Friday, March 20, 2015

क्या ‘मोदी मैजिक’ को तोड़ सकती है कांग्रेस?

सोनिया गांधी ‘सेक्युलर’ ताकतों को एक साथ लाने में कामयाब हुईं हैं. पिछले साल लोकसभा चुनाव के पहले इस किस्म का गठजोड़ बनाने की कोशिश हुई थी, पर उसका लाभ नहीं मिला. राज्यों के विधानसभा चुनावों में इसकी कोशिश नहीं हुई. केवल उत्तर प्रदेश, बिहार और राजस्थान के उपचुनावों में इसका लाभ मिला. उसके बाद दिल्ली के विधानसभा चुनाव में प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप में यह एकता दिखाई दी. निष्कर्ष यह है कि जहाँ मुकाबला सीधा है वहाँ यदि एकता कायम हुई तो मोदी मैजिक नहीं चलेगा.

क्या इस कांग्रेस भाजपा विरोधी मोर्चे का नेतृत्व कांग्रेस करेगी? पिछले हफ्ते की गतिविधियों के आधार पर यह निष्कर्ष निकालने की जल्दबाजी नहीं करनी चाहिए. भूमि अधिग्रहण विधेयक को लेकर सोनिया गांधी के नेतृत्व में 14 पार्टियों के नेतृत्व में राष्ट्रपति भवन तक हुआ मार्च कई मानों में प्रभावशाली था, पर इसमें विपक्ष की तीन महत्वपूर्ण पार्टियाँ शामिल नहीं थीं. संयोग है कि तीनों विपक्ष की सबसे ताकतवर पार्टियाँ हैं. अन्नाद्रमुक, बीजू जनता दल और बसपा की अनुपस्थिति को भी समझने की जरूरत है. कह सकते हैं कि मोदी-रथ ढलान पर उतरने लगा है, पर अभी इस बात की परीक्षा होनी है. और अगला परीक्षण स्थल है बिहार.

Thursday, March 19, 2015

आर्थिक बदलाव का जरिया बनेगा बीमा कानून

बीमा संशोधन अधिनियम पास होने के बाद आर्थिक उदारीकरण से जुड़ा एक महत्वपूर्ण अध्याय पूरा हो गया। पर इसके पास होने की प्रक्रिया ने हमारे राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक अंतर्विरोधों को खोलकर रख दिया। क्या वजह थी कि पिछले छह साल से यह विधेयक अटका पड़ा था? भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस दोनों ने अपने-अपने मौकों पर इसका कभी समर्थन और कभी विरोध किया। इस बार विदेशी निवेश की सीमा 26 से बढ़ाकर 49 फीसदी करने का मामला था। यह तमाशा तब भी हुआ था जब इस क्षेत्र को विदेशी निवेश के लिए खोला गया। 1997 में जब चिदम्बरम वित्त मंत्री थे, बीमा निजीकरण के बिल का भाजपा ने विरोध किया। जब अपनी सरकार आई तो उसने बीमा में विदेशी पूँजी के दरवाजे खोले। उस वक्त कांग्रेस ने उसका विरोध किया। और जब यूपीए ने विदेशी पूँजी निवेश की सीमा बढ़ाने की कोशिश की तो भाजपा ने उसका विरोध किया। और जब भाजपा सरकार आई तो कांग्रेस ने अपने ही विधेयक का विरोध किया। बेशक हर बार कोई न कोई तर्क उनके पास होता है।

जन,गण मन और आमार बांग्ला...


भारत और बांग्लादेश के इस मैच के पहले बजाए गए दोंनों देशों के राष्ट्रगान एक ही लेखक के लिखे हुए थे। दोनों के गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर का लिखा है। जनगण मन और आमार शोनार बांग्ला की भावना भी ेक जैसी है। इन दोनों राष्ट्रगीतों के बारे में हम काफी कुछ जानते हैं। हमें पाकिस्तान के राष्ट्रगीत के बारे में भी जानना चाहिए। 

आज़ादी के समय पाकिस्तान के पास कोई राष्ट्र-गीत नही था। इसलिए जब भी ध्वज वन्दन होता " पाकिस्तान जिन्दाबाद, आज़ादी पाइन्दाबाद" के नारे लगते थे। शुरुआती दिनों में तराना-ए-पाकिस्तान के नाम से एक गीत प्रचलित था। हालंकि पाकिस्तान सरकार के रिकॉर्ड्स में इसका विवरण नहीं मिलता। इस गीत के बारे में कहा जाता है कि मुहम्मद अली जिन्ना चाहते थे कि पाकिस्तान के राष्ट्र-गीत को रचने का काम शीघ्र ही पूरा करना चाहिए। उनके सलाह कारों ने उनको अनेक जानेमाने उर्दू शायरों के नाम सुझाए जो गीत रच सकते थे। लेकिन जिन्ना साहब का सोच कुछ और ही थी। वे दुनिया के सामने पाकिस्तान की धर्मनिरपेक्ष छवि स्थापित करना चाहते थे। उन्होने लाहौर के  श्रेष्ठ उर्दू शायर और मूलरूप से हिन्दू जगन्नाथ आज़ाद से निवेदन किया कि आप पाकिस्तान के लिए राष्ट्र-गीत लिखें। जगन्नाथ आज़ाद तैयार हो गए। गाने के बोल थे -

ऐ सरज़मी ए पाक जर्रे तेरे हैं आज सितारो से तबनक रोशन है कहकशाँ से कहीं आज तेरी खाक
वास्तव में यह गीत वहाँ के राष्ट्रगीत का दर्जा पा सका था या नहीं और जिन्ना ने इसे लिखवाया था या नहीं यह सब विवाद का विषय है। 

जिन्ना की मृत्यु के बाद पाकिस्तान सरकार ने एक राष्ट्र-गीत कमेटी बनाई। जाने माने शायरो के पास से गीत के नमूने मंगवाए। लेकिन कोई भी गीत राष्ट्र-गीत के लायक नही बन पा रहा था। आखिरकार पाकिस्तान सरकार ने 1950 मे अहमद चागला द्वारा रचित धुन को राष्ट्रीय धुन के रूप मे मान्यता दी। उसी समय ईरान के शाह पाकिस्तान की यात्रा पर आए और उन्होने धुन को काफी पसंद किया। यह धुन पाश्चात्य अधिक लगती थी, लेकिन राष्ट्र-गीत कमेटी का मानना था कि इसका यह स्वरूप पाश्चात्य समाज मे अधिक स्वीकृत होगा। सन 1954 में उर्दू शायर हाफ़िज़ जलन्धरी ने इस धुन के आधार पर एक गीत की रचना की। यह गीत राष्ट्र-गीत कमेटी के सदस्यों को पसंद भी आया। और आखिरकार हाफ़िज़ जलन्धरी का लिखा गीत पाकिस्तान का राष्ट्र-गीत बना। 'पाक सरज़मीन' को उर्दू में "क़ौमी तराना" (قومی ترانہ) कहा जाता है। जैसे कि पाकिस्तान की किसी भी चीज के साथ होता है इसका भी भारत कनेक्शन है। हफीज़ जालंधरी का जालंधर भारत में है। यह सन् 1954 में पाकिस्तान का राष्ट्रगान बना। इस राष्ट्रगान में भी पाकिस्तान को मातृभूमि के रूप से माना गया है। इसके शुरुआती शब्द हैंः-

पाक सरज़मीन शाद बाद
किश्वर-ए-हसीन शाद बाद
तू निशान-ए-अज़्म-ए-आलिशान
अर्ज़-ए-पाकिस्तान!
मरकज़-ए-यक़ीन शाद बाद

Tuesday, March 17, 2015

'आप' पर छिटपुट विमर्श

आम आदमी पार्टी की रीति-नीति पर जब भी बात होती है ज्यादातर व्यक्तियों पर केंद्रित रहती है। या उसके आंतरिक लोकतंत्र या आंदोलनकारी भूमिका पर। टीवी पर बातचीत बिखरी रहती है और अखबारों, खासतौर से हिन्दी अखबारों की दिलचस्पी विमर्श पर बची नहीं। अलबत्ता पिछले हफ्ते 14 मार्च को प्रभात खबर ने अपने एक पेज इस मसले को दिया, जिसमें घटनाक्रम का क्रमबद्ध विवरण और कुछ दृष्टिकोण दिए गए हैं। इनमें सुहास पालशीकर का दृष्टिकोण ध्यान खींचता है। उन्हें लगता है कि यह भी दूसरे दलों की तरह सामान्य पार्टी बनकर रह गई है। अभी कहना मुश्किल है कि इसकी राह क्या होगी, पर यह पार्टी दूसरे दलों जैसी नहीं होगी, यह मानने का कारण भी सामने नहीं आ रहा है। खासतौर से आंतरिक लोकतंत्र को लेकर, क्योंकि यदि वैचारिक स्तर पर मतभेद होंगे तो उनका निपटारा भी लोकतांत्रिक तरीके से ही होगा। बहरहाल इस दौरान 'आप' से जुड़ी कुछ सामग्री आपके सामने पेश है, जिसमें क्रिस्टोफर जैफरलॉट का एक्सप्रेस में प्रकाशित लेख भी है। ईपीडब्ल्यू में आनन्द तेलतुम्बडे और एक्सप्रेस में प्रकाशित प्रताप भानु मेहता के आलेख भी पढ़ने योग्य हैं, जो दिल्ली विधानसबा चुनाव में 'आप' की विजय के संदर्भ में लिखे गए हैं।

A Victory of Possibilities
Pratap Bhanu Mehta

...The second challenge and opportunity is this: It was fashionable to portray the AAP as unleashing another populist class war, fiscally imprudent and insensitive to growth. This was a gross exaggeration unleashed by those who were engaging in class warfare anyway. But the central challenge facing India is how to create cultures of negotiation around important issues where we do not oscillate between cronyism and populism. All the important issues facing us — pricing water and electricity, managing land and environment, access to health and education — have been stymied by this oscillation. Even now, the fog of obfuscation and false choices in these areas is threatening our future. Creating credible and inclusive negotiation on these issues is the central task. In India, the rich have evaded accountability by raising the spectre of class warfare, and the poor have been cheated by populism. There has to be a liberal critique of oligarchy at the top, and a social democratic critique of populism at the bottom. We hope the AAP is the harbinger of this change.

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Something borrowed

Written by Christophe Jaffrelot | Published on:March 14, 2015 12:00 am

The current tensions in the AAP, particularly those which have led to Prashant Bhushan and Yogendra Yadav being voted out of its political affairs committee, may be better understood if one realises that the party lies at the intersection of traditions that have their own potential and contradictions. The AAP has inherited the legacy of two major political traditions in India, Gandhian and socialist. This is not the first time that a political movement has combined both. In the 1970s, Jayaprakash Narayan had tried to do the same. But the challenges that Arvind Kejriwal faces are of a different magnitude.

Sunday, March 15, 2015

‘आप’ का जादू भी हवा हो सकता है


आम आदमी पार्टी को लेकर फिलहाल सवाल यह नहीं है कि वह अपने नेताओं के मतभेदों को किस प्रकार सुलझाएगी। बल्कि यह है कि वह भविष्य में किस प्रकार की राजनीति करेगी। दिल्ली में उसकी सफलता का जो फॉर्मूला है क्या वही बाकी जगह लागू होगा? वह व्यक्ति आधारित पार्टी है या विचार आधारित राजनीति की प्रवर्तक? अरविन्द केजरीवाल व्यक्तिगत आचरण के कारण लोकप्रिय हुए हैं या उनके पास कोई राजनीतिक योजना है? बहरहाल देखना यह है कि पार्टी अपने वर्तमान संकट से किस प्रकार बाहर निकलेगी। सुनाई पड़ रहा है कि 28 मार्च को राष्ट्रीय परिषद की बैठक में ‘बागियों’ को पार्टी से निकाला जाएगा।

अभी तक पार्टी का विभाजन नहीं हुआ है। क्या विभाजन होगा? हुआ तो किस आधार पर? और टला तो उसका फॉर्मूला क्या होगा? और क्या भविष्य में फिर टकराव नहीं होगा? ‘आप’ के विफल होने पर बड़ा धक्का कई लोगों को लगेगा। उनको भी जिन्होंने उसमें नरेंद्र मोदी के उभार के खिलाफ वैकल्पिक राजनीति की आहट सुनी थी। दूसरे राज्यों में उसके विस्तार की सम्भावनाओं को भी ठेस लगेगी। थोड़ी देर के लिए मान लेते हैं कि व्यावहारिक राजनीति के लिए ऐसे बहुत से काम करने पड़ते हैं, जो खुले में अटपटे लगते हैं। जैसे कि राष्ट्रपति शासन के दौरान दिल्ली में सरकार बनाने की कोशिश करना। या मुस्लिम सीटों के बारे में फैसले करना। आम आदमी पार्टी से लोग इन बातों की उम्मीद नहीं करते थे। इसलिए कि उसने अपनी बेहद पवित्र छवि बनाई थी। इन अंतर्विरोधों से पार्टी बाहर कैसे निकलेगी?