आमतौर पर बजट कागजों पर बनता है और कागजों में ही रहता है। उसका सीधा प्रभाव आसानी से नजर नहीं आता। पर इसबार के बजट का असर हमें जमीन पर देखने को मिल सकता है, बशर्ते जो वायदे किए गए हैं, वे लागू हों। लागू नहीं होंगे तो वह भी सामने आ जाएगा। बजट को देखने का एक
राजनीतिक नजरिया है कि क्या इससे आम मतदाता के मन में विश्वास पैदा होगा? दूसरा नजरिया शुद्ध
आर्थिक है। क्या देश की अर्थ-व्यवस्था को गतिशील बनाने में इसकी भूमिका होगी? इस साल के आर्थिक
सर्वेक्षण में कहा गया था कि अर्थ-व्यवस्था मंदी के दौर से बाहर निकल रही है, अब
खेती और ग्रामीण विकास पर ध्यान देना होगा। इसके अलावा रोजगार के रास्तों को खोलने
की जरूरत है, खासतौर से युवा और महिलाओं के लिए। बजट का मतलब तब समझ में आता है,
जब वह जनता से सीधे जाकर जुड़े। इस बजट का निहितार्थ जनता अपनी नजरों से देखेगी। अच्छा हुआ तो सामने आएगा। अच्छा नहीं हुआ तो सरकार बच नहीं पाएगी।
सरकार गाँव, गरीब और
महिलाओं को टार्गेट कर रही है। हमारी जीडीपी में खेती की हिस्सेदारी केवल 16 फीसदी
की है, पर देश की 49 फीसदी आबादी इससे जुड़ी हुई है। मोदी सरकार के पिछले बजटों पर
नजर डालें। 2014-15 में ग्रामीण विकास मंत्रालय का जो बजट 69,817 करोड़ रुपये का
था, वह 2018-19 में 1,14,915 करोड़ रुपये का है। दूसरा प्राथमिकता क्षेत्र
इंफ्रास्ट्रक्चर है। सड़क परिवहन और राजमार्ग मंत्रालय को 2014-15 में 33,048 करोड़
का आबंटन किया गया था, जो 2018-19 में 71,000 करोड़ रुपये का हो गया है। दुगने से
भी ज्यादा। राजमार्गों के निर्माण और प्रधानमंत्री ग्रामीण सड़क कार्यक्रम का
दोतरफा लाभ है। दूर-दराज के इलाके एक-दूसरे से जुड़ते हैं और दूसरे, अनस्किल्ड
श्रमिकों के रोजगार देने का यह सबसे बड़ा जरिया है।