReplyDeleteपूंजाबी कवि सुरजीत पात्र के शेर का हिंदी अनुवाद करना चाहूंगा
लगी जो तेरे सीने में अब तक छुरी नहीं
ये मत समझ की शहर की हालत बुरी नहीं
पर लोग समझते हैं सिर्फ इतना सा ही राग,
कि सोने की है गर बांसुरी तो बेसुरी नहीं
@Dr Ravinder S Mann रविन्दर जी आपने सुरजीत पात्र की बहुत सुन्दर कविता लिखी है। हो सके तो मूल पंजाबी में इन पंक्तियों को भेज दें।
ReplyDeleteबहुत अच्छा लिखा है आपने प्रमोद जी!
ReplyDeleteएक समय था जब रांची में दो बड़े अख़बार थे - मारू परिवार का "रांची एक्सप्रेस" और नया नवेला "प्रभात खबर". बहुत सारे परिवारों की तरह हमारे घर में भी रांची एक्सप्रेस आया करता था. एक दिन मैने मुख्य पृष्ट पर मारू परिवार के किसी को किसी साईकिल की दुकान का फीता काटते देखा. तस्वीर चौथे पन्ने पर नहीं थी, मुख्य पृष्ट पर थी!
उसके बाद, मैंने अख़बार वाले से कहा कि अगर फर्श पोंछने वाला अख़बार है, तो वो भी चलेगा, लेकिन रांची एक्सप्रेस नहीं पढूंगा.
दूसरे दिन वह प्रभात खबर नाम का एक अख़बार लेकर चला आया. मुझे याद हैं, झारखण्ड में ऐसी उम्दा पत्रकारिता मैने पहले नहीं देखी थी.
आज, आपका लेख पढ़कर फिर से वोह यादें ताज़ा हो गयीं. बहुत धन्यवाद!