पेड न्यूज़ के कारण उत्तर प्रदेश की बिसौली सीट से जीती प्रत्याशी की सदस्यता समाप्त होने के बाद सम्भावना बनी है कि यह मामला कुछ और खुलेगा। यह सिर्फ मीडिया का मामला नहीं है हमारी पूरी चुनाव व्यवस्था की कमज़ोर कड़ी है। आने वाले समय में व्यवस्थागत बदलाव के लिए चुनाव प्रणाली में सुधार की ज़रूरत होगी। यह बदलाव का समय है।चुनाव के गोमुख से निकलेगी सुधारों की गंगा।
अन्ना-आंदोलन शुरू होने पर सबसे पहले कहा गया कि चुनाव का रास्ता खुला है। आप उधर से आइए। चुनाव के रास्ते पर व्यवस्थित रूप से बैरियर लगे हैं जो सीधे-सरल और ईमानदार लोगों को रोक लेते हैं। चुनाव पावर गेम है। इसमें मसल और मनी मिलकर माइंड पर हावी रहते हैं। जनता का बड़ा तबका भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन का समर्थन सिर्फ इसलिए करता है क्योंकि उसे लगता है कि व्यवस्था पूरी तरह ठीक न भी हो, पर एक हद तक ढर्रे पर लाई जा सकती है।
जिस तरह लोकपाल-व्यवस्था लम्बे अरसे से कानून बनने का इंतज़ार कर रही है उसी तरह चुनाव सुधार का काम भी लम्बे समय से राष्ट्रीय रेडार पर है। चूंकि बदलाव करने वाली व्यवस्था वही है जिसमें बदलाव होना है, इसलिए विसंगतियों की भरमार है। अगले कुछ दिनों के भीतर प्रधानमंत्री चुनाव सुधार के लिए सर्वदलीय बैठक बुलाने वाले हैं। इस बैठक के बाद देश की राजनीतिक व्यवस्था में बदलाव की प्रक्रिया शुरू होगी। हाल में मुख्य चुनाव आयुक्त एसवाय़ कुरैशी ने कहा कि जन-प्रतिनिधियों को वापस बुलाने का अधिकार पूरी व्यवस्था को अस्थिर कर देगा। कानून मंत्री सलमान खुर्शीद का विचार है कि राइट टु रिकॉल के मुकाबले राइट टु रिजेक्ट का निर्वाह अपेक्षाकृत सम्भव है। यानी वोटर के पास अधिकार हो कि वह कह सके कि इनमें से कोई प्रत्याशी चुने जाने लायक नहीं है।
इस तरह के अधिकार सुनने में जितने अच्छे लगते हैं, व्यवहार में उनमें उतने ही पेच हैं। देश में शिक्षा का प्रसार पर्याप्त नहीं है। जानकारी के माध्यमों यानी मीडिया की दशा खराब है। वे जनपथ बाजार की तरह बोली लगाकर माल बेचते हैं। वोटर को प्रशिक्षित करने वाले संगठनों की संख्या बेहद कम है। एनजीओ-संस्कृति भी मीडिया-कारोबार की तरह कमाई-केन्द्रित है। फिर भी बदलाव हुआ है। पिछले दो दशक में चुनाव सुधार के लिए अलग-अलग फोरमों से जो सुझाव आए हैं उन्हें विधि मंत्रालय और चुनाव आयोग ने एकत्र किया है। 1990 में गोस्वामी समिति, 1993 में वोहरा समिति, सन 1998 में चुनाव के लिए सरकारी फंडिंग पर विचार के लिए इन्द्रजीत गुप्त समिति, 1999 में चुनाव सुधार पर विधि आयोग की रपट, सन 2001 में संविधान पुनरीक्षा आयोग की सिफारिशों, सन 2004 में चुनाव आयोग के प्रस्ताव और सन 2007 में द्वितीय प्रशासनिक सुधार आयोग की सिफारिशों को एक साथ रखकर पढ़ें तो समझ में आता है कि बदलाव की काफी गुंजाइश मौजूद है।
पहली बात समझी जानी चाहिए कि व्यवस्था जनता के लिए है, जन-प्रतिनिधियों के लिए नहीं। जनता के मन में अविश्वास बैठ जाएगा तो लोकतंत्र कैसे चलेगा? हाल में हम जिन घोटालों का जिक्र सुन रहे हैं, उनसे प्रक्रियात्मक दोष सामने आए हैं। गठबंधन की राजनीति ने भी कुछ दोष पैदा किए हैं। राजनीतिक शक्तियाँ गठबंधन में शामिल होने की कीमत वसूलती हैं। राजनीति का बढ़ता अपराधीकरण एक और पहलू है। पिछले दो दशक में जिस तरह से अपराधी तत्व खुलकर राजनीति में आए हैं, वह शुभ लक्षण नहीं है। राजनीतिक दलों को चुनाव जीतने के लिए मसल पावर चाहिए और पैसा भी। इसके लिए प्रत्याशियों के हलफनामों की व्यवस्था की गई है।
जिस तरह टूजी मामले में कार्रवाई अदालतों की सक्रियता से हासिल हुई उसी तरह हलफनामों की व्यवस्था भी राजनीतिक शक्तियों के विरोध के बावजूद अदालतों की सक्रियता से हासिल हुई है। अभी तक गलत विवरण देने पर कठोर सजा की व्यवस्था नहीं है। अब जन प्रतिनिधित्व कानून 1951 की धारा 125 ए में बदलाव की ज़रूरत है। क्या एक प्रत्याशी को एक से ज्यादा जगह से चुनाव लड़ने की अनुमति होनी चाहिए? सन 1998 में हुई सर्वदलीय बैठक में राय थी कि फिलहाल जो व्यवस्था चल रही है उसे चलते देना चाहिए।
एग्ज़िट पोल पर रोक लग चुकी है, पर ओपीनियन पोल अभी जारी हैं। इनका सम्बंध अभिव्यक्ति के अधिकार से भी है। इसके बहाने स्वार्थी तत्व अपनी राय वोटर के मन में डालते हैं। मीडिया-प्रवृत्तियों का निरंतर ह्रास इसके लिए जिम्मेदार है। विडंबना है कि मीडिया हाउसों के बीच नैतिकता के प्रश्नों पर बातचीत नहीं होती। सरोगेट विज्ञापन और पेड न्यूज़ के मसले भी ऐसे ही हैं। सरकारी विज्ञापनों का मामला भी है। जिस तरह सार्वजनिक धन का इस्तेमाल व्यक्तिगत विज्ञापनों में होता है उसे रोकने के लिए प्रभावशाली कानून होने चाहिए।
सन 2009 के चुनावों के ठीक पहले मुख्य चुनाव आयुक्त एन गोपालास्वामी ने एक चुनाव आयुक्त नवीन चावला को हटाने की सलाह दी थी। उस वक्त चुनाव आयोग की नियुक्तियों को लेकर बहस छिड़ी थी जो अभी तक जारी है। अब जब हम लोकपाल की नियुक्ति को लेकर चर्चा कर रहे हैं, चुनाव आयोग की नियुक्तियों पर भी बात होनी चाहिए। सन 2006 में तत्कालीन मुख्य चुनाव आयुक्त बीबी टंडन ने राष्ट्रपति एपीजे अबुल कलाम को सुझाव दिया था कि चुनाव आयोग की नियुक्ति के लिए सात सदस्यों की कमेटी बनानी चाहिए जिसमें प्रधानमंत्री के अलावा लोकसभा अध्यक्ष, राज्यसभा उप सभापति, लोक सभा और राज्यसभा में नेता विपक्ष, विधि मंत्री और सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्याधीश की संस्तुति से नियुक्त एक न्यायाधीश हों। यह मामला अभी विमर्श का विषय है।
पिछले साल झारखंड में सरकार बनाने की प्रक्रिया में कई तरह के पेच सामने आए। यह मामला भाजपा और झारखंड मुक्ति मोर्चा के बीच गठबंधन का था। गठबंधन की राजनीति और दल-बदल कानून के छिद्र अभी बाकी हैं। पिछले साल कर्नाटक की येद्दीयुरप्पा सरकार के सामने विधायकों की बगावत का मामला उठा था। राजनीतिक दल इस मामले को अपने भीतर का मामला मानते हैं और इसे सुलझा लेते हैं। हॉर्स ट्रेडिंग हमारी राजनीति का परिचित शब्द है। इस पर भी बात होनी चाहिए।
चुनाव खर्च को लेकर पिछले दो दशक में काफी दबाव बना है। व्यवस्था को पारदर्शी बनाने की तमाम कोशिशों के बावजूद अब भी जितना सामने है उससे ज्यादा छिपा रहता है। बहरहाल देश की कुछ संस्थाएं चुनाव पर नज़र रखने लगीं हैं। उनमें एक है एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (एडीआर)। इसी के तहत इलेक्शन वॉच का काम होता है। एडीआर ने इस साल अप्रेल-मई में हुए पाँच राज्यों के चुनाव में प्रत्याशियों के खर्च का विवरण दिया है वह रोचक है। जिन पाँच राज्यों में चुनाव हुआ उनके नाम हैं प बंगाल, असम, केरल, तमिलनाडु और पुदुच्चेरी। इनमे पहले चार राज्यों में प्रत्याशियों के खर्च की सीमा 16 लाख रु है और पुदुच्चेरी में 9 लाख रु।
प्रत्याशियों को अपने खर्च का विवरण 30 दिन में देना होता है। चुनाव घोषित होने के 45 दिन के भीतर चुनाव खर्च को लेकर चुनौती दी जा सकती है। कितने प्रत्याशियों के चुनाव को चुनौती मिली पता नहीं, पर प्रत्याशियों ने जो विवरण दिया है वह मजेदार है। एडीआर ने कुल 746 एमएलए के खर्च का विश्लेषण किया है। इनमें से केवल 32 ने माना है कि उन्होंने खर्च की सीमा के 80 फीसदी से ज्यादा खर्च किया। 403 ने 50 फीसदी से कम खर्च किया। किसी भी एमएलए ने सीमा से ज्यादा खर्च नहीं किया। लगभग सभी दल माँग करते हैं कि चुनाव खर्च की सीमा कम है। उसे बढ़ाया जाना चाहिए। पर जब खर्च होता है तो वे सीमा से कहीं कम खर्च करते हैं। चुनाव आयोग के पर्यवेक्षकों ने इस दौरान काफी नकद राशि बरामद की। अकेले तमिलनाडु में ही 60 करोड़ रु से ज्यादा बरामद हुए। यह किसका पैसा था और कौन खर्च कर रहा था? तिरुचिरापल्ली में एक बस से 5.11 करोड़ रु बरामद हुए। एक और छापे में मदुरै में 3.5 करोड़ रु बरामद हुए थे।
हम सिर्फ प्रत्याशियों से पैसों का विवरण माँगते हैं। पार्टियों से भी माँगना चाहिए। हमने जिस संवैधानिक-लोकतांत्रिक व्यवस्था का वरण किया है, उसमें जनता का हस्तक्षेप बुनियादी शर्त है। लोकतंत्र केवल चुनाव लड़ना ही नहीं है, चुनाव की पद्धति को दुरुस्त करना भी है। यह काम आपको करना है।
अन्ना-आंदोलन शुरू होने पर सबसे पहले कहा गया कि चुनाव का रास्ता खुला है। आप उधर से आइए। चुनाव के रास्ते पर व्यवस्थित रूप से बैरियर लगे हैं जो सीधे-सरल और ईमानदार लोगों को रोक लेते हैं। चुनाव पावर गेम है। इसमें मसल और मनी मिलकर माइंड पर हावी रहते हैं। जनता का बड़ा तबका भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन का समर्थन सिर्फ इसलिए करता है क्योंकि उसे लगता है कि व्यवस्था पूरी तरह ठीक न भी हो, पर एक हद तक ढर्रे पर लाई जा सकती है।
जिस तरह लोकपाल-व्यवस्था लम्बे अरसे से कानून बनने का इंतज़ार कर रही है उसी तरह चुनाव सुधार का काम भी लम्बे समय से राष्ट्रीय रेडार पर है। चूंकि बदलाव करने वाली व्यवस्था वही है जिसमें बदलाव होना है, इसलिए विसंगतियों की भरमार है। अगले कुछ दिनों के भीतर प्रधानमंत्री चुनाव सुधार के लिए सर्वदलीय बैठक बुलाने वाले हैं। इस बैठक के बाद देश की राजनीतिक व्यवस्था में बदलाव की प्रक्रिया शुरू होगी। हाल में मुख्य चुनाव आयुक्त एसवाय़ कुरैशी ने कहा कि जन-प्रतिनिधियों को वापस बुलाने का अधिकार पूरी व्यवस्था को अस्थिर कर देगा। कानून मंत्री सलमान खुर्शीद का विचार है कि राइट टु रिकॉल के मुकाबले राइट टु रिजेक्ट का निर्वाह अपेक्षाकृत सम्भव है। यानी वोटर के पास अधिकार हो कि वह कह सके कि इनमें से कोई प्रत्याशी चुने जाने लायक नहीं है।
इस तरह के अधिकार सुनने में जितने अच्छे लगते हैं, व्यवहार में उनमें उतने ही पेच हैं। देश में शिक्षा का प्रसार पर्याप्त नहीं है। जानकारी के माध्यमों यानी मीडिया की दशा खराब है। वे जनपथ बाजार की तरह बोली लगाकर माल बेचते हैं। वोटर को प्रशिक्षित करने वाले संगठनों की संख्या बेहद कम है। एनजीओ-संस्कृति भी मीडिया-कारोबार की तरह कमाई-केन्द्रित है। फिर भी बदलाव हुआ है। पिछले दो दशक में चुनाव सुधार के लिए अलग-अलग फोरमों से जो सुझाव आए हैं उन्हें विधि मंत्रालय और चुनाव आयोग ने एकत्र किया है। 1990 में गोस्वामी समिति, 1993 में वोहरा समिति, सन 1998 में चुनाव के लिए सरकारी फंडिंग पर विचार के लिए इन्द्रजीत गुप्त समिति, 1999 में चुनाव सुधार पर विधि आयोग की रपट, सन 2001 में संविधान पुनरीक्षा आयोग की सिफारिशों, सन 2004 में चुनाव आयोग के प्रस्ताव और सन 2007 में द्वितीय प्रशासनिक सुधार आयोग की सिफारिशों को एक साथ रखकर पढ़ें तो समझ में आता है कि बदलाव की काफी गुंजाइश मौजूद है।
पहली बात समझी जानी चाहिए कि व्यवस्था जनता के लिए है, जन-प्रतिनिधियों के लिए नहीं। जनता के मन में अविश्वास बैठ जाएगा तो लोकतंत्र कैसे चलेगा? हाल में हम जिन घोटालों का जिक्र सुन रहे हैं, उनसे प्रक्रियात्मक दोष सामने आए हैं। गठबंधन की राजनीति ने भी कुछ दोष पैदा किए हैं। राजनीतिक शक्तियाँ गठबंधन में शामिल होने की कीमत वसूलती हैं। राजनीति का बढ़ता अपराधीकरण एक और पहलू है। पिछले दो दशक में जिस तरह से अपराधी तत्व खुलकर राजनीति में आए हैं, वह शुभ लक्षण नहीं है। राजनीतिक दलों को चुनाव जीतने के लिए मसल पावर चाहिए और पैसा भी। इसके लिए प्रत्याशियों के हलफनामों की व्यवस्था की गई है।
जिस तरह टूजी मामले में कार्रवाई अदालतों की सक्रियता से हासिल हुई उसी तरह हलफनामों की व्यवस्था भी राजनीतिक शक्तियों के विरोध के बावजूद अदालतों की सक्रियता से हासिल हुई है। अभी तक गलत विवरण देने पर कठोर सजा की व्यवस्था नहीं है। अब जन प्रतिनिधित्व कानून 1951 की धारा 125 ए में बदलाव की ज़रूरत है। क्या एक प्रत्याशी को एक से ज्यादा जगह से चुनाव लड़ने की अनुमति होनी चाहिए? सन 1998 में हुई सर्वदलीय बैठक में राय थी कि फिलहाल जो व्यवस्था चल रही है उसे चलते देना चाहिए।
एग्ज़िट पोल पर रोक लग चुकी है, पर ओपीनियन पोल अभी जारी हैं। इनका सम्बंध अभिव्यक्ति के अधिकार से भी है। इसके बहाने स्वार्थी तत्व अपनी राय वोटर के मन में डालते हैं। मीडिया-प्रवृत्तियों का निरंतर ह्रास इसके लिए जिम्मेदार है। विडंबना है कि मीडिया हाउसों के बीच नैतिकता के प्रश्नों पर बातचीत नहीं होती। सरोगेट विज्ञापन और पेड न्यूज़ के मसले भी ऐसे ही हैं। सरकारी विज्ञापनों का मामला भी है। जिस तरह सार्वजनिक धन का इस्तेमाल व्यक्तिगत विज्ञापनों में होता है उसे रोकने के लिए प्रभावशाली कानून होने चाहिए।
सन 2009 के चुनावों के ठीक पहले मुख्य चुनाव आयुक्त एन गोपालास्वामी ने एक चुनाव आयुक्त नवीन चावला को हटाने की सलाह दी थी। उस वक्त चुनाव आयोग की नियुक्तियों को लेकर बहस छिड़ी थी जो अभी तक जारी है। अब जब हम लोकपाल की नियुक्ति को लेकर चर्चा कर रहे हैं, चुनाव आयोग की नियुक्तियों पर भी बात होनी चाहिए। सन 2006 में तत्कालीन मुख्य चुनाव आयुक्त बीबी टंडन ने राष्ट्रपति एपीजे अबुल कलाम को सुझाव दिया था कि चुनाव आयोग की नियुक्ति के लिए सात सदस्यों की कमेटी बनानी चाहिए जिसमें प्रधानमंत्री के अलावा लोकसभा अध्यक्ष, राज्यसभा उप सभापति, लोक सभा और राज्यसभा में नेता विपक्ष, विधि मंत्री और सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्याधीश की संस्तुति से नियुक्त एक न्यायाधीश हों। यह मामला अभी विमर्श का विषय है।
पिछले साल झारखंड में सरकार बनाने की प्रक्रिया में कई तरह के पेच सामने आए। यह मामला भाजपा और झारखंड मुक्ति मोर्चा के बीच गठबंधन का था। गठबंधन की राजनीति और दल-बदल कानून के छिद्र अभी बाकी हैं। पिछले साल कर्नाटक की येद्दीयुरप्पा सरकार के सामने विधायकों की बगावत का मामला उठा था। राजनीतिक दल इस मामले को अपने भीतर का मामला मानते हैं और इसे सुलझा लेते हैं। हॉर्स ट्रेडिंग हमारी राजनीति का परिचित शब्द है। इस पर भी बात होनी चाहिए।
चुनाव खर्च को लेकर पिछले दो दशक में काफी दबाव बना है। व्यवस्था को पारदर्शी बनाने की तमाम कोशिशों के बावजूद अब भी जितना सामने है उससे ज्यादा छिपा रहता है। बहरहाल देश की कुछ संस्थाएं चुनाव पर नज़र रखने लगीं हैं। उनमें एक है एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (एडीआर)। इसी के तहत इलेक्शन वॉच का काम होता है। एडीआर ने इस साल अप्रेल-मई में हुए पाँच राज्यों के चुनाव में प्रत्याशियों के खर्च का विवरण दिया है वह रोचक है। जिन पाँच राज्यों में चुनाव हुआ उनके नाम हैं प बंगाल, असम, केरल, तमिलनाडु और पुदुच्चेरी। इनमे पहले चार राज्यों में प्रत्याशियों के खर्च की सीमा 16 लाख रु है और पुदुच्चेरी में 9 लाख रु।
प्रत्याशियों को अपने खर्च का विवरण 30 दिन में देना होता है। चुनाव घोषित होने के 45 दिन के भीतर चुनाव खर्च को लेकर चुनौती दी जा सकती है। कितने प्रत्याशियों के चुनाव को चुनौती मिली पता नहीं, पर प्रत्याशियों ने जो विवरण दिया है वह मजेदार है। एडीआर ने कुल 746 एमएलए के खर्च का विश्लेषण किया है। इनमें से केवल 32 ने माना है कि उन्होंने खर्च की सीमा के 80 फीसदी से ज्यादा खर्च किया। 403 ने 50 फीसदी से कम खर्च किया। किसी भी एमएलए ने सीमा से ज्यादा खर्च नहीं किया। लगभग सभी दल माँग करते हैं कि चुनाव खर्च की सीमा कम है। उसे बढ़ाया जाना चाहिए। पर जब खर्च होता है तो वे सीमा से कहीं कम खर्च करते हैं। चुनाव आयोग के पर्यवेक्षकों ने इस दौरान काफी नकद राशि बरामद की। अकेले तमिलनाडु में ही 60 करोड़ रु से ज्यादा बरामद हुए। यह किसका पैसा था और कौन खर्च कर रहा था? तिरुचिरापल्ली में एक बस से 5.11 करोड़ रु बरामद हुए। एक और छापे में मदुरै में 3.5 करोड़ रु बरामद हुए थे।
हम सिर्फ प्रत्याशियों से पैसों का विवरण माँगते हैं। पार्टियों से भी माँगना चाहिए। हमने जिस संवैधानिक-लोकतांत्रिक व्यवस्था का वरण किया है, उसमें जनता का हस्तक्षेप बुनियादी शर्त है। लोकतंत्र केवल चुनाव लड़ना ही नहीं है, चुनाव की पद्धति को दुरुस्त करना भी है। यह काम आपको करना है।
हिन्दू में सुरेन्द्र का कार्टून |
खूबसूरत प्रस्तुति |
ReplyDeleteत्योहारों की नई श्रृंखला |
मस्ती हो खुब दीप जलें |
धनतेरस-आरोग्य- द्वितीया
दीप जलाने चले चलें ||
बहुत बहुत बधाई ||
उत्तर प्रदेश की एक विधायक की सदस्यता आयोग ने पेड न्यूज़ के मामले में दोषी पाए जाने पर खत्म कर दी ,लेकिन जिम्मेदार बड़े अखबारो ने इस पर कोई गंभीर चर्चा नहीं की , जागरण ने तों अपने अंदर के पेज पर एक छोटी सी खबर लगाई जिसे बहुत ध्यान देने पर ही कोई देख सकता है , ये हमारे देश की जिम्मेदार मीडिया है ? क्या मानते है की यदि जिम्मेदार और जागरूक होते तों ये मुख्य पेज की बड़ी खबर होती , तब शायद आने वाले चुनाव में पेड समाचार इन्हें कम मिलता आखिर धंधे वाले अपना धंधा क्यों खराब करे?
ReplyDeleteचुनाव सुधरेंगे तो देश सुधरेगा .. बहुत बढिया विश्लेषणात्मक आलेख !!
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