Friday, April 1, 2011

दक्षिण एशिया में क्रिकेट


हर तोड़ का सुपर जोड़

सुबह पहला टेक्स्ट मैसेज आया, चलो मुम्बई...रावण वेट कर रहा है....सैटरडे को दशहरा है...-)। पिछले कुछ दिनों से फेसबुक, ट्विटर और टीवी पर तीसरे और चौथे विश्वयुद्ध की घोषणाएं हो रहीं थीं। ऊँचे-ऊँचे बोलों, उन्मादों, रंगीनियों, शोर-गुल, धूम-धड़ाके के बाद भारत फाइनल में पहुँच गया है। भारत-ऑस्ट्रेलिया मैच को हमारे मीडिया ने सेमी फाइनल माना था। भारत-पाकिस्तान मैच फाइनल था। और अब शायद भारत-श्रीलंका मैच साउथ एशिया कप का फाइनल है।

दक्षिण एशिया ने क्रिकेट को कहाँ से कहाँ पहुँचा दिया है। 1975 में जब एक दिनी क्रिकेट के विश्व कप की शुरूआत हुई थी, तब तक यह अंग्रेजों का खेल था। अक्सर सवाल किया जाता है कि भारत में क्रिकेट को इतनी अहमियत क्यों दी जाती है? दूसरे खेलों पर इतना ध्यान क्यों नहीं दिया जाता? इसके पीछे तमाम कारण हैं। देश की नई आर्थिक संस्कृति और कॉरपोरेट-संरक्षण के कारण हमारा क्रिकेट दुनिया के टॉप पर है। इस बदलाव का नेतृत्व भारत ने किया है, पर पाकिस्तान, श्रीलंका और बांग्लादेश को मिली सफलताएं भी इसका कारण हैं। इसके पीछे कारोबार जगत का बड़ा हाथ है। पर सबसे बड़ा कारण तो टीम को मिली सफलता है। सामान्य दर्शक को सफलता और हीरो चाहिए। राष्ट्रीय-अभिमान, उन्माद और मौज-मस्ती के लश्कर इसके सहारे बढ़ते गए हैं। विकसित होते समाज में संस्कृति के नए रूप गढ़े जा रहे हैं। इसके सहारे विकसित होता है गीत-संगीत, कलाएं और जीवन-शैली। इसे अच्छा या बुरा कहने के पहले इसके विकास पर ध्यान देना चाहिए।

भारत और पाकिस्तान की टीमें विश्व कप में शुरू से शामिल होती आईं हैं। यों भी इन दोनों देशों के पीछे क्रिकेट का इतिहास है। पर क्रिकेट लम्बा और उबाऊ खेल था। यह खत्म हो जाता अगर ऑस्ट्रेलिया के मीडिया-टायकून कैरी पैकर ने क्रिकेट को नई परिभाषा न दी होती। एक दिनी क्रिकेट इंग्लैंड में 1962 से खेला जा रहा था। वहाँ जिलेट ट्रॉफी लोकप्रिय भी थी। पर उसे सारी दुनिया के सामने रोचक बनाकर पेश करने की पहल कैरी पैकर ने की। 1975 में पहले विश्व कप के लिए आठ टीमें जुटाना मुश्किल था। उसमें श्रीलंका को शामिल किया गया, जिसे टेस्ट मैच खेलने लायक नहीं समझा जाता था। पूर्वी अफ्रीका के देशों की एक संयुक्त टीम बनाई गई थी। दूसरे विश्व कप के साथ आईसीसी ट्रॉफी भी शुरू हो गई। उसके सहारे श्रीलंका और कनाडा की टीमों को प्रवेश मिला।
1975 या 1979 में कोई नहीं कहता था कि अगला विश्व कप भारत की टीम जीतेगी। 1983 में प्रतियोगिता शुरू होने तक कोई नहीं कह सकता था। प्रतियोगिता शुरू होने पहले इंग्लैंड के सट्टेबाज भारत की सम्भावना पर 66-1 का सट्टा लगा रहे थे। उस साल प्रतियोगिता शुरू होते ही सबसे पहले एक नई टीम जिम्बाब्वे ने ऑस्ट्रेलिया को हराकर सनसनी फैला दी। उसके बाद भारत ने वेस्टइंडीज को ग्रुप मैच में पीटकर उलट-फेर की भूमिका बना दी। 1982 के एशिया खेलों के कारण हमारा राष्ट्रीय टीवी नेटवर्क काम करने लगा था, पर विश्व कप के टीवी प्रसारण की बात सोची भी नहीं गई थी। उस साल भी भारत की कहानी खत्म होने ही वाली थी। जिम्बाब्वे के खिलाफ मैच में भारतीय टीम के पाँच खिलाड़ी 17 रन पर आउट हो गए। 77 पर 6, 78 पर 7 और 140 पर 8 विकेट होने के बावजूद भारतीय टीम ने 8 विकेट पर 266 रन बनाए। कपिल देव ने उस मैच में 175 रन बनाए और आउट नहीं हुए। एसएमएच किरमानी ने दूसरा छोर रोककर रखा।

कपिल देव की उस शानदार पारी के बाद भारत का आक्रामक चेहरा सामने आया। कपिल के पहले भारत के पास फास्ट बॉलर नहीं होते थे। इस कला में हम आज भी पिछड़े हैं, पर खेल के दूसरे मामलों में हमारी टीम ने काफी लम्बा सफर तय कर लिया है। नए भारत को कपिल का चेहरा मिला। 1983के विश्व कप में गलैमर भी नहीं था। 60 ओवर का मैच दिन की धूप में खेला जाता था। आज की तरह खिलाड़ी रंगीन कपड़े नहीं पहनते थे। सफेद रंग के कपड़े पहनकर लाल रंग की गेंद से मैच होता था।  उस साल पहली बार 30 गज का फील्डिंग घेरा बनाया गया, जिसके भीतर चार फील्डरों का रहना अनिवार्य कर दिया गया था।

1983 की जीत के बाद भारतीय टीम को सफलता की कुछ और सीढ़ियाँ चढ़ने को मिलीं। कुछ और प्रतियोगिताएं टीम ने जीतीं। फिर 1987 का विश्व कप भारत और पाकिस्तान में कराने की घोषणा हुई। रिलायंस कप ने हमें देश के भीतर क्रिकेट का आधार-ठाँचा बनाने का मौका दिया। मीडिया का ताना-बाना बदला। हालांकि देश में प्राइवेट टीवी चैनलों का विकास नब्बे के दशक में हुआ, पर उसके पीछे भी क्रिकेट के प्रसारण का विवाद था। सुप्रीम कोर्ट ने वायु-तरंगों की मुक्ति का फैसला क्रिकेट प्रसारण के संदर्भ में ही सुनाया था। दक्षिण एशिया में भारत और पाकिस्तान के अलावा श्रीलंका और बांग्लादेश दो भागीदार और हैं। पाकिस्तान और श्रीलंका को विश्व कप जीतने के मौके मिल चुके हैं। इस साल बांग्लादेश भी प्रतियोगिता का मेजवान देश था। हालांकि उसकी टीम को बड़ी सफलता नहीं मिली, पर यकीन कीजिए आने वाले दिनों में मिलेगी।  सन 1992 के विश्व कप के बाद से इस खेल में रंगीन परिधान और जुड़ गए। प्रसारण की तकनीक बेहतर हो गई। स्टम्प तक में कैमरा लग गया। यह बदलाव जारी है। इस बार के वर्ल्ड कप में अम्पायर के निर्णय की रिव्यू की व्यवस्था भी शुरू हुई है। इससे खेल देखने की सुविधा और स्वीकृति दोनों बढ़ीं।  

विश्व कप क्रिकेट की लोकप्रियता के पीछे के कारणों को खोजें तो आप पाएंगे कि इस खेल को रोचक बनाने के साथ-साथ टीमों की सफलता का ग्राफ भी चल रहा है। इसके समानांतर चल रहीं हैं आर्थिक गतिविधियाँ। टी-ट्वेंटी क्रिकेट को भारतीय कॉरपोरेट जगत ने जिस तरह हाथों-हाथ लिया है, उससे निष्कर्ष निकलता है कि खेल एक आर्थिक गतिविधि भी है। सन 1994 में अचानक भारत की दो लड़कियों को मिस वर्ल्ड और मिस युनीवर्स के खिताब मिले। आप इन खिताबों का बारीकी से अध्ययन करें तो पाएंगे कि इनका रिश्ता कॉस्मेटिक उद्योग के विकास के साथ है। ये प्रतियोगिताएं कॉस्मेटिक उद्योग ही आयोजित कराता है। मिस वर्ल्ड के खिताब अक्सर मिस निकरागुआ, मिस कोलम्बिया, मिस थाइलैंड वगैरह को मिलते हैं। मिस यूएसए और मिस जर्मनी को कम मिलते हैं। और ये प्रतियोगिताएं वहाँ होती भी नहीं हैं। बहरहाल सुन्दर नजर आने, चाल-ढाल बेहतर करने और बोल-चाल के तौर-तरीके सीखने-सिखाने का रिश्ता सांस्कृतिक बदलाव के व्यापक फलक से भी है।

क्रिकेट के खेल की लोकप्रियता ने किस वक्त राजनीति और राजनय के दरवाजे खोल दिए इसका पता ही नहीं लगा। पाकिस्तान की संसद का इन दिनों सत्र चल रहा है। बुधवार को संसद में अघोषित छुट्टी रही। कोई मंत्री काम पर नहीं आया। मोहाली में पाकिस्तान सरकार के तमाम आला अफसर और सियासी-कारकुन जमा थे। सोनिया गांधी और राहुल गांधी समेत पक्ष-विपक्ष के तमाम राजनेता वहां थे। आमिर खान, विवेक ओबेराय से लेकर प्रीटी जिंटा तक स्टेडियम में मौजूद थे। लोकतांत्रिक-प्रक्रिया में इस मैच का कोई अर्थ नहीं, पर व्यवहार में यह बेहद महत्वपूर्ण मौका था।

खेल सिर्फ निरर्थक गतिविधि नहीं है, बल्कि बेहतर नागरिक बनाने का रास्ता है। सिर्फ कौशल और प्रदर्शन के सहारे प्रशंसा बटोरने का इससे बेहतर तरीका कोई नहीं। अच्छे खिलाड़ी को सब पसंद करते हैं, भले ही वह हमारी प्रतिद्वंदी टीम का हो। नियमों का पालन करना भी हम खेल से सीखते हैं। इस अर्थ में खेल एक प्रयोगशाला है। इसका वैश्विक रूप हमें वैश्विक दृष्टिकोण तैयार करने में मदद करता है। खेल के मैदान में हमारा कबायली मन उन्मादी और हिंसक भी बनाता है और सौम्य भी। हर तोड़ का सुपर जोड़। खेल कहता है, लंका से जीतो या हारो, मुझे इससे मतलब नहीं। मुझे पसंद करते हो तो बेहतर खेलो।    


दैनिक जनवाणी में प्रकाशित

3 comments:

  1. "खेल सिर्फ निरर्थक गतिविधि नहीं है, बल्कि बेहतर नागरिक बनाने का रास्ता है।"
    बहुत अच्छी बात कही आपने सर!
    आपके इस लेख से मेरे को काफी कुछ नयी जानकारियाँ मिलीं क्रिकेट के बारे में.

    धन्यवाद सहित

    सादर

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  2. गजब की रिसर्च की है आपने सहेजने लायक लेख

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  3. शानदार लेख. वैसे आपके लेख पर कमेन्ट करना और उसे शानदार कहना सूरज को दीया दिखाने जैसा है.

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