महात्मा गांधी की पुण्यतिथि पर ध्वजारोहण के साथ इस महीने की 30 तारीख को राहुल गांधी की भारत-जोड़ो यात्रा का समापन हो जाएगा। इस यात्रा ने बेशक कांग्रेस-कार्यकर्ताओं में उत्साह की लहर पैदा की है। खासतौर से राहुल गांधी की ‘पप्पू’ की जगह एक परिपक्व राजनेता की छवि बनाई है। उनके विरोधी भी मानते हैं कि जिस रास्ते से भी यात्रा गुजरी है, वहाँ के नागरिकों के मन में राहुल के प्रति सम्मान बढ़ा है। पर असल सवाल यह है कि क्या यह यात्रा कांग्रेस को चुनाव में सफलता दिला सकेगी? हालांकि कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं ने कहा है कि यात्रा का उद्देश्य सत्ता-प्राप्ति नहीं है, पर इसमें दो राय नहीं कि जबतक चुनावी सफलता नहीं मिलेगी, सामाजिक-सामंजस्य की स्थापना संभव नहीं। कांग्रेस देश का सबसे प्रमुख विरोधी दल है। 2019 में पार्टी ने 403 सीटों पर अपने प्रत्याशी खड़े किए थे, जिनमें से केवल 52 को जीत मिली। 196 सीटों पर पार्टी दूसरे स्थान पर रही। उसे कुल 19.5 प्रतिशत वोट मिले। पार्टी 12 राज्यों में मुख्य विरोधी दल है। ये राज्य हैं पंजाब, असम, कर्नाटक, केरल, हरियाणा, महाराष्ट्र, झारखंड, गोवा, मणिपुर, मेघालय, मिजोरम और नगालैंड। इसका जिन सात राज्यों में बीजेपी से सीधा मुकाबला है, उनके नाम हैं-अरुणाचल, छत्तीसगढ़, गुजरात, हिमाचल प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान और उत्तराखंड। इन सातों राज्यों में लोकसभा की 102 सीटें हैं। क्षेत्रीय दलों की राष्ट्रीय स्तर पर बड़ी उपस्थिति नहीं है। वे 2024 में भी बीजेपी को नुकसान पहुँचाने की स्थिति में नहीं हैं। इस बात में संदेह है कि कांग्रेस 2024 में विरोधी एकता का केंद्र बन पाएगी। इसका ह्रास अस्सी के दशक में शुरू हो गया था। इसके सामने तीन समस्याएं हैं: उच्चतम स्तर पर निर्णय-प्रक्रिया और शक्ति का केंद्रीयकरण, संगठनात्मक कमजोरी और तीसरे, एकता की कमी। एक गैर-गांधी अध्यक्ष के चुनाव के बावजूद हाईकमान संस्कृति और गांधी परिवार की उपस्थिति बदस्तूर है। इसकी वजह से फैसले सबसे ऊँचे स्तर पर ही होते हैं। इस यात्रा से पार्टी में सुधार नहीं हो जाएगा। इंडियन एक्सप्रेस में पढ़ें सुधा पाई का लेख
विदेशी विश्वविद्यालयों का विरोध गलत
कुछ लोग विदेशी विश्वविद्यालयों को भारत में
प्रवेश की अनुमति देने के विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) के प्रस्ताव से खासे
नाराज हैं। उनका कहना है कि विदेशी विश्वविद्यालयों को बहुत आसान और फायदा
पहुंचाने वाली शर्तों पर बुलाया जा रहा है। इसका विरोध करने वाले लोग एकदम गलत हैं
क्योंकि विश्वविद्यालय वही बेच रहे हैं, जिसकी लोगों को
ज्यादा दरकार है – शिक्षा। छात्र अपने मां-बाप से पैसे लेकर या बैंक से कर्ज लेकर
या दोनों लेकर इसे खरीदते हैं। इस अलग दिखने को ही स्थायी बौद्धिक श्रेष्ठता बताकर
ब्रांडिंग की जाती है। लेकिन अलग दिखने यानी ज्यादा अंक लाने वाले लाखों लोग ही
आगे जाकर जीनियस या प्रतिभाशाली बने हैं, इसके साक्ष्य
नहीं के बराबर हैं। इसके बाद भी अगर आपने किसी विशेष विश्वविद्यालय से डिग्री हासिल
की है तो स्नातक में आपके अंक जो भी हों, आपको स्वत: ही
बौद्धिक रूप से उन लोगों से बेहतर मान लिया जाता है, जो
वहां से डिग्री नहीं ले सके हैं। बिजनेस
स्टैंडर्ड में टीसीए राघवन का लेख
भारत में बढ़ती विषमता
ऑक्सफ़ैम का अध्ययन संपत्ति कर को दोबारा शुरू
करने का सुझाव देता है और इस बात को रेखांकित करता है कि ऐसे अवास्तविक लाभ से किस
तरह का सामाजिक निवेश किया जा सकता है। अध्ययन बिना नाम लिए देश के सबसे अमीर
व्यक्ति की संपत्ति का उल्लेख करता है और बताता है कि कैसे अगर 2017 से 2021 के
बीच उनकी संपत्ति के केवल 20 फीसदी हिस्से पर कर लगाकर प्राथमिक शिक्षा को बहुत
बड़ी मदद पहुंचाई जा सकती थी जिसके तमाम संभावित लाभ होते। यह उपाय तार्किक प्रतीत
होता है लेकिन संपत्ति कर के साथ भारत के अनुभव बहुत अच्छे नहीं रहे हैं। पहली बार
यह कर 1957 में लगाया गया था और बड़े पैमाने पर कर वंचना देखने को मिली थी।
असमानता कम करने में इससे कोई खास मदद नहीं मिली थी। वर्ष 2016-17 के बजट में
तत्कालीन वित्त मंत्री अरुण जेटली ने यह कहते हुए इस कर को समाप्त कर दिया था कि
इसे जुटाने की लागत इससे होने वाले हासिल से अधिक होती है। ऑक्सफ़ैम
की रिपोर्ट पर बिजनेस स्टैंडर्ड का संपादकीय