Sunday, October 23, 2011

चुनाव व्यवस्था पर नए सिरे से सोचना चाहिए


चनाव-व्यवस्था-1
जरूरी है चुनावी व्यवस्था की समीक्षा

भ्रष्टाचार के खिलाफ कोई भी व्यवस्था तब तक निरर्थक है जब तक राजनीतिक व्यवस्था में बुनियादी बदलाव न हो। राजनीतिक व्यवस्था की एक हिस्सा है चुनाव। चुनाव के बारे में व्यापक विचार-विमर्श होना चाहिए। शिशिर सिंह ने इस सिलसिले में मेरे पास लेख भेजा है। इस विषय पर आप कोई राय रखते हों तो कृपया भेजें। मुझे इस ब्लॉग पर प्रकाशित करने में खुशी होगी। 

लोग केवल मजबूत लोकपाल नहीं चाहते वह चाहते हैं कि राइट टू रिजेक्ट को भी लागू किया जाए। हालांकि जनप्रतिनिधियों को वापस बुलाने की इस धारणा पर मिश्रित प्रतिक्रिया आई हैं। मुख्य चुनाव आयुक्त एसवाई कुरैशी ने इसे भारत के लिहाज से अव्यावहारिक बताया है। सही भी है ऐसे देश में जहाँ कानूनों के उपयोग से ज्यादा उनका दुरूप्रयोग होता हो, राइट टू रिजेक्ट अस्थिरता और प्रतिद्वंदिता निकालने की गंदी राजनीति का हथियार बन सकता है। लेकिन अगर व्यवस्थाओं में परिवर्तन चाहते हैं तो भरपूर दुरूप्रयोग हो चुकी चुनाव की मौजूदा व्यवस्था में परिवर्तन लाना ही पड़ेगा क्योंकि अच्छी व्यवस्था के लिए अच्छा जनप्रतिनिधि होना भी बेहद जरूरी है। इसलिए जरूरी है कि हम अपनी चुनावी व्यवस्था की नए सिर से समीक्षा करें।

Friday, October 21, 2011

चुनाव सुधरेंगे तो सब सुधरेगा

 पेड न्यूज़ के कारण उत्तर प्रदेश की बिसौली सीट से जीती प्रत्याशी की सदस्यता समाप्त होने के बाद सम्भावना बनी है कि यह मामला कुछ और खुलेगा। यह सिर्फ मीडिया का मामला नहीं है हमारी पूरी चुनाव व्यवस्था की कमज़ोर कड़ी है। आने वाले समय में व्यवस्थागत बदलाव के लिए चुनाव प्रणाली में सुधार की ज़रूरत होगी। यह बदलाव का समय है।चुनाव के गोमुख से निकलेगी सुधारों की गंगा।

अन्ना-आंदोलन शुरू होने पर सबसे पहले कहा गया कि चुनाव का रास्ता खुला है। आप उधर से आइए। चुनाव के रास्ते पर व्यवस्थित रूप से बैरियर लगे हैं जो सीधे-सरल और ईमानदार लोगों को रोक लेते हैं। चुनाव पावर गेम है। इसमें मसल और मनी मिलकर माइंड पर हावी रहते हैं। जनता का बड़ा तबका भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन का समर्थन सिर्फ इसलिए करता है क्योंकि उसे लगता है कि व्यवस्था पूरी तरह ठीक न भी हो, पर एक हद तक ढर्रे पर लाई जा सकती है।

Wednesday, October 19, 2011

एक अखबार जो साखदार है और आर्थिक रूप से सबल भी

19 अक्टूबर के हिन्दू में वरिष्ठ पत्रकार खुशवंत सिंह का पत्र छपा है, जो मैने नीचे उद्धृत किया है। खुशवंत सिंह ने अखबार की तारीफ की है और उसे देश का ही नहीं दुनिया का सबसे विश्वसनीय अखबार माना है। आज जब हम अखबारों की साख को लेकर परेशान हैं तब हिन्दू की इस किस्म की तारीफ विस्मय पैदा करती है।

Monday, October 17, 2011

स्मारकों से ज्यादा महत्वपूर्ण है स्मृतियों का होना

शायद सन 1979 की बात है। प्रेमचंद के जन्मशती वर्ष की शुरूआत की जा रही थी। लखनऊ दूरदर्शन की एक परिचर्चा में मेरे एक सहचर्चाकार ने सुझाव दिया कि लमही और वाराणसी में प्रेमचंद के घरों को स्मारक बना दिया जाए। सुझाव अच्छा था, पर मेरी राय यह थी कि प्रेमचंद के साहित्य को पढना या पढ़ाया जाना ज्यादा महत्वपूर्ण है। जो समाज अपने लेखकों को पढ़ता नहीं, वह ईंट-पत्थर के स्मारकों का क्या करेगा? स्मारकों के साथ स्मृतियों का होना महत्वपूर्ण है। स्मृतियाँ हर तरह की होती हैं। मीठी भी कड़वी भी।

नोएडा में मुख्यमंत्री मायावती ने दलित प्रेरणास्थल का उद्घाटन करके एक नई बहस का आधार तैयार किया है। बेशक नए पार्क प्रभावशाली हैं और दलितों की अस्मिता को बढ़ाने वाले हैं, पर क्या इससे उनके जीवन में कोई सुधार होगा? क्या इनका कोई अर्थ है? इन पार्कों-प्रतिमाओं और स्मारकों पर कितना खर्च हुआ और खर्च वाजिब है या नहीं, यह इस लेख का विषय नहीं है। यह विचार करने की इच्छा ज़रूर है कि हमारा समाज स्मृतियों और स्मारकों से विमुख रहने वाला समाज क्यों है? वह इतिहास की वस्तुनिष्ठ समझ से भागता क्यों है?

Sunday, October 16, 2011

गठबंधन राजनीति के नए असमंजसों को जन्म देगा यूपी का चुनाव

उत्तर प्रदेश में गली-गली खुले वोट बैंक उसकी राजनीति को हमेशा असमंजस में रखेंगे। 1967 में पहली बार साझा सरकार बनने के बाद यहाँ साझा सरकारों की कई किस्में सामने आईं, पर एक भी साझा लम्बा नहीं खिंचा। 2007 के यूपी चुनाव परिणाम एक हद तक विस्मयकारी थे। उस विस्मय की ज़मीन प्रदेश की सामाजिक संरचना में थी।  पर वह स्थिति आज नहीं है। 

अंदेशा है कि अगले साल होने वाले विधानसभा चुनाव के परिणाम किसी एक पार्टी को बहुमत नहीं देंगे। सन 2007 की चमत्कारिक सोशल इंजीनियरी ने बसपा को जिस तरह की सफलता दी थी उसकी सम्भावना इस बार नहीं है। उत्तर प्रदेश के चुनाव हवा में नहीं सामाजिक ज़मीन पर होते हैं। सामाजिक समीकरण पहले से बता देते हैं कि माहौल क्या है। इस बार का माहौल असमंजस वाला है। और हालात इसी तरह रहे तो 2014 के लोकसभा चुनाव तक यह असमंजस पूरे देश में होगा। अब महत्वपूर्ण हैं चुनाव के बाद के गठबंधन। पिछले साठ साल का उत्तर प्रदेश का चुनाव इतिहास गवाह है कि यहाँ बड़ी संख्या में निर्दलीय या छोटे दलों के सदस्य चुनकर आते हैं, जो गठबंधन की राजनीति को आकार देने में मददगार होते हैं। उत्तर प्रदेश के अलावा उत्तराखंड और पंजाब में दो राजनीतिक शक्तियों के बीच सीधा टकराव होगा।