पंकज श्रीवास्तव की बर्खास्तगी के बाद मीडिया की नौकरी और कवरेज को लेकर कुछ सवाल उठेंगे। ये सवाल एकतरफा नहीं हैं। पहला सवाल यह है कि मीडिया हाउसों की कवरेज कितनी स्वतंत्र और निष्पक्ष है? दूसरा यह कि किसी पत्रकार की सेवा किस हद तक सुरक्षित है? तीसरा यह कि सम्पादकीय विभाग के कवरेज से जुड़े निर्णय किस आधार पर होते हैं? यह भी पत्रकार के व्यक्तिगत आग्रहों और चैनल की नीतियों में टकराव होने पर क्या होना चाहिए? संयोग से इसी चैनल के एक पुराने एंकर आम आदमी पार्टी में शामिल हुए और लोकसभा चुनाव भी लड़ा। पंकज श्रीवास्तव ने ऐसा कोई संकेत नहीं दिया है कि वे राजनीति में आना चाहते हैं। वे मानते है कि उनके चैनल की कवरेज असंतुलित है। चैनल क्या इस बात को जानता नहीं? बेशक वह सायास झुकाव के लिए भी स्वतंत्र है। चैनलो से उम्मीद की जाती है कि वे तटस्थ होकर काम करेंगे। पर क्या यह तटस्थता व्यावहारिक रूप से सम्भव है? खासतौर से तब जब पत्रकार की अपनी राजनीतिक धारणाएं हैं और दूसरी ओर चैनल के व्यावसायिक हित हैं।
Thursday, January 22, 2015
Tuesday, January 20, 2015
स्वास्थ्य का अधिकार देंगे, पर कैसे?
सरकार ने राष्ट्रीय
स्वास्थ्य नीति-2015 के जिस मसौदे पर जनता की राय मांगी है उसके अनुसार आने वाले
दिनों में चिकित्सा देश के नागरिकों का मौलिक अधिकार बन जाएगी। यानी स्वास्थ्य व्यक्ति
का कानूनी अधिकार होगा। सिद्धांततः यह क्रांतिकारी बात है। भारतीय राज-व्यवस्था
शिक्षा के बाद व्यक्ति को स्वास्थ्य का अधिकार देने जा रही है। इसका मतलब है कि
हमारा समाज गरीबी के फंदे को तोड़कर बाहर निकलने की दिशा में है। पर यह बात अभी तक
सैद्धांतिक ही है। इसे व्यावहारिक बनने का हमें इंतजार करना होगा। पर यह भी सच है
कि पिछले कुछ वर्षों में हमारे यहाँ सार्वजनिक स्वास्थ्य को लेकर चेतना बढ़ी है।
Sunday, January 18, 2015
गूगल एडसेंस के बहाने मीडिया पर विमर्श
यों तो मैने कई ब्लॉग बना रखे हैं, पर नियमित रूप से जिज्ञासा और ज्ञानकोश को अपडेट करता हूँ। हाल में मेरी एक पोस्ट पर श्री अनुराग चौधरी ने टिप्पणी में सुझाव दिया कि मैं गूगल एडसेंस से जोड़ूं। उनकी टिप्पणी निम्नलिखित थी_-
आदरणीय जोशीजी, सादर नमस्कार।
उसके पहले कई तरफ से जानकारी मिली थी कि अब हिन्दी में लिखे जा रहे ब्लॉगों को भी गूगल एडसेंस की स्वीकृति मिल रही है। उनकी बात मानकर मैने एडसेंस को अर्जी दी और वह स्वीकृत हो गई।
आदरणीय जोशीजी, सादर नमस्कार।
आपका ब्लॉग हमेशा देखता हूँ और मैं इंतजार कर रहा हूँ की आपके ब्लॉग पर कब adsense के विज्ञापन चालू हो परन्तु अभीतक चालू नहीं हुए हैं। कृपया adsense के लिया apply करें आपका ब्लॉग adsense के लिए फिट है। Google ने हिंदी ब्लॉगों पर adsense शुरू कर दिया है। दूसरी बात यह है कि आपके ब्लॉग की सामग्री के अनुसार visitor संख्या कम है। कृपया कुछ समय निकल कर सर्च सेटिंग सही करें अथवा प्रत्येक पोस्ट को एक एक कर के गूगल सर्च इंजिन पर रजिस्टर करें।-अनुराग चौधरी
उसके पहले कई तरफ से जानकारी मिली थी कि अब हिन्दी में लिखे जा रहे ब्लॉगों को भी गूगल एडसेंस की स्वीकृति मिल रही है। उनकी बात मानकर मैने एडसेंस को अर्जी दी और वह स्वीकृत हो गई।
गुणवत्ता-विहीन हमारी शिक्षा
धारणा है कि हमारे स्कूलों का स्तर बहुत ऊँचा
है। सीबीएसई और आईसीएसई परीक्षाओं में 100 फीसद नम्बर लाने वालों की संख्या बढ़ती
जा रही है। यह भ्रम सन 2012 के पीसा टेस्ट में टूट गया। विकसित देशों की संस्था
ओईसीडी हर साल प्रोग्राम फॉर इंटरनेशनल स्टूडेंट असेसमेंट (पीसा) के नाम से एक
परीक्षण करती है। दो घंटे की इस परीक्षा में दुनियाभर के देशों के तकरीबन पाँच लाख
बच्चे शामिल होते हैं। सन 2012 में भारत और चीन के शंघाई प्रांत के बच्चे इस
परीक्षा में पहली बार शामिल हुए। चीनी बच्चे पढ़ाई, गणित और साइंस तीनों परीक्षणों में नम्बर एक पर रहे और भारत
के बच्चे 72 वें स्थान पर रहे, जबकि कुल 73 देश
ही उसमें शामिल हुए थे।
Saturday, January 17, 2015
विज्ञान-दृष्टि विहीन वैज्ञानिक
पुष्प एम. भार्गव
भारत ने पिछले 85 सालों से विज्ञान में एक भी नोबेल पुरस्कार पैदा नहीं किया. इसकी बड़ी वजह देश में वैज्ञानिक आबोहवा की गैरमौजूदगी है.
जवाहरलाल नेहरू ने अपनी पुस्तक 'डिस्कवरी ऑफ़ इंडिया' में 'साइंटिफिक टेम्पर' यानी वैज्ञानिक सोच (या विज्ञान दृष्टि) जुमला ईजाद किया था. यह पुस्तक 1946 में प्रकाशित हुई. वह एसोसिएशन ऑफ़ साइंटिफिक वर्कर्स ऑफ़ इंडिया (एएसडब्ल्यूआई) नाम की संस्था के अध्यक्ष भी थे. यह संस्था बतौर ट्रेड यूनियन पंजीकृत थी और 1940 दशक और 1950 के शुरूआती वर्षों में मैं भी इससे जुड़ा रहा. यह अपनी तरह का इकलौता उदाहरण होगा जब एक लोकतांत्रिक देश का प्रधानमंत्री किसी ट्रेड यूनियन का अध्यक्ष बना हो. संस्था के उद्देश्यों में एक था- वैज्ञानिक दृष्टि का प्रचार-प्रसार. शुरू में यह काफी सक्रिय रही लेकिन 1960 दशक आते-आते पूरी तरह बिखर गयी, क्योंकि देश के ज्यादातर वैज्ञानिक, जिनमें कई ऊंचे पदों पर आसीन थे, स्वयं वैज्ञानिक दृष्टि की उस अवधारणा के प्रति प्रतिबद्ध नहीं थे, जो तार्किकता व विवेक का पक्षपोषण तथा तमाम तरह की रूढ़ियों, अंधविश्वासों व झूठ से मुक्ति का आह्वान करती है.
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