Sunday, April 22, 2018

खतरे में न्यायिक-मर्यादा


सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा के खिलाफ महाभियोग लाए जाने के पक्ष में एक दलील यह दी जा रही है कि महाभियोग सांविधानिक-व्यवस्था है और संविधान में बताए गए तरीके से ही इसका नोटिस दिया गया है. दूसरी बात यह कही जा रही है कि इसके पीछे राजनीतिक उद्देश्य नहीं हैं, यह शुद्ध न्यायिक-मर्यादा की रक्षा में उठाया गया कदम है. संसद में इस विषय पर विचार होगा या नहीं यह बाद की बात है, इस समय यह विषय आम चर्चा में है. सवाल है कि न्यायालय की भावना को लेकर इस किस्म की सार्वजनिक चर्चा करना क्या न्यायिक मर्यादा के पक्ष में है? कहा जाता है कि महाभियोग लाने वालों का उद्देश्य इस चर्चा को बढ़ावा देने का ही है. वे चाहते हैं कि सन 2019 के चुनाव तक यह चर्चा चलती रहे. संसद में संख्या-बल को देखते हुए तो यह प्रस्ताव पास होने की संभावना यों भी कम है.
एक सवाल यह भी है कि क्या यह प्रस्ताव पार्टियों की तरफ से रखा गया है या 64 सदस्यों की व्यक्तिगत हैसियत से लाया गया है? तब इस सिलसिले में शुक्रवार को हुई प्रेस कांफ्रेंस का आयोजक किसे माना जाए? सात दलों को या 64 सदस्यों के प्रतिनिधियों को?  इस प्रेस कांफ्रेंस में जो बातें कही गईं, उन्हें चर्चा माना जाए या नहीं? हमारे संविधान ने संसद सदस्यों को कई तरह के विशेषाधिकार दिए हैं. सार्वजनिक हित में वे ऐसे विषयों पर भी चर्चा कर सकते हैं, जिनपर सदन के बाहर बातचीत सम्भव नहीं (अनुच्छेद 105). मसलन वे सदन के भीतर मानहानिकारक बातें भी कह सकते हैं, जिनके लिए उन्हें उत्तरदायी नहीं माना जाता है. सामान्य नागरिक का वाक्-स्वातंत्र्य अनुच्छेद 19(2) में निर्दिष्ट निबंधनों के अधीन है. मानहानि-कानून के अधीन. पर सांसद को संसद या उसकी समिति में कही गई किसी बात के लिए न्यायालय में उत्तरदायी नहीं ठहराया जा सकता.
इसके बावजूद न्यायपालिका की मर्यादा की रक्षा के लिए संसद में भीतर भी वाक्-स्वातंत्र्य सीमित है. उच्चतम न्यायालय या उच्च न्यायालय के किसी न्यायाधीश के अपने कर्तव्यों के निर्वहन में किए गए, आचरण के विषय में संसद में कोई चर्चा, उस न्यायाधीश को हटाने की प्रार्थना करने वाले आवेदन को राष्ट्रपति के समक्ष प्रस्तुत करने के प्रस्ताव पर सदन में विचार की अनुमति मिलने के बाद ही होगी, अन्यथा नहीं (अनुच्छेद 121). सवाल है कि इन दिनों हम जो विमर्श देख-सुन रहे हैं, वह इस दायरे में आएगा या नहीं? यह विषय भी अब अदालत के सामने है. इस सिलसिले में बीजेपी और कांग्रेस के अलावा दूसरे दलों के जो राजनीतिक बयान आ रहे हैं, उनसे नहीं लगता कि किसी की दिलचस्पी न्यायिक मर्यादा में है. देश में वकीलों और कानून के जानकारों के बीच भी जबर्दस्त विभाजन देखने को मिल रहा है, जबकि जरूरत इस बात की है कि कम से कम कुछ मामलों पर सर्वानुमति हो. 


इतिहास के कुछ लम्हे ऐसे होते हैं, जिनका असर सदियों तक होता है। उनका निहितार्थ बरसों बाद समझ में आता है। दुनिया में लोकतांत्रिक-व्यवस्था सदियों के अनुभव से विकसित हुई है। बेशक यह पूर्ण और परिपक्व नहीं है, पर जैसी भी है उसका विकल्प नहीं है। उसकी सीमाओं और सम्भावनाओं को लेकर हमारे मन के द्वार हमेशा खुले रहने चाहिए। इसी रोशनी में और ठंडे दिमाग से सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा के खिलाफ रखे गए महाभियोग प्रस्ताव को देखना चाहिए। 

हमारी सांविधानिक व्यवस्था में महाभियोग एक आत्यंतिक परिघटना है। अतीत में दो बार ऐसी प्रक्रिया शुरू हुई थी, पर आजतक किसी न्यायाधीश के खिलाफ ऐसा प्रस्ताव पास नहीं हुआ है। इस प्रस्ताव की प्रक्रिया इसीलिए इतनी जटिल बनाई गई है कि जल्दबाजी में ऐसा कुछ न हो जाए कि हमें लम्बे समय तक शर्मिंदा होना पड़े शुक्रवार की दोपहर से पूरा देश स्तब्ध है। क्यों लाया जा रहा है यह प्रस्ताव?  क्या आज के हालात इस प्रस्ताव को लाने के लिए उपयुक्त हैं?

हमारी न्यायपालिका संविधान की संरक्षक है। लोकतंत्र की पहरेदार। इस प्रस्ताव से न्यायपालिका की स्वतंत्रता की रक्षा होगी या अहित होगा? बेशक न्यायपालिका को तमाम सवाल हैं। पर क्या सारे दोषों का ठीकरा मुख्य न्यायाधीश पर फोड़ा जा सकता है? हाल में चार जजों की प्रेस कांफ्रेंस के बाद पूरे देश ने उन बातों पर विचार करना शुरू किया ही है। पर इस सवाल को राजनीति के दायरे से अलग करके देखने की जरूरत है।

महाभियोग प्रस्ताव की खबर आने के बाद से सुप्रीम कोर्ट के अनेक पूर्व न्यायाधीशों ने इस प्रयास को गलत बताया है। संविधान विशेषज्ञों का मानना है कि यह प्रस्ताव संसद में नहीं टिकेगा। उनका यह भी कहना है कि महाभियोग प्रस्ताव के पीछे का कारण पद का दुरुपयोग और दुर्व्यवहार नहीं है, बल्कि यह पेशकश पूरी तरह से राजनीतिक है। प्रसिद्ध न्यायविद सोली सोराबजी, हाईकोर्ट के पूर्व जज एसएन ढींगरा, अजित कुमार सिन्हा और वरिष्ठ वकील विकास सिंह ने इसे राजनीति से प्रेरित माना है। उन लोगों की सूची काफी लम्बी है, जो इसे लोकतंत्र के लिए दुर्भाग्यपूर्ण मान रहे हैं।

हमारी सांविधानिक व्यवस्था में इस विषय पर सार्वजनिक चर्चाएं करना भी अनुचित है। शुक्रवार को सात विरोधी दलों की बैठक के बाद सुप्रीम कोर्ट में एक जनहित याचिका दाखिल की गई है, जिसमें कहा गया है कि संविधान के अनुच्छेद 121 के तहत जब तक संसद में किसी जज को हटाने का प्रस्ताव नहीं रखा जाता, तब तक सांसद किसी जज के बारे में पब्लिक फोरम पर चर्चा नहीं कर सकते। चीफ जस्टिस के खिलाफ महाभियोग की चर्चा को सुप्रीम कोर्ट ने दुर्भाग्यपूर्ण बताया है। यह भी कहा कि हाल के दिनों में जो कुछ हुआ है, वह परेशान कर देने वाला है। सुप्रीम कोर्ट अब इस बात पर सुनवाई करेगा कि क्या मीडिया को महाभियोग पर चर्चा से रोका जा सकता है।

हमें इस प्रस्ताव की व्यावहारिकता पर भी विचार करना चाहिए। संसद में संख्याबल को देखते हुए यह प्रस्ताव पास करना सम्भव नहीं लगता। सवाल है कि तब यह प्रस्ताव क्यों लाया गया है। शायद इसके पीछे एक उद्देश्य 2019 के चुनाव तक सार्वजनिक चर्चा को आगे बढ़ाना है। हालांकि यह मुहिम एक अरसे से चल रही है, पर उप-राष्ट्रपति के पास जाकर यह प्रस्ताव सौंपने का काम लोया मामले के फैसले के फौरन बाद हुआ है। इससे इसके राजनीतिक निहितार्थ समझ में आते हैं।

संयोग है कि लोकतंत्र और न्यायपालिका के साथ कांग्रेस पार्टी की छेड़खानी के कुछ पुराने उदाहरण मौजूद हैं। सबसे बड़ा उदाहरण इमर्जेंसी का है। 12 जून 1975 को इलाहाबाद हाईकोर्ट ने श्रीमती इंदिरा गांधी के चुनाव को खारिज किया। इसके बाद 24 जून को उस फैसले को सशर्त-स्थगित कर दिया और उसके अगले दिन ही देश में आपातकाल की घोषणा कर दी गई। हालांकि कांग्रेस का कहना है कि इस प्रस्ताव का लोया मामले से कोई सम्बंध नहीं है, पर इस बात पर कैसे विश्वास किया जाए?

वित्तमंत्री अरुण जेटली ने इस प्रस्ताव को रिवेंज पैटीशन (रंजिशन-याचिका बताया है। उन्होंने कहा कि इसका राजनीतिक हथियार के तौर पर इस्तेमाल नहीं किया जाना चाहिए। जेटली का कहना है कि जज लोया केस में कांग्रेस का प्रोपेगैंडा फेल हुआ, इसी वजह से बदले की भावना में चीफ जस्टिस के खिलाफ वह महाभियोग लेकर आई है। एक जज के खिलाफ इस प्रस्ताव को लाकर अन्य जजों को डराने की कोशिश की जा रही है और संदेश दिया जा रहा है कि तुम हमसे सहमत नहीं हुए तो बदला लेने के लिए 50 सांसद काफी हैं।

सारी बातें न्यायपालिका के प्रति बरती जाने वाली लक्ष्मण रेखा का उल्लंघन कर रहीं हैं। न्यायपालिका अत्यंत पवित्र संस्था है। उसपर विश्वास किसी कीमत पर नहीं तोड़ा जाना चाहिए। जस्टिस मिश्रा के पर पाँच प्रकार के आरोप लगाए गए हैं। पहली निगाह में ये सभी कयास लगते हैं। बेशक हाल में न्यायिक प्रक्रिया को लेकर भीतर से कुछ बातें बाहर आईं हैं। खासतौर से चार जजों की प्रेस कांफ्रेंस के बाद से। पर वह प्रेस कांफ्रेंस भी जस्टिस मिश्रा के खिलाफ नहीं थी। हाल में जस्टिस चेलमेश्वर ने चीफ जस्टिस के खिलाफ महाभियोग लाए जाने की सम्भावना के बारे में कहा था कि महाभियोग हर चीज का समाधान नहीं है। सिस्टम को सुधारने की जरूरत है। इस सुधार के रास्ते न्यायपालिका ही सुझाएगी।

पहली नजर में कांग्रेस पार्टी ने इस मामले में पहल करके अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारी है। इस प्रस्ताव पर विरोधी दलों की सर्वानुमति नहीं है। कांग्रेस के साथ छह दलों के सदस्य हैं, पर उनके भी सभी सदस्यों ने दस्तखत नहीं किए हैं। इन दलों के अलावा  आरजेडी, टीएमसी, बीजेडी, डीएमके, अन्ना डीएमके, टीडीपी, टीआरएस ने इसका समर्थन नहीं किया है। संख्या-बल में तो प्रस्ताव कमजोर है ही, नैतिक-बल में भी कमजोर है। कांग्रेस के भी कुछ वरिष्ठ नेता इससे सहमत नहीं हैं।

इस मामले में देखना होगा कि उप राष्ट्रपति इस प्रस्ताव को स्वीकार करेंगे या नहीं। वे प्रस्ताव को विचारार्थ स्वीकार करेंगे तो संसद में विचार के दौरान मुख्य न्यायाधीश की स्थिति क्या होगी? यदि प्रस्ताव स्वीकार नहीं होता, तो सम्भव है कि यह मामला सुप्रीम कोर्ट जाए। ऐसी स्थिति में मुख्य न्यायाधीश की भूमिका क्या होगी? ऐसे तमाम सवाल अब उठेंगे। देश में पहली बार ऐसे प्रश्न उठ रहे हैं। बेशक यह हमारे लोकतंत्र की अग्नि-परीक्षा है, पर यकीन है कि हम इसमें सफल होकर बाहर निकलेंगे।   
हरिभूमि में प्रकाशित
http://epaper.haribhoomi.com/?mod=1&pgnum=1&edcode=75&pagedate=2018-04-22#

2 comments:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (23-04-2018) को ) "भूखी गइया कचरा चरती" (चर्चा अंक-2949) पर होगी।
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    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    राधा तिवारी

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  2. सही कहा जोशी जी, महाभियोग के बहाने विरोध की राजनीति ने देश के अभिमान को धवस्‍त कर दिया है

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