बिहार-2015 तथ्य-पत्र
युवा पत्रकार अभय कुमार चुनाव सांख्यिकी तैयार करने में विशेषज्ञता हासिल कर रहे हैं। मेरे पास वे अपना काम भेजते रहते हैं। इस साल बिहार में चुनाव होने वाले हैं। उन्होंने बिहार का तथ्य पत्र बना शुरू किया है। अभी तक तो मैं उनकी सामग्री अपने पास रख लेता था। मुझे लगता है इसे प्रकाशित भी करना चाहिए। आज मैं बिहार के 2010 के चुनाव परिणामों का विवरण रख रहा हूँ। चुनाव से जुड़े रोचक तथ्य मैं इसके बाद धीरे-धीरे पेश करूँगा। Friday, April 10, 2015
Tuesday, April 7, 2015
सार्वजनिक स्वास्थ्य राजनीति का विषय बनाइए, राजनीतिबाज़ी का नहीं
आप कहेंगे कि राजनीतिबाज़ी और राजनीति में फर्क क्या है? हमें जो राजनीति दिखाई पड़ती है वह ज्यादातर राजनीतिबाज़ी है। इसमें सिद्धांत कम, मौकापरस्ती ज्यादा है। सत्ता पर यह पार्टी रहे या वह रहे, इससे तबतक कोई फर्क नहीं पड़ता जबतक सार्वजनिक विमर्श मूल्य-आधारित नहीं होता। अचानक हम तम्बाकू पर चर्चा शुरू होती देखते हैं और फिर उसे किसी दूसरी चर्चा शुरू होने पर खत्म होते भी देखते हैं। इसके मूल में सार्वजनिक स्वास्थ्य नहीं, मौकापरस्त राजनीति है। तम्बाकू का सवाल इसलिए ज्यादा महत्वपूर्ण है, क्योंकि हम एक अंतरराष्ट्रीय संधि से जुड़े हैं। पर केवल तम्बाकू ही स्वास्थ्य के लिए हानिकारक नहीं है। शराब, नमक, चीनी, कोल्ड ड्रिकं, फास्ट फूड, चिकनाई और पर्यावरण में फैला ज़हर भी खतरनाक है। बड़ा सच यह है कि कैंसर और एचआईवी के मुकाबले सर्दी-ज़ुकाम और कुपोषण से मरने वालों की तादाद कहीं ज्यादा है। इन सबके इलाज और नियमन पर विचार किया जाना चाहिए। भारत का अनुभव है कि तम्बाकू उत्पादों पर खौफनाक तस्वीरें छापने पर ही जनता का ध्यान अपने स्वास्थ्य पर जाता है। वह तभी विचलित होती है जब परेशान करने वाली तस्वीरें देखती है। इन सवालों पर केंद्रित राजनीति हमारे यहाँ विकसित नहीं है। जनता के साथ-साथ हमें अपनी राजनीति को शिक्षित करने की जरूरत भी है।
Sunday, April 5, 2015
आतंकी बॉम्बर से ज्यादा खतरनाक हैं नशेड़ी ड्राइवर!
हाल में एक अदालत ने नशेड़ी ड्राइवरों की तुलना पिदायी बॉम्बर से की थी। दिल्ली पुलिस इन दिनों नशेड़ी ड्राइवरों के खिलाफ विशेष
अभियान चला रही है। इसमें बड़े-बड़े लोग भी जाल में फँसेंगे, पर इससे पीछे नहीं
हटना चाहिए। केवल नशे के बारे में ही नहीं लेन ड्राइविंग और सीमा के भीतर की गति
से वाहन चलाने के अभियान चलने चाहिए। दिल्ली की सड़कों पर डेढ़ सौ किलोमीटर की स्पीड
से बीएमडब्ल्यू चलाने के प्रसंग हम देख चुके हैं। इसके पहले कि ये सब बातें खतरनाक
मोड़ तक पहुँचें इनपर काबू पा लिया जाना चाहिए। दुखद सत्य है कि नरेंद्र मोदी
सरकार को पिछले साल सड़क दुर्घटना में अपने काबिल मंत्री गोपीनाथ मुंडे को खोना
पड़ा था।
दश में सड़कों पर मोटर
वाहनों की तादाद तेजी से बढ़ रही है। उतनी ही तेजी से सड़कों पर अराजकता बढ़ रही
है। ट्रैफिक जाम हर शहर की कहानी है। उससे ज्यादा भयावह है दुर्घटनाओं का बढ़ते
जाना। हर साल तकरीबन 1,40,000 लोगों की मौत सड़क दुर्घटना से होती है। इससे ज्यादा
बड़ी संख्या घायलों की होती है। इन्हें दुर्घटना कहना गलत है क्योंकि बहुसंख्यक
मामले अनाड़ी, जानबूझकर या शराब पीकर ड्राइविंग के कारण होते हैं। पहली वजह
ट्रैफिक सेंस का न होना और दूसरी वजह है नियमों का पालन कराने वाली एजेंसियों का
शिथिल होना। एक और कारण है नियमों का न होना या अपर्याप्त होना।
संयुक्त राष्ट्र
ने ऐसे 10 देशों की पहचान की है जहां सबसे अधिक सड़क दुर्घटनाएं होती हैं। इनमें
भारत का नाम सबसे ऊपर है।
Friday, April 3, 2015
अखबारों के रीडरशिप सर्वे को लेकर फिर विवाद
इडियन रीडरशिप सर्वे को लेकर देश के बहुसंख्यक प्रकाशनों का विरोध फिर सामने आया है। हिन्दू ने IRS 2014: ‘Stale wine in a new bottle’ में लिखा है कि आईआरएस-2013 की देश के 18 प्रकाशन समूहों ने भर्त्सना की थी। लगभग सभी प्रकाशन समूह इस बार भी नाराज हैं। इसे एक विज्ञापन के रूप में कुछ अखबारों ने आज प्रकाशित किया है। आज के अमर उजाला और जागरण ने भी अपने पहले पेज पर इस आशय की रिपोर्ट छापी हैं। रीडरशिप सर्वे करने वाली संस्था चुनावपूर्व सर्वे और एक्जिट पोल भी संचालित करती है।
अमर उजाला में प्रकाशित रपट
इंडियन रीडरशिप सर्वे में फिर गुमराह करने की कोशिश
अमर उजाला नेटवर्क
नई दिल्ली। इंडियन रीडरशिप सर्वे 2014 ने फिर झूठे आंकड़ों के दम पर पाठकों को गुमराह करने की नाकाम और ओछी कोशिश की है। उसने तीन चौथाई झूठ के साथ एक चौथाई सच मिलाकर नई बोतल में पुरानी शराब पेश कर दी है।
Wednesday, April 1, 2015
‘आप’ को 'आधा तीतर-आधा बटेर' मनोदशा से बाहर आना होगा
दिल्ली के
विधानसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी की जीत भारतीय राजनीति में नई ‘सम्भावनाओं की शुरुआत’ थी. पर नेतृत्व
की नासमझी ने उन सम्भावनाओं का अंत कर दिया. अभी यह कहना गलत होगा कि इस विचार का
मृत्युलेख लिख दिया गया है. पर इसे जीवित मानना भी गलत होगा. इसकी वापसी के लिए अब
हमें कुछ घटनाओं का इंतज़ार करना होगा. यह त्रासद कथा पहले भी कई बार दोहराई गई है.
अब इसका भविष्य उन ताकतों पर निर्भर करेगा, जो इसकी रचना का कारण बनी थीं. भविष्य
में उनकी भूमिका क्या होने वाली अभी कहना मुश्किल है. अंतिम रूप से सफलता या
विफलता के तमाम टेस्ट अभी बाकी हैं. इतना साफ हो रहा है कि संकट के पीछे
सैद्धांतिक मतभेद नहीं व्यक्तिगत राग-द्वेष हैं. यह बात इसके खिलाफ जाती है.
दिल्ली में 49
दिन बाद ही इस्तीफा देने के बाद पार्टी की साख कम हो गई थी. वोटर ने लोकसभा चुनाव
में उसे जोरदार थप्पड़ लगाया. पर माफी माँगने के बाद पार्टी दुबारा मैदान में आई
तो सफल बना दिया? दिल्ली में उसे मिली
सफलता के दो कारण थे. एक तो जनता इस प्रयोग को तार्किक परिणति तक पहुँचाना चाहती थी.
दूसरे भाजपा के विजय रथ को भी रोकना चाहती थी. पर जनता बार-बार उसकी नादानियों को
सहन नहीं करेगी. खासतौर से तब जब एक के बजाय दो ‘आप’ सामने होंगी? फिलहाल दोनों निष्प्राण
हैं. और यह नहीं लगता कि दिल्ली की प्रयोगशाला से निकला जादू आसानी से देश के सिर
पर चढ़कर बोलेगा.
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