31 मार्च के टाइम्स ऑफ इंडिया और दक्षिण के प्रसिद्ध अखबार हिन्दू के सारे शीर्षक नीले रंग में थे। दोनों अखबारों को जर्मन ऑटो कम्पनी फोक्स वैगन ने विशेष विज्ञापन दिया था। फोक्स वैगन इसके पहले पिछले साल 21 सितम्बर को दोनों अखबार फोक्स वैगन के विशेष टॉकिंग एडवर्टाइज़मेंट का प्रकाशन कर चुके थे। उसमें अखबार के पन्ने पर करीब दस ग्राम का स्पीकर चिपका था। रोशनी पड़ते ही उस स्पीकर से कम्पनी का संदेश बजने लगता था।
फोक्स वैगन इन दिनों भारत के ऑटो बाज़ार में जमने का प्रयास कर रही है। उसके इनोवेटिव विज्ञापनों में कोई दोष नहीं है, पर अखबारों में विज्ञापन किस तरह लिए जाएं, इस पर चर्चा ज़रूर सम्भव है। 31 मार्च के थिंक ब्लू विज्ञापन का एक पहलू यह भी है कि टाइम्स ने उसके लिए अपने मास्टहैड में ब्लू शब्द हौले से शामिल भी किया है। हिन्दू ने मास्टहैड में विज्ञापन का शब्द शामिल नहीं किया।
टाइम्स इसके पहले कम से कम दो बार और मास्टहैड में विज्ञापन सामग्री जोड़ चुका है।
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टूथपेस्ट से पीत्ज़ा तक तमाम व्यावसायिक उत्पाद केवल मार्केटिंग और विज्ञापन के सहारे बिक जाते हैं। अब आप दुकानों पर लिखा पाते हैं, फैशन के दौर में क्वालिटी की उम्मीद न करें। खरीदने और बेचने वाले खुश हैं तो किसी को आपत्ति करने का अधिकार नहीं। अलबत्ता खबर और विज्ञापन के घटते फर्क के बीच उन लोगों के सामने विचार के कुछ प्रश्न ज़रूर खड़े होते हैं, जो सूचना को लोकतांत्रिक प्रक्रिया का महत्वपूर्ण हिस्सा मानते हैं।
फोक्स वैगन इन दिनों भारत के ऑटो बाज़ार में जमने का प्रयास कर रही है। उसके इनोवेटिव विज्ञापनों में कोई दोष नहीं है, पर अखबारों में विज्ञापन किस तरह लिए जाएं, इस पर चर्चा ज़रूर सम्भव है। 31 मार्च के थिंक ब्लू विज्ञापन का एक पहलू यह भी है कि टाइम्स ने उसके लिए अपने मास्टहैड में ब्लू शब्द हौले से शामिल भी किया है। हिन्दू ने मास्टहैड में विज्ञापन का शब्द शामिल नहीं किया।
टाइम्स इसके पहले कम से कम दो बार और मास्टहैड में विज्ञापन सामग्री जोड़ चुका है।
एक ज़माने तक अखबार अपने मास्टहैड में किसी प्रकार का बदलाव नहीं करते थे। इन दिनों तमाम प्रयोग हो रहे हैं। अखबारों में तकरीबन दूसरे-तीसरे दिन जैकेट के नाम पर पूरे पेज का विज्ञापन मास्टहैड के नीचे होता है। यह सही है या गलत है कहने से कोई फायदा नहीं।
अखबार आखिरकार एक व्यावसायिक उत्पाद है, पर विज्ञापन और विज्ञापनदाता का प्रभाव अखबारों को किस हद तक ऑब्जेक्टिव रख सकता है, यह विचार का विषय है। अखबारों के लिए साख कितनी महत्वपूर्ण है और पाठक क्या साख को भी देखता है? इन सवालों के दवाब आने वाला समय देगा। क्या पाठक विना विज्ञापन वाले अखबार खरीदना चाहेगा? क्या विज्ञापन में भी पठनीय सूचना होती है? ऐसे तमाम सवाल एक-दूसरे से जुड़े हैं।
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टूथपेस्ट से पीत्ज़ा तक तमाम व्यावसायिक उत्पाद केवल मार्केटिंग और विज्ञापन के सहारे बिक जाते हैं। अब आप दुकानों पर लिखा पाते हैं, फैशन के दौर में क्वालिटी की उम्मीद न करें। खरीदने और बेचने वाले खुश हैं तो किसी को आपत्ति करने का अधिकार नहीं। अलबत्ता खबर और विज्ञापन के घटते फर्क के बीच उन लोगों के सामने विचार के कुछ प्रश्न ज़रूर खड़े होते हैं, जो सूचना को लोकतांत्रिक प्रक्रिया का महत्वपूर्ण हिस्सा मानते हैं।
अभी कल ही वोग इंडिया पत्रिका देखने में आई. 100 रुपए में 300 से ऊपर ग्लॉसी, फुल कलर पत्रिका. क्या विज्ञापन के बिना यह संभव है? नहीं. अन्यथा हंस जैसा हाल होता जो 30 रुपए में अखबारी पन्ने में बिना विज्ञापनों के छपता है, ले दे कर 100 पेज.
ReplyDeletepatrakarita ke liye yaha sab bahut durbhagyapurna hain.
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