इस आंदोलन में दस हजार लोग शामिल हैं या बीस हजार. यह आंदोलन प्रतिक्रयावादी है या प्रतिगामी, अण्णा अलोकतांत्रिक हैं या अनपढ़, इस बहस में पड़े बगैर एक बात माननी चाहिए कि इसके साथ काफी बड़े वर्ग की हमदर्दी है, खासकर मध्यवर्ग की। गाँव का गरीब, दलित, खेत मजदूर यों भी अपनी भावनाएं व्यक्त करना नहीं जानता। उनके नाम पर कुछ नेता ही घोषणा करते हैं कि वे किसके साथ हैं। मध्य वर्ग नासमझ है, इस भ्रष्टाचार में भागीदार है, यह भी मान लिया पर मध्यवर्ग ही आंदोलनों के आगे आता है तब बात बढ़ती है। इस आंदोलन से असहमति रखने वाले लोग भी इसी मध्यवर्ग से आते हैं। आप इस आंदोलन में शामिल हों या न हों, पर इस बात को मानें कि इसने देश में बहस का दायरा बढ़ाया है। यही इसकी उपलब्धि है।
अण्णा हजारे के आंदोलन की तार्किक परिणति चाहे जो हो, इसने कुछ
रोचक अंतर्विरोध खड़े किए हैं। बुनियादी सवाल यह है कि इसे जनांदोलन माना जाए या नहीं। इसलिए कुछ लोग इसे
सिर्फ आंदोलन लिख रहे हैं, जनांदोलन नहीं। जनांदोलन का अर्थ है कि उसके आगे कोई वामपंथी
पार्टी हो या दलित-मजदूर नाम का कोई बिल्ला हो। जनांदोलन को परिभाषित करने वाले विशेषज्ञों
के अनुसार दो बातें इसे आंदोलन बना सकतीं हैं। एक, जनता की भागीदारी। वह शहरी और मध्य
वर्ग की जनता है, इसलिए अधूरी जनता है। सरकारी दमन भी इसे आंदोलन बनाता है। पर इस आंदोलन
का व्यापक राजनैतिक दर्शन स्पष्ट नहीं है। कम से कम वे प्रगतिशील वामपंथी नहीं हैं।
इसलिए यह जनांदोलन नहीं है। बल्कि इनमें राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के कार्यकर्ता घुसे
हुए हैं। इस आंदोलन का वर्ग चरित्र तय हो गया कि ये लोग शहरी मध्य वर्ग के सवर्ण और
आरक्षण विरोधी आंदोलन चलाने वाले लोग हैं। यह आंदोलन मीडिया ने खड़ा किया है। इसके
पीछे भारतीय पूँजीपति वर्ग और अमेरिका है। कुछ लोग इसे अण्णा और कांग्रेस की मिली-भगत
भी मानते हैं।
यह वामपंथी विचार पद्धति है। हमने कह दिया तो कह दिया, बस। दूसरा
विश्व युद्ध एक ज़माने तक पूँजीवादियों की आपसी लड़ाई थी, पर जैसे ही रूस पर हमला हुआ
वह पीपुल्स वॉर में तब्दील हो गया। हालांकि अण्णा आंदोलन के संदर्भ में ऑफीशियल वामपंथी
पार्टियों ने ऐसा निष्कर्ष नहीं निकाला है। पर इधर-उधर मुद्रित-अमुद्रित विचारों को
पढ़ें तो वाम-बनावट के मित्रों को इस आंदोलन में दोष नज़र आते हैं। उनके पास एक चेकलिस्ट
है जिसमें इरोम शर्मिला, कश्मीर, उत्तर पूर्व, बस्तर, छत्तीसगढ़, पोस्को, जल, जंगल,
जमीन, रोजगार, स्वास्थ्य, शिक्षा, मनुवाद, जातीय आरक्षण, औद्योगिक नीति, आर्थिक नीति
और अमेरिकी साम्राज्यवाद वगैरह के बारे में अण्णा पार्टी के विचार साफ नहीं होने के
कारण उनके आंदोलन को आंदोलन न मानने का वैचारिक आधार है।
खलीज़ टाइम्स में परेश |
दो राय नहीं कि यह मध्यवर्ग का आंदोलन है। और यह भी कि यह इसी
व्यवस्था के अंतर्विरोध सुलझाने का आंदोलन है। वामपंथी व्यवस्था लाने का नहीं। इसे
पूरी तरह से सत्ता प्राप्ति का आंदोलन कहना उचित नहीं होगा, क्योंकि यह जन लोकपाल की
सिर्फ एक माँग पर केन्द्रित है। जय प्रकाश नारायण के साथ एक राजनैतिक ताकत थी और
1977 के चुनाव के बाद बनी पार्टी अपने शुरुआती दिनों में उन्हें अपने आदर्श के रूप
में पेश कर रही थी। पर अण्णा-पार्टी या मनीष तिवारी के शब्दों में अण्णा-कम्पनी के
पास कोई राजनैतिक कार्यक्रम नहीं है। यह भी सच है कि इस आंदोलन के कारण विरोधी दलों
को ताकत मिली है। खासतौर से भाजपा को, जो कांग्रेस का मुख्य विरोधी दल है। यह ताकत
वामपंथी दलों को भी मिलेगी। पर क्या इससे यह आंदोलन मजदूर विरोधी, गरीब विरोधी, दलित
विरोधी, जातिवादी और साम्प्रदायिक है? आप पीछे जाएं तो पाएंगे कि महात्मा
गांधी के आंदोलनों को भी इसे नज़रिए से देखा गया। यही नहीं हर उस लोकप्रिय आंदोलन को
संदेह की नज़रों से देखा गया, जिसके आगे वाम-दस्ता नहीं था। जेपी आंदोलन में भी
संघ की शिरकत थी। इसके कारण वामपंथी उसमें शामिल नहीं हुए।
अपने विस्तार और असर में इसे जेपी आंदोलन के बाद की महत्वपूर्ण
घटना कह सकते हैं। यह अण्णा के कारण नहीं वस्तुगत स्थितियों के कारण है। इसे दूसरी
आज़ादी का आंदोलन कहना अतिवादी होगा, पर राजनैतिक-प्रशासनिक व्यवस्था में जनता के हस्तक्षेप
का यह महत्वपूर्ण मौका है। मनमोहन सिंह ने जिस अर्थव्यवस्था और उदारीकरण का पौधा बीस
साल पहले लगाया था, यह उसका फल है। दो दशक में अर्थव्यवस्था के साथ-साथ प्रशासनिक व्यवस्था
को भी पारदर्शी बन जाना चाहिए था। ऐसा नहीं हुआ। पर इस दौरान एक पूरी पीढ़ी तैयार हो
गई। किसी ने लिखा, यह एटीएम जेनरेशन है। मशीन में कार्ड रखती है और चाहती है कि उसका
पैसा एक क्लिक पर बाहर आ जाए। वह बीच में किसी सरकारी कर्मचारी, बाबू-अफसर को देखना
नहीं चाहती। नई पीढ़ी अधीर है। वह जल्द से जल्द चीजों को ठीक करने में भरोसा करती है।
वह अमेरिका घूमकर आई है, जहाँ सिस्टम्स काम करते हैं।
विरोध-प्रतिरोध और आंदोलन लोकतंत्र से हाथ मिलाकर चलते हैं।
अण्णा का आंदोलन भी उसका हिस्सा नहीं है क्या? क्या कुछ प्रोटेस्ट अच्छे होते हैं, कुछ खराब? अण्णा-आंदोलन क्या प्रतिक्रियावादी है? सरकार ने अण्णा
के आंदोलन को प्रगति विरोधी करार दिया है। उसकी बात समझ में आती है। ठीक है कि जे पी
आंदोलन की तरह इस आंदोलन में कोई समाजवादी तड़का नहीं है, पर वह तड़का होना अनिवार्य
तो नहीं। यह शुद्ध उपभोक्तावादी आंदोलन है। इस आंदोलन को जनता के एक तबके का समर्थन
मिला है, पर बौद्धिक रूप से जागरूक एक बड़ा तबका अण्णा हजारे से नाराज है। और इसे अपवित्र
आंदोलन कह रहा है। इस नाराज़गी का कारण क्या है?
इस आंदोलन का विरोध करने वाले कई दृष्टि से इसका विरोध कर रहे
हैं। पहला सवाल है कि सिविल सोसायटी होती क्या है? उनके विचार से जनता द्वारा चुनी गई संसद की यह अवमानना है। हमारी
संविधान सभा भी जनता के बीच से सीधे चुनकर नहीं आई। उसमें उन लोगों को शामिल करने के
लिए जो संवैधानिक प्रश्नों और देश की ज़रूरतों को समझते है, परोक्ष या प्रत्यक्ष रूप
से ऐसी व्यवस्था बनानी पड़ी थी। उसमें डॉ भीमराव आम्बेडकर जैसे विद्वान भी शायद न आ
पाते। हमें यह भी समझना चाहिए कि संसद अपनी पहल पर कानून नहीं बनाती। आमतौर पर सरकार
कानून का मसौदा रखती है। और संसद पचास फीसदी वोटों में से तीस फीसदी वोट पाने वालों
की जमात है। बहरहाल लोकतांत्रिक तरीके से सरकार के सामने कोई मसौदा रखना गलत और अलोकतांत्रिक
क्यों है?
फिर कहा जा रहा है कि भ्रष्टाचार तो सदा रहने वाली चीज़ है,
एक कानून बनाने से खत्म नहीं होगा। पर इस कानून की अवधारणा अण्णा-कम्पनी ने ईज़ाद नहीं
की। आठ-नौ बार हमारी संसद में इसका मसौदा पेश हो चुका है। यूपीए की दोनों सरकारों ने
इसे अपनी प्राथमिकता सूची में रखा था। सवाल है कि किस तरह का कानून बने। फिर ऐसा कहा
जाता है कि आमरण अनशन ब्लैक मेल है। ऐसा ब्लैकमेल देश में पहली बार हो रहा है क्या? ऐसे ही आमरण अनशन के बाद
तेलंगाना आंदोलन भड़का था। एक ओर हम भ्रष्टाचार के मामले सामने आते देख रहे हैं, वहीं
भ्रष्टाचार से निपटने के लिए कठोर कानून का विरोध कर रहे हैं। सरकार भी लोकपाल की ज़रूरत
को स्वीकार कर रही है, पर बौद्धिक वर्ग उसके भी खिलाफ है।
अण्णा हजारे की गिरफ्तारी के बाद चेन्नई के अखबार हिन्दू ने
सम्पादकीय लिखा, ‘करप्ट, रिप्रेसिव एंड स्टुपिड’। इतने कड़े शब्दों में हिन्दू ने शायद ही सरकार की कभी आलोचना की हो। बाबा
रामदेव से कोई सहमत हो या न हो, पर रामलीला मैदान में उनके समर्थकों के साथ जो हुआ
वह अशोभनीय था। हम जिस वर्ग का मज़ाक उड़ा रहे हैं, वही वर्ग विनायक सेन के समर्थन
में भी आगे आता है। वही वर्ग भोपाल मामले को और तमाम पर्यावरणीय मामलों को उठाता है।
रविशंकर, चेतन भगत, अलेक पद्मसी, कबीर बेदी, उद्धव ठाकरे सरीखे लोग ही इस
आंदोलन के समर्थन में नहीं है। मेधा पाटकर भी हैं, राजिन्दर सच्चर और जस्टिस वीआर कृष्ण
अय्यर भी। मोमबत्ती क्रांति तब तक पाप नहीं
है, जब तक वह देश के गरीबों के खिलाफ नहीं है। बल्कि इस ताकत का इस्तेमाल देश की वास्तविक
समस्याओं के समाधान में किया जाय तो काफी कुछ हो सकता है।
मंजुल का कार्टून साभार |
अण्णा हजारे के पीछे जो टोली है क्या उसके
कोई निहित स्वार्थ हैं? क्या कोई दीर्घकालीन
एजेंडा लोकर लोग उनके पीछे हैं? क्या हमारी समस्याओं को कोई एकमुश्त
समाधान सम्भव है? लोकपाल बिल बन जाने के बाद ही सारी समस्याएं
सुलझ जाएंगी? ऐसे सवालों के जवाब आज देने की स्थिति नहीं है,
पर इसमें दो राय नहीं कि इस आंदोलन के कारण देश के बड़े तबके के भीतर सोचने-विचारने
की लहर पैदा हुई है। यह लहर गरीबों-मजदूरों और वंचितों और सामाजिक न्याय के पक्ष में
हो इससे असहमति नहीं। इस जागृति को उस दिशा में मोड़ने के लिए भी सामाजिक शक्तियाँ
चाहिए। इसके लिए पहल होनी भी चाहिए। पर इस आंदोलन की भर्त्सना करने की कोई वजह मुझे
समझ में नहीं आती। अति-भावुक होकर आप इसका समर्थन न करें, पर विश्लेषण तो करें। आपको
इसमें क्रांति नज़र नहीं आती तो मुझे इसमें कोई प्रति-क्रांति नज़र नहीं आती। पर क्या
आसपास कोई क्रांति चल रही है? इसमें शामिल लोग और आलोचक एक ही
वर्ग के हैं। उनमें टकराव की वजह समझ में नहीं आती।
अब मीडिया को ताना मारना शुरू करा हैं भ्रष्ट-समूह ने ...? राष्ट्रीय-समाचारों मे छाय अन्ना हज़ारे जी और जन-लोकपाल मांग से उतरा समूचा भारत को देख घबरा गए वोह लोग जो भ्रष्टाचार को ही संस्कृति-साभ्येता मानते हैं ? वोह निरंतर-प्रयासरत रहे हैं की भारत बनाम भ्रष्टाचार-आंदोलन की कवरेज ही न हो कियुंकी बड़ी दूकानों के बंद होने पर छोटी-दुकानों की भी तो समभावनाए बढ़ गई हैं?...समझ के समझ को समझना ही एक समझ हैं और समझ के समझ को न समझे वोह न-समझ हैं वक़्त बदल रहा हैं देश के हालत अब जल्द सुधरने वाले हैं ? जिनको सत्ता-सिंहासन पर पहुँच माल कमाने की जुस्तूजू रही या उसे कहें मनोकामना तो वोह अब समझ लें की ''यह तूफान के आने से पहले की खमौशी हैं''अब भ्रष्टाचारी का मुंह काला करना कोई जुर्म न होगा ? ..किया कहना हैं आपका ?...जय-हिन्द,जय-भारत
ReplyDelete